-आशीष वशिष्ठ

लोकतंत्र के चार स्तंभों में से एक न्यायपालिका काफी दबाव में है। अदालतों में मुकदमों का अंबार लगा हुआ है। देश के सर्वोच्च न्यायालय से लेकर विभिन्न अदालतों में मुकदमों का बोझ इस कदर हावी है कि न्याय की रफ्तार धीमी से धीमी होती जा रही है। अदालतों पर बढ़ते बोझ की समस्या की तस्वीर आंकड़ों के साथ पेश की जाए तो आम आदमी न्याय की आस ही छोड़ बैठेगा। आंकड़ों के हवालों से बात की जाए तो देश के विभिन्न अदालतों में अभी जितने मुकदमे लंबित हैं, सिर्फ उनकी ही ढंग से सुनवाई की जाए, तो उनका निपटारा होने में लगभग 25 सालों का समय लगेगा। आसानी से समझा जा सकता है कि अगले 25 सालों में अदालतों में और कितने नए मुकदमे आएंगे। इस तरह से जो लंबित मुकदमे हैं, उन्हें निपटाने में 25 वर्ष की जगह और भी लंबा समय लग सकता है। साफ है कि एक ओर तो न्यायपालिका पर मुकदमों का बोझ लदा है, दूसरी ओर उसके जरूरत भर न्यायाधीश भी नहीं हैं। देश की न्याय प्रक्रिया को यदि दुरुस्त करना है तो एक साथ दो मोर्चों पर काम करने की जरूरत है।

देश की सर्वोच्च अदालत मंें करीब 54,013 मुकदमे लंबित हैं। वहीं 3.32 करोड़ मामले देश की निचली अदालतों और उच्च न्यायालयों में लंबित हैं। इसमें 2.85 करोड़ भी ज्यादा मुकदमे निचली अदालतों में हैं जबकि उच्च न्यायालयों में 47.64 लाख से अधिक निपटारे की बाट जोह रहे हैं। सर्वाधिक मामले उत्तर प्रदेश में लंबित हैं जिनमें निचली अदालतों में 68,51,292 हैं और इलाहाबाद हाईकोर्ट में 7,20,440 मुकदमे लटके हैं। हालांकि हाईकोर्ट में लंबित मामलों की फेरहिस्त में राजस्थान हाईकोर्ट ने इलाहाबाद को भी पछाड़ रखा हैं जहां 7,28,030 मुकदमे हैं। दुनिया के किसी दूसरे मुल्क में इतनी तादाद में मुकदमे लंबित नहीं हैं।

देश के विभिन्न अदालतों में लंबित लगभग सवा तीन करोड़ मुकदमों में लगभग 57 फीसदी मुकदमे फौजदारी मामलों के हैं, जबकि दीवानी व अन्य मामले की संख्या लगभग 43 फीसदी है। इसमें हैरान करने वाली जो बात है, वह यह कि सवा तीन करोड़ से ज्यादा मुकदमों में 46 फीसदी यानी करीब एक करोड़ सैंतालीस लाख मुकदमे तो विभिन्न सरकारों की वजह से हैं। केंद्र और राज्य की सरकारों ने इतनी याचिकाएं दाखिल की हुई हैं कि अदालत की बड़ी ताकत उन याचिकाओं के निपटारे में ही खराब हो रही है। यदि सरकार छोटे-छोटे मसलों पर मुकदमा दायर करना बंद कर दे, तो सिर्फ इतना से ही न्यायपालिका के बोझ में काफी कमी आ सकती है।
देशभर के 24 उच्च न्यायालयों में 10 साल से ज्यादा पुराने 21.61 फीसदी मामले हैं जबकि पांच साल से ज्यादा समय से 22.31 फीसदी मुकदमे लटके हुए हैं। निचली अदालतों में यह आंकड़ा बहुत कम है, जहां 10 साल से पुराने महज 8.30 फीसदी हैं और 5 साल से ज्यादा समय के 16.12 फीसदी मामले लंबित हैं। पिछले माह उच्च न्यायालयों ने दस साल से ज्यादा पुराने दशमलव 15 फीसदी मामले निपटाए हैं। हालांकि निचली अदालतों का प्रदर्शन पुराने मुकदमों के निपटारे में बेहतर हैं, जहां कुल मामलों में 46.89 फीसदी दो साल से कम समय के हैं और दो साल से अधिक पर पांच साल से कम समय के 28.69 फीसदी मुकदमे लंबित हैं। पांच साल अधिक पुराने 16.12 फीसदी मामले हैं जबकि दस साल से ज्यादा समय से 8.30 फीसदी मामले हैं। देश की विभिन्न अदालतों द्वारा इन सभी मामलों का जल्द निपटारा करना पहाड़ को हिलाने जैसी चुनौती का सामना करने से कम नहीं है।

