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‘रिफ्युजी कैम्प’ :आतंकवाद के समाधान की राह सुझाती कहानी

लखनऊ। ‘जिस देश में हर रहे हैं, वहां के बिगड़ते सौहार्द को ठीक करने का दायित्व भी हमारा ही है। आतंकवाद का दंश जिस तरह देश के कई हिस्से झेल रहे हैं, वहां ये जख्म गहरे होते जा रहे हैं। ‘रिफ्युजी कैम्प’ में बस इतना ही मैंने कहना चाहा है।’- यह कहना है लेखक आशीष कौल का।

एक समारोह में मुलाकात के दौरान बरसों कारपोरेट सेक्टर में अपनी सेवाएं दे चुके आशीष ने ये बात प्रभात से हाल में प्रकाशित व आतंकवाद के समाधान सामने रखती पुस्तक रिफ्यूजी कैम्प के बारे में कही। आनलाइन बिक्री में ये किताब सर्वत्र सराही जा रही है। रिफ्यूजी कैम्प की कहानी एक साधारण लड़के अभिमन्यु के नेतृत्व में पांच हजार लोगों के अपने आप में एक विशाल आत्मघाती दस्ते में तब्दील होने की कहानी है ताकि वो अपने घर, अपने कश्मीर वापिस लौट सकें। ये आसान शब्दों में कही गयी इंसानी जज़्बे की वो कहानी है जो हर भारतीय में छुपे अभिमन्यु को न सिर्फ झकझोरती है, बल्कि जगा भी रही है। संदेश स्पष्ट है कि जब तक आप स्वयं खुद के लिए खड़े न होंगे, कोई आपके साथ खड़ा नहीं होगा। कथानक एक तरफ जहां भारतीय जनतंत्र और धर्मनिरपेक्ष तानेबाने में आस्था सुदृढ़ करता हैए वहीं दुख एक्रोध और सच्चाई से भी रूबरू कराता है।

लेखक आशीष कौल बताते हैं- कश्मीर, उसका हज़ार साल पुराना इतिहासए लंबे समय से चल रही समस्याए संभावित समाधान और उसमें युवाओं की अपेक्षित भूमिका को केंद्र में रख कर लिखी गयी किताब को पाठकों से ज़बरदस्त समर्थन मिला। कश्मीर से विस्थापन के बाद लखनऊ मेरा दूसरा घर बना। इसने मुझे अपनाया, दोस्त दिये, पहली कमाई दी, नए रिश्ते दिये जो 25 साल से निरंतर साथ हैं। इसलिए ये किताब कुछ मायनों में लखनऊ की भी है।

ये पहली बार है कि कश्मीर और अमन पर लिखी किताब को सीमा पार पाकिस्तान से भी समर्थन मिला है। ये समर्थन जाने माने गायक हसन जहांगीर से आया है। वो कहते हैं- सीमा के दोनों ओर वो लोग जो अमन चाहते हैं, उन्हें ये किताब ज़रूर पढ़नी चाहिए। किताब. रिफ़्यूजी कैम्प सत्य घटनाओं पर आधारित इंसानी जुझारूपन की एक ऐसी कहानी है जो हर भारतीय के दिल में शांति इंसानियत और न्याय के सहअस्तित्व के प्रति विश्वास जगाती है।

