-तारकेश्वर मिश्र

आर्थिक तौर पर पिछड़े सवर्णों को दस प्रतिशत आरक्षण दिए जाने वाले बिल पर राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने मुहर लगा दी। जिसके बाद अब ये बिल कानून बन गया। यह विधेयक संघीय ढांचे में किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं करता, इसलिए इसे राज्यों की विधानसभाओं की मंजूरी की जरूरत नहीं है। राष्ट्रपति की मंजूरी के साथ ही यह बिल कानून का रूप ले लिया। और गुजरात देश का ऐसा पहला राज्य बना जिसने आर्थिक तौर पर पिछड़े सवर्णों को दस प्रतिशत आरक्षण देने की घोषणा की है। देखा जाए तो आम चुनाव से पहले मोदी सरकार ने सामान्य वर्ग के आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए दस फीसदी आरक्षण का प्रस्ताव पास कर राजनीतिक विस्फोट किया है। मोदी सरकार के इस फैसले ने विपक्ष के पांवों तले से राजनीतिक जमीन खिसकाने का काम किया है। राजनीतिक मजबूरी और वोट बैंक की राजनीति के चलते संसद के दोनों संसदों में आरक्षण का प्रस्ताव बिना किसी बड़ी परेशानी ओर झंझट के पास हो गया। अब लाख टके का सवाल यह है कि क्या आरक्षण से मोदी सरकार के पक्ष में लहर पैदा होगी ? क्या इस फैसले के बलबूते मोदी 2014 जैसी बड़ी जीत हासिल कर पाएंगे ? बड़ा सवाल यह है कि क्या आरक्षण की नाव में बैठकर भाजपा चुनावी वैतरणी पार कर पाएगी ?

जिस आरक्षित समुदाय को लुभाने के लिए मोदी सरकार ने एससी-एसटी एक्ट पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को उलट दिया उसने भी हाल के पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में भाजपा को अपेक्षित साथ नहीं दिया। एससी-एसटी वोट बैंक का साथ न मिलने से भाजपा की स्थिति घर न घाट वाली हो गयी। हिंदी पट्टी के तीन राज्यां में सत्ता गंवाने के बाद भाजपा नेतृत्व ने आ अब लौट चलें की रणनीति अपनाते हुए अचानक ऐसा निर्णय ले लिया जो मौजूदा परिस्थितियों में अनपेक्षित कहा जा सकता है। इसे चुनावी वर्ष में मोदी सरकार का मास्टर स्ट्रोक माना जा रहा है इसलिए भले ही उसके भविष्य और क्रियान्वयन को लेकर टीका-टिप्पणी हो रही हों किन्तु मायावती, रामविलास पासवान और रामदास आठवले जैसे अनुसूचित जातियों के नेताओं तक को मोदी सरकार की इस पहल का समर्थन करना पड़ा। ओबीसी वर्ग के अनेक नेता यद्यपि इसकी अप्रत्यक्ष रूप से विरोध कर रहे हैं किंतु आरक्षण से वंचित गरीबों को भी लाभ मिले उसका समर्थन उन्हें भी करना पड़ रहा है।
नये कानून में आर्थिक दृष्टि से कमजोर वर्ग के जो मापदंड बताए गए उनके औचित्य पर भी सवाल उठ रहे हैं लेकिन सबसे बड़ी बात ये है कि मोदी सरकार ने आर्थिक आधार पर आरक्षण को राष्ट्रीय विमर्श का विषय बनाने की हिम्मत तो दिखाई। पहले से आरक्षण का फायदा उठा रहे तबके का हिस्सा कम किये बिना 10 फीसदी का जो प्रावधान किया वह भविष्य में आरक्षण का आधार आर्थिक स्थिति को बनाने का माध्यम बन सकता है। इसके साथ ही क्रीमी लेयर का जो सवाल सर्वोच्च न्यायालय ने समय-समय पर उठाया वह भी अनु. जाति-जनजाति और ओबीसी वर्ग के बीच भी गरमा सकता है। राजनीतिक विशलेषकों के अनुसार चुनावी साल में आरक्षण का प्रस्ताव मोदी सरकार का बहुत गहराई व चतुराई से भरा कदम है।

पिछले काफी समय से सवर्ण जातियों में भी इस बात पर काफी नाराजगी है कि हर तरह से समृद्ध हो चुके लोगों के बच्चों को भी आरक्षण का फायदा दिया जाता है। हालांकि सबसे ज्यादा एतराज आरक्षण के नाम पर योग्यता की उपेक्षा किये जाने पर है। पदोन्नति में आरक्षण से भी एक वर्ग आक्रोशित है। और जो सबसे ज्यादा चर्चित बात है वह है नौकरियों की संख्या में कमी जिसके फलस्वरूप आरक्षण केवल झुनझुना बनकर रह गया है। इन सबसे मोदी सरकार और भाजपा दोनों भलीभांति परिचित हैं। जहां तक इस निर्णय के संसद की मंजूरी मिलने के बाद भी न्यायालय में जाकर अटक जाने की आशंका है तो उसके बारे में ये कहा जा सकता है कि संविधान में वर्णित आरक्षण के प्रावधान को संशोधित करने के बाद सम्भवतः न्यायपालिका भी उसे नहीं छेड़ेगी किन्तु वैसा हुआ तब भी सभी राजनीतिक दलों पर ये दबाव बन जायेगा कि वे आर्थिक आधार पर आरक्षण को समर्थन दें।