भारत में न्यायपालिका के सामने मुकदमों का बोझ कोई नई समस्या नहीं है। आजादी के बाद से ही अदालतों और जजों की संख्या आबादी के बढ़ते अनुपात के मुताबिक कभी भी कदमताल नहीं कर पाई। इस वजह से न्याय के नैसर्गिक सिद्धांत के मुताबिक न्यायपालिका में भी मांग और आपूर्ति के बीच संतुलन कायम नहीं हो सका। विधि आयोग ने 1987 में कहा था कि दस लाख लोगों पर कम से कम पचास न्यायाधीश होने चाहिएं लेकिन आज भी दस लाख लोगों पर न्यायाधीशों की संख्या पंद्रह से बीस के आस-पास है। न्यायाधीशों के रिक्त पड़े पदों की करें तो सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीशों के कुल 31 स्वीकृत पदों में से 3 पद रिक्त हैं। एक अनुमान के अनुसार इस समय अधीनस्थ अदालतों में न्यायाधीशों के 5,400 से अधिक पद रिक्त हैं जबकि देश के 24 उच्च न्यायालयों में 1221 स्वीकृत पदों में 330 पद खाली हैं। कुल 891 न्यायाधीश अपनी सेवाएं उच्च न्यायालयों में दे रहे हैं। इस समय 4180 पदों पर नियुक्तियों की प्रक्रिया विभिन्न चरणों में है। निचली अदालतों में न्यायाधीशों के रिक्त पदों के मामले में उत्तर प्रदेश सबसे आगे है जहां करीब 1360 पद रिक्त हैं जबकि मध्य प्रदेश में रिक्त पदों की संख्या 706 और बिहार में 684 है। गुजरात और दिल्ली में भी न्यायाधीशों के 380 और 281 पद रिक्त हैं। बीते अक्टूबर मध्य तक निचली अदालतों में न्यायिक अधिकारियों के स्वीकृत 22,036 पदों में 5,133 पद खाली थे। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने नाराजगी भी जताई थी जिसके बाद से राज्यों में न्यायिक अधिकारियों की भर्ती की प्रक्रिया जारी है। इस समस्या के प्रति केन्द्र सरकार भी चिंतित है और निचली अदालतों में न्यायाधीशों के पदों पर भर्ती के लिये अखिल भारतीय स्तर पर परीक्षा आयोजित करने पर वह भी विचार कर रही थी। पिछले साल अप्रैल में केन्द्र सरकार ने न्यायाधीशों के चयन हेतु उच्चतम न्यायालय से एक केन्द्रीयकृत व्यवस्था तैयार करने का भी अनुरोध किया था।

विशेषज्ञों के अनुसार अदालतों में मुकदमों के निपटारे में देरी और मुकदमों की संख्या में लगातार इजाफा होने का जिम्मेदार किसी एक को ठहराना गलत है। अगर, सही ढंग से कहा जाए तो किसी भी मामले में देरी का कारण शुरू से लेकर अंत तक सभी होते हैं। मसलन कभी पुलिस चार्जशीट दाखिल करने में देरी करती है तो कभी गवाहों तक समन नहीं पहुंचते, कभी जज का तबादला हो जाता है तो कभी बचाव पक्ष के वकील के पास समय की कमी के कारण केस की तारीख आगे बढ़ा दी जाती है और कभी जज के पास मुकदमों की अधिक संख्या होने के कारण मामलों को अगली तारीख पर टाल दिया जाता है। ऐसे में न्याय की रफ्तार में तेजी लाना पहाड़ को हिलाने जैसी चुनौती से कम नहीं है। पूरा सिस्टम सुधारने पर ही न्याय प्रक्रिया में तेजी आना संभव है। समय के साथ व्यवस्था के तीनों प्रमुख स्तंभों के बीच बढ़ते टकराव ने इस समस्या को और गंभीर बना दिया।

