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कांग्रेस शासन के हाशिमपुरा कांड को अब मिला न्याय

-रविश अहमद

मेरठ के सद्दीक नगर में 1982 में हिन्दू मुस्लिम साम्प्रायिक दंगे में तत्कालीन कांग्रेस सरकार में उत्तरप्रदेश के कांग्रेस मुख्यमंत्री वी. पी. सिंह के शासन में कथित रूप से खाकी वर्दीधारी जवानों द्वारा मुस्लिम समाज के पुरुषों को घरों से खींच कर गोली मार दी गई और लाशों को ट्रॉली में डालकर गायब कर दिया गया। जिनमें से कुछ के मुकद्में स्थानीय थानों में गुमशुदगी के लिखे गए और मुआवजा भी दिया गया लेकिन कुछ ऐसे लोग भी हैं जिनके परिजनों का आज भी ना कोई मुकद्मा है ना ही मुआवजा।

1987 में फिर से कांग्रेस की वीर बहादुर सिंह की अगुवाई वाली उत्तरप्रदेश सरकार की पीएसी ने दंगों में हाशिमपुरा और मलियाना में कहर ढाया। इन वर्दी धारियों को पुलिस का नाम देना ही बेमानी है ये सब पूर्वाग्रह से ग्रस्त दंगाई थे। लेकिन चूंकि पीएसी की बटालियन 41 द्वारा यह काम अंजाम दिया गया और तत्कालीन गाजियाबाद एसएसपी वी. एन. राय ने रिपोर्ट दर्ज करके सब कुछ खोलकर रख दिया तब भी निचली अदालत से 19 पुलिसकर्मियों का बरी हो जाना कांग्रेस सरकार की पैरवी में कोताही और आरोपियों को बचाने की दलील है।

बहरहाल अब हाईकोर्ट ने 16 आरोपियों को इसका दोषी माना और सज़ा बोल दी है लेकिन सूत्रों की माने तो अब हिन्दू महासभा इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट जाने की बात कह चुकी है। यह भी एक दलील साबित होती है कि कट्टर संगठनों को कांग्रेस का साथ है या नहीं।

अगर यह मान भी लिया जाए कि कट्टर संगठनों को कांग्रेस का सीधा संरक्षण प्राप्त नहीं है तो भी मूक सहमति हमेशा निभाई जाती रही है। भाजपा सरकार के गठन के तुरंत बाद गुजरात में हुए भीषण नरसंहार को अपवाद के रूप में देखें तो हमेशा कांग्रेस सरकार के दौरान ही बड़े सांप्रदायिक दंगे क्यों हुए?

22 मई 1987 की हाशिमपुरा की घटना हो या मलियाना कांड सभी पर कांग्रेस सरकारों की लचर पैरवी कांग्रेस की अल्पसंख्यकों के प्रति दोहरी मानसिकता को उजागर करती है अल्पसंख्यकों में सिख समुदाय पर कांग्रेस सरकार के समय में 1984 में हुआ नरसंहार आज 38 साल बाद भी न्याय पाने को भटक रहा है।
बहरहाल हाशिमपुरा कांड के आरोपियों को सज़ा सुनाए जाने के बाद भले ही कहा जाए कि पीड़ितों को न्याय मिला है लेकिन इतने समय बाद मिला न्याय सामाजिक और जीवनकाल के अनुसार औचित्य विहीन ही माना जाता है।

विचारणीय पहलू यह है कि कांग्रेस जो स्वयं को अल्पसंख्यक हितैषी कहने का ढोल हमेशा पीटती है उस पर देशभर में अल्पसंख्यकों के खून के इतने इल्ज़ाम हैं कि विश्वास करना संभव ही नहीं है। राहुल गांधी के रूप में कांग्रेस को नया प्रमुख तो मिल चुका है लेकिन विश्वास करने के लिए वह कोनसा भरोसा और कार्यप्रणाली अल्पसंख्यकों के सामने रखते हैं यह अभी तक अज्ञात है।

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