इतिहास के पन्ने पलटे तो आरक्षण की आड़ में सत्ता हथियाने की जुगत में सबने अपनी सहमति से मतदाताओं को खुश करने का प्रयत्न करना शुरू दिया है। पिछले दशक से देश की चुनावी पटकथा जिन मुद्दों पर सिमटती जा रही है, उनमें आरक्षण सबसे ऊपर है। मोदी सरकार के इस फैसले से शायद सामान्य वर्ग के आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को फायदा भी जरूर होगा, लेकिन सामान्य वर्ग को आर्थिक आधार पर दस प्रतिशत आरक्षण देना ऊंट के मुंह में जीरे के समान है। सरकारी नौकरियों का दायरा तो सिकुड़ता जा रहा है, ऐसे में सरकारी नौकरियों में दस प्रतिशत आरक्षण का तो कोई औचित्य ही नहीं है। ऐसे में लाख टके का सवाल यह है कि क्या मोदी सरकार आरक्षण बढ़ा रही है या इस बीमारी का अस्थायी रूप से हल करने की कोशिश कर रही है? क्या सुप्रीम कोर्ट मोदी सरकार के आरक्षण के फैसले पर राजी होगा? आरक्षण हर वर्ग, जाति के लिए आर्थिक आधार पर हो जाए, तो किसी भी जाति, वर्ग के साथ अन्याय नहीं होगा या फिर आरक्षण खत्म करके देश में रोजगार के अवसर बढ़ाए जाएं और महंगाई पर लगाम कसी जाए।

दरअसल मोदी सरकार ने गरीब अगड़ों को जो 10 फीसदी आरक्षण देने का बिल संसद के दोनों सदनों से पारित कराया है, उसमें आमदनी की सीमा 8 लाख रुपए तय की गई है। यही राशि ओबीसी की क्रीमी लेयर है, लेकिन सालाना 2.5 लाख रुपए कमाने वाले देश के नागरिकों को आयकर देना पड़ता है। यह सवाल राज्यसभा में कई सांसदों ने सरोकार के तौर पर उठाया था कि इस आर्थिक विसंगति का आधार क्या है? क्या सरकार ने कोई सर्वे, अध्ययन कराया था अथवा रपट तैयार कराई थी? क्या सरकार ने संसद के समक्ष कोई संवैधानिक दस्तावेज पेश किया था? सवाल यह भी है कि एक ओबीसी की क्रीमी लेयर और गरीब अगड़े की आमदनी एक समान कैसे हो सकती है? यह क्रीमी लेयर किसने तय की थी? यदि मौजूदा परिप्रेक्ष्य में आठ लाख रुपए की आमदनी वाला नागरिक ‘गरीब’ है, तो फिर 2.5 लाख रुपए की सालाना कमाई वाला ‘घोर गरीब’ क्यों नहीं माना जाए?

संसद में प्रस्ताव पास होने के बाद भी इस फैसले को लागू करने में कई अड़चनें अभी बाकी हैं। इससे पहले नरसिम्हा राव सरकार ने इस तरह की एक कोशिश की थी, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने सिरे से खारिज कर दिया था। सुर्खियों में रहा अमिता साहनी बनाम सरकार चला लंबा मुकदमा इसी मुद्दे से जुड़ा था। वास्तव में नब्बे के दशक में जब भारत सरकार ने इसे लागू करने का प्रयास किया था तब न्यायालय ने 50 प्रतिशत से ज्यादा आरक्षण की अनुमति नहीं दी थी और यह प्रस्ताव रद्द हो गया था। सबसे पहले तो संविधान के अनुच्छेद 15 और 16 में संशोधन करना होगा, जो सिर्फ सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े समूहों के लिए विशेष प्रावधान की वकालत करता है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा संविधान के प्रावधानों की व्याख्या के अनुसार आरक्षण किसी समूह, किसी जाति या किसी वर्ग को तभी मिल सकता है जब वह सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़ा हुआ हो। सवर्णों को आर्थिक पिछड़ेपन के रूप में आरक्षण देने का प्रावधान संविधान में नहीं है ऐसे में सरकार का यह कदम आम चुनाव से कुछ महीने पहले भारतीय जनता पार्टी के लिए राजनीतिक रूप से लाभप्रद हो सकता है।

सवर्ण भाजपा का परंपरागत वोट बैंक रहा है और 2014 में 56 फीसदी से ज्यादा सवर्णों ने भाजपा के पक्ष में मतदान किया था, लेकिन हालिया सर्वे रपटों के निष्कर्ष भी सामने आए हैं कि भाजपा का यह जनाधार खिसक रहा है। सवर्णों के वोट बैंक में गिरावट आई है। यह मप्र और राजस्थान तक ही सीमित नहीं है। लिहाजा ‘चुनावी दांव’ की तरह यह निर्णय लिया गया है। अब यह कानून भाजपा को सियासी मुनाफा दिलाएगा या नहीं ये आने वाला समय ही बताएगा।

-लेखक राज्य मुख्यालय पर मान्यता प्राप्त स्वतंत्र पत्रकार हैं।