सवाल यह भी है कि देश की अदालतें मुकदमों के बोझ तले भला दबी क्यों हैं? असल में तमाम विसंगतियों के बाद भी न्यायालयीन प्रक्रिया के प्रति आम लोगों का बढ़ता विश्वास कुछ इस वजह से भी है कि आम लोगों में विश्वास बहाली के लिये जो कार्य कार्यपालिका को करना चाहिये था, न्यायालय को करना पड़ा है। पिछले कुछ वर्षों में नेताओं की स्वेच्छाचारिता और गुंडों से उनकी सांठ-गांठ पर चुनाव आयोग और न्यायालय ने मिलकर लगाम कसने की जो सार्थक कोशिश की है, उससे भी आम लोगों का उस पर भरोसा बढ़ा है।

वास्तव में भारतीय न्यायपालिका के पास संसाधन पर्याप्त नहीं हैं। केंद्र और राज्य दोनों सरकारें न्यायपालिका के संबंध में खर्च बढ़ाने में रुचि नहीं रखते हैं। वहीं पूरे न्यायपालिका के लिए बजटीय आवंटन पूरे बजट का एक महज 0.1 फीसदी से 0.4 फीसदी है। जो बेहत निराशाजनक है। देश में अधिक अदालतों और अधिक बेंच की जरूरत है। आजादी के कई दशक बीत जाने के बाद भी आधुनिकीकरण और कम्प्यूटरीकरण सभी अदालतों तक नहीं पहुंच पाया है। निचली अदालतों में न्यायिक गुणवत्ता किसी से छिपी नहीं है। वहीं भारतीय न्यायिक व्यवस्था बेहतरीन दिमागों और प्रतिभाशाली छात्रों को आकर्षित करने में बुरी तरह विफल रही है। चूंकि निचली अदालतों में न्यायाधीशों के फैसले से संतुष्ट नहीं होने पर लोग उच्च न्यायालयों में फैसलों के खिलाफ अपील दायर करते हैं, जिससे फिर मुकदमों की संख्या बढ़ जाती है।

सरकार को अपनी तरफ से ऐसे सभी मामलों को वापस ले लेना चाहिये जिनका बहुत अधिक महत्व नहीं है। इसके साथ ही न्यायाधीशों के रिक्त पदों को भरने के साथ तथा उनकी संख्या कम से कम दस गुणा अधिक कर देनी चाहिये। वहीं पुराने और अप्रासंगिक हो चुके कानूनों में संशोधन, अदालतों को अत्याधुनिक तकनीकी से लैस करने और सरक्षित न्यायिक परिसर बनाने पर गौर करना होगा। न्यायपालिका में व्याप्त खामियों की वजह से ही कई समस्याएं पैदा हुई हैं। न्यायापालिका को देश की बाकी संस्थाओं से कतई अल नहीं मानना चाहिए। जो दिक्कतें हमारे समाज में मौजूद हैं, कमोबेश वहीं न्यायपालिका में भी हैं। अमेरिकी विचारक अलेक्जेंडर हैमिल्टन ने कहा था, ‘न्यायापालिका राज्य का सबसेे कमजोर तंत्र होता है, क्योंकि उसके पास न तो धन होता है और न ही हथियार। धन के लिए न्यायपालिका को सरकार पर आश्रित रहना होता है और अपने दिए फैसलों को लागू कराने के लिए उसे कार्यपालिका पर निर्भर रहना होता है।’ न्यायिक प्रक्रिया में आमूल सुधार के जरिए अदालतों का बोझ भी हल्का हो सकता है और लोगों को न्याय मिलने में देरी को रोका जा सकता है। न्यायपालिका में लोगों के विश्वास को बहाल करने के लिए यह बहुत ही जरूरी है।