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स्वामी विवेकानन्द के सपनों का भारत बनाने के लिए कर्तव्यबोध की आवश्यकता

डॉ हरनाम सिंह

विश्व का सबसे प्राचीन देश भारत जहाँ असंख्य महापुरूषों ने समय-समय पर जन्म लेकर दुनियाँ की उन्नति और सभी मनुष्यों के कल्याण हेतु कार्य किया। मानव मात्रा की सुख-शन्ति-समृद्धि के लिए जीवन भर प्रयत्न करने वाले हम सबके प्रेरणास्रोत स्वामी विवेकानन्द का ‘नर सेवा-नारायण सेवा’ स्मरणीय है। उन्होंने एक बार कहा था कि ओ माँ जब मेरी मातृभूमि गरीबी में डूब रही हो तो मुझे नाम और यश की चिन्ता क्यों हो? हम निर्धन भारतीयों के लिए यह कितने दुःख की बात है कि जहाँ लाखों लोग मुट्ठी भर चावल के अभाव में मर रहे हों, वहाँ हम अपने सुख-साधनों के लिए लाखों रूपये खर्च कर रहे हैं। भारतीय जनता का उद्धार कौन करेगा? कौन उनके लिए अन्न जुटायेगा? मुझे राह दिखाओ माँ कि मैं कैसे उनकी सहायता करूँ? विवेकानन्द के देश में आज भी लाखों लोग गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रहें हैं। अशिक्षा-अज्ञानता से ग्रस्त लोगों की संख्या भी करोड़ों में है। दरिद्रनारायण के उन्नयन पर कोई खर्च नहीं करना चाहता लेकिन धर्मस्थल या अपनी जातीय समाज के भवन बनाने में लोगों की बड़ी दिलचस्पी देखी जा रही है। ऐसे समय में निर्धन वर्ग से नैतिकता या धर्म -कर्म की बातें करना बेमानी प्रतीत हो रहा है। विवेकानन्द ने गरीबी के मर्म को समझा था। इसलिए कहते थे ‘पहले रोटी, फिर धर्म’। जब लोग भूखों मर रहे हों तब उनमें धर्म की खोज करना मूर्खता है। भूख की ज्वाला किसी भी मतवाद से शांत नहीं हो सकती। जबतक तुम्हारे पास संवेदनशील हृदय नहीं, जबतक तुम गरीबों के लिए तड़प नहीं सकते, जब तक तुम उन्हें अपने शरीर का अंग नहीं समझते, जब तक तुम अनुभव नहीं करते कि तुम और सब, दरिद्र और धनी, संत और पापी उसी एक असीम पूर्ण के जिसे तुम ब्रह्म कहते हो, अंश है, तब तक तुम्हारी धर्म चर्चा व्यर्थ है।

हम गर्व से कहतें है की उस देश के है जहाँ स्वामी विवेकानन्द जैसे महापुरूष हुए। सामान्य नागरिकों में भी कर्तव्यों से अधिक अधिकारों की चिंता बढ़ गयी है। मनुष्य आज संवेदनाहीन चारित्रिक पतन के कारण धरती के सीमित साधनों से असीमित प्रगति कर लेना चाहता है। सामान्य आदमी भी भूल रहा है कि धन तो साधन है साध्य तो मानव-मात्रा का कल्याण है। परिवार संस्था आज धीरे-धीरे टूट रही है। परिवार द्वारा ही व्यक्ति एक आदर्शोन्मुख जीवन जीता हुआ, गृहस्थ एवं वानप्रस्थ काल में अपने कर्तव्यों का निर्वहन करता हुआ, राष्ट्र के लिए समर्पित नागरिक होता था। ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ और ‘कृणवन्तो विश्वार्यम’ को लेकर चलने वाला भारत दिगभ्रमित सा प्रतीत हो रहा है। बेरोजगारी, भूख, छुआ-छूत, अशिक्षा, अंधविश्वास, राष्ट्रविरोधी प्रवृत्ति आदि अनेक बुराईयों से ग्रस्त, भारतीय समाज को एक बार फिर स्वामी विवेकानन्द के विचारों से रूबरू होने का समय आ गया है। हमें अतित को निहारते हुए ही भविष्य का सफर तय करना होगा। क्योंकि उनका कहना था “मैं कोई तत्ववेत्ता नहीं हूँ, न तो संत या दार्शनिक ही हूँ। मैं तो गरीब हूँ और गरीबों का अनन्यभक्त हूँ। मैं तो सच्चा महात्मा उसे कहूँगा जिसका हृदय गरीबों के लिए तड़पता हो।”

भारत की प्रतिष्ठा स्थापित करने एवं अपने जीवंत विचारों के लिए ही विवेकानन्द युवाओं के प्रेरणास्रोत हैं। युवाओं से कहते थे कि “अपने पुट्ठे मजबूत करने में जुट जाओ। वैराग्य वृत्ति वालों के लिए त्याग-तपस्या उचित है। लेकिन कर्मयोग के सेनानियों को चाहिए विकसित शरीर, लौह माँस-पेशियाँ और इस्पात के स्नायु” । तरुण मित्रों को सम्बोधित करते हुए कहा “शक्तिशाली बनों! तुम्हारे स्नायू और माँसपेशियाँ अधिक मजबूत होने पर तुम गीता अच्छी तरह समझ सकोगे। शरीर में शक्तिशाली रक्त प्रवाहित होने पर श्रीकृष्ण के तेजस्वी गुणों ओर उनकी आपार शक्ति को हृदयंगम कर पाओगे।” समाज में व्याप्त छुआ-छूत की भवना को देखकर वे आहत होकर कहते थे “मैं भारतीय हूँ और प्रत्येक भारतीय मेरा भाई है। भूलकर भी किसी को हीन मत मानो चाहे वह कितना भी अज्ञानी, निर्धन या अशिक्षित क्यों न हो और उसकी वृत्ति भंगी की ही क्यों न हो। क्योंकि हमारी-तुम्हारी तरह वे सब भी हाड़-माँस के पुतले हैं ओर हमारे बंधु-बांधव हैं।”