घाटी में एक अखबार चलाने वाला, उसूलों का पक्का और भारतीयता में विश्वास रखने वाला और उसका नौजवान बेटा अभिमन्यु एक निश्चिंत ज़िंदगी जी रहे हैं। अभिमन्यु और अभय की ज़िंदगी में हलचल तब मचती है जब बाकी कश्मीरी पंडितों की तरह उन्हें भी सपरिवार रातों रात वादी छोड़नी पड़ती है। लोकतान्त्रिक धर्मनिरपेक्ष ढांचे में आस्था रखने वाला ये परिवार फटे पुराने टेंटों से तैयार रिफ़्यूजी कैंप में रहने को विवश हो जाता है। समय का पहिया कुछ इस तरह घूमता है कि दोस्ती, रिश्तेदारी, प्यार सब परीक्षा से गुजरते हैं। एक परिस्थिति में उद्वेलित अभिमन्यु एक पुलिस वाले से उलझने को मजबूर होता है और उसका ज़मीर उसे पीछे हटने से रोक देता है। देखते ही देखते वो साधारण लड़का 5000 लोगों की असाधारण भीड़ से बने आत्मघाती दस्ते का नेता बन जाता है। उस अस्वस्थ्य से माहौल में बने रिफ़्यूजी कैंप में पीड़ा, क्रोध, अपनी ज़मीन से प्यार और अमानवीय परिस्थितियों से निकलने की चाह अपनी वादी अपने घर वापस लौटने का ऐलान करती है। राज्नेतिक पार्टियां, सीमा पार आतंकवादी और घाटी के कुछ लोग ये सब देख सुन कर हैरान रह जाते हैं। जान से मारने की धमकी और रिफ़्यूजी कैंप को बेहतर बना देने का आश्वासन दोनों मिलने लगते हैं। आतंकी ये समझ जाते हैं कि अगर ये पांच हजार लोग लौट आए तो वो उनका आतंक थम जायेगा। वे उन्हें रोकने का हरसंभव यत्न करते हैं। इधर अभिमन्यु के नेतृत्व में लोग ये कहते है कि अगर अपने घर लौटने पर मौत मिलेगी तो हमें अपनी ज़मीन पर मरना मंजूर है। हम घर आ रहे हैं।

लेखक आशीष कौल बताते हैं- इस किताब की खास बात है कि एक तरफ ये जहां नयी पीढ़ी को कश्मीर के असल इतिहास से परिचित कराती है साथ ही 1988-89 का सच बताती है, वहीं एक रोड मॅप भी देती है कि कैसे समाज का हर तबका एक साथ आकर आतंक को खत्म कर सकता है। कोई सरकार और आर्मी कश्मीर में अमन नहीं ला सकती। ये काम खुद कश्मीर की जनता को ही एक साथ आकर करना होगा। विभिन्न क्षेत्रों से जुड़े जाने माने लोगों ने किताब और इसकी मूल भावना का समर्थन किया है। मेरी किताब एक कोशिश है धर्म जाति से ऊपर उठ आतंक के खिलाफ एक लड़ाई के लिए लोगों में अभिमन्यु को जगाने की ताकि सब बैठकर किसी करिश्मे का इंतज़ार करने की बजाए खुद आतन के खिलाफ खड़े हों।

आशीष कहते हैं- रिफ़्यूजी कैम्प उन वीभत्स 48 घंटों के घटनाक्रमों का तो ज़िक्र करती ही है कि जिनमें वादी में अल्पसंख्यक कश्मीरी पंडितों को माॅब लिंचिंग जैसी घटनाओं और बलात्कार और बर्बरताओं का सामना करना पड़ा। साथ ही ये कश्मीर के एक हजार साल पुराने भौगोलिक राजनीतिक इतिहास से भी परिचय कराती है। सन् 1988-89 की बात करने से लोग कतराते हैं। सायास उस इतिहास को मिटाने के प्रयास जारी हैं ताकि कश्मीरियत को दफन किया जा सके ताकि, लोग भूल जाएँ कि कैसे करीब छह लाख लोग अपने ही घर में रिफ़्यूजी बन गए।

इस किताब का कवर सुधा वर्मा ने डिज़ाइन किया है जो अपने आप में कहानी के पाँच मूल सिद्धान्त शांति, स्वाभिमान, न्याय, धर्म और इंसानियत को प्रतिबिम्बित करता है। इस किताब की भूमिका पूर्व आर्मी जनरल जेजे सिंह ने लिखी है।

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