यह मान लेना कि युवाकाल मौजमस्ती का काल होता है बहुत बड़ी नादानी और मूर्खतापूर्ण सोच है। युवा पीढ़ी को गुमराह करने की साजिश है। विवेकानन्द के जीवनवृत्ति को देखें तो हम कह सकते हैं कि एक युवक अगर ठान ले तो वह अपने जीवन को नरेन्द्रनाथ से विवेकानन्द में तबदील कर सकता है। युवा पीढ़ी के नायक रूपहले पर्दे के नकली हीरो नहीं हो सकते। उसे नायक तलाश करना है तो पीछे मुड़कर देखना होगा। अतीत के पन्ने खंगालकर इतिहास से गुजरना होगा। भारत को भारत बनाने में युवा पीढ़ी का महती योगदान रहा है। विवेकानन्द के सपनों का भारत बनाने का दायित्व हम सबका है।

उनका स्पष्ट मानना था कि भारतीय विकास माडल जो भारतीय जीवन मूल्यों के प्रकाश में समाज की आवश्यकता-आकांक्षा, सामाजिक-आर्थिक परिवेश में प्राकृतिक संसाधनों, स्वयं की शक्ति-सामथ्र्य एवं कौशल-स्तर को ऊँचा उठाते हुए सार्वजनिक सुख में वृद्धि है। भारतीय अवधारणा के अनुसार मनुष्य आर्थिक से कहिं अधिक व्यापक सामाजिक कल्याण का वाहक है। भारतीय मनोवृत्ति संघर्ष की नहीं वरन् सहयोग की होती है। हमें एक ऐसा सामाजिक, आर्थिक संरचना विकसित करने का प्रयास करना चाहिए जिसमें धन और धर्म भौतिकता एवं आध्यात्मिकता, संचय एवं त्याग एवं सार्वजनिक हित आदि अनेक बातों के बीच उचित समन्वय स्थापित कर सकें। भारतीय दर्शन व्यावहारिक धरातल पर सर्वव्यापक अवधारणा है जो विश्व कल्याण के लिए है। यह नर को नारायण बनाने की ओर प्रवृत्त करता है। वर्तमान की आवश्यकता है नैतिक एवं मानवीय मुल्यों को आर्थिक क्षेत्रा में क्रियान्वित करने की जिससे नयी दृष्टि कोण एवं दिशा मिल सके।

स्वामी जी के अनुसार कर्तव्यों एवं अधिकारों के सार्वभौमिक आदर्श का पालन करना ही सच्ची नैतिकता है । स्वामी जी के विचार से कर्म पर मानव का अधिकार है और कर्म के द्वारा ही व्यक्ति अपने समाज को एवं सामाजिक परिवेश को बचा सकता है। जिस समाज में सभी अपने कर्तव्यों का निर्वहन सुचारू रूप से करते हैं वह समाज अपना उत्थान स्वयं ही कर लेता है । ‘उठो जागो और अपने लक्ष्य की प्राप्ति से पूर्व मत रूको’ से प्रेरणा लेकर आवश्यकता है देश समाज को कमजोर करने का प्रयत्न करने वाली शक्तियों के विरूद्ध जागृत होकर राष्ट्रीय एकता, संस्कृति एवं पहचान के सशक्तिकरण व संरक्षण हेतु सभी प्रकार से प्रयत्न की। विवेकानन्द ने एक बार कह था कि मुझे 100 युवा मिल जायें तो मैं नव-राष्ट्र निर्माण कर सकता हूँ। परन्तु तब उन्हें इतने युवा नहीं मिले, केवल एक भगिनि निवेदिता मिलीं। पर वर्तमान में पूछा जाय तो कई लाख लोग कहते मिल जायेंगे कि यदि तब हम होते तो उनका साथ देते। ऐसों के लिए यह जरूरी नहीं है कि विवेकानन्द के सपनों का भारत बनाने के लिए पुनः उनके आगमन की। आवश्यकता है उस संकल्प की और उनके दिखाये मार्ग पर चलकर कर्तव्यबोध और कर्तव्यपालन की । देश का विकास तो नागरिकों, समाजसेवियों, सामाजिक संस्थाओं ओर उनके संकल्पों के साथ जन-जन के जुटने से ही संभव है। जरूरत है राष्ट्रभक्ति से ओत-प्रोत युवाओं की टोली रात-दिन मस्ती में ध्येय-लक्ष्य को सामने रखकर जुटे रहे। हमारा कर्तव्य है कि दर्शक की उत्सुकता छोड़कर निर्माता की लगन और पुरुषार्थ से इसके लिए जुट जायें तभी स्वामी विवेकान्द जी के जन्मदिन को युवादिवस के रूप में मनानें की संकल्पना साकार होगी ।

(लेखक सरदार भगत सिंह राजकीय स्नातकोत्तर महविद्यालय, दीन दयाल उपाध्याय कौशल केंद्र, रुद्रपुर, उधम सिंह नगर, उत्तराखण्ड में सहायक आचार्य है। संपर्क सूत्र – 07379727999, म्उंपसरू ेपदहीकतींतदंउ/हउंपस.बवउ)

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