‘कभी प्यासे को पानी पिलाया नहीं, बाद अमृत पिलाने से क्या फायदा?’

मनु ने गृहस्थों के लिए ‘पंच महायज्ञ’ नित्य प्रति करने का विधान किया है। उन में से एक पितृयज्ञ भी है, जिसका अर्थ है पितरों का यज्ञ करना अर्थात् पितरों का धृत, दूध, फल, मेवा, मिष्ठान आदि पौष्टिक पदार्थों से यथेष्ट सत्कार करना तथा उन की आज्ञा पालन करना। इस प्रकार पितरों का श्राद्ध पूर्वक जो यजन अर्थात सत्कार किया जाता है वह ‘श्राद्ध’ है और उन से पितरों की जो तृप्ति होती है, ‘तर्पण’ है।

सत्य धारण व भाषण मे सच्ची प्रीति का नाम ‘श्राद्ध’ है और श्राद्ध से जो कार्य किया जाता है, वह श्राद्ध कहलाता है। सेवा-सत्कार आदि जिन कार्यों से माता-पिता तृप्त अर्थात प्रसन्न हो वह ‘तर्पण’ कहलाता है।

पितर 5 प्रकार के होते हैं। जन्म देने वाले मातापिता, यज्ञोपवीत देने वाला आचार्य, विशेष प्रकार की विद्या देने वाला, प्रजा के लिए खाद्य पदार्थों की व्यवस्था करने वाला कर्मचारी, संकट में रक्षा करने वाला सैनिक ये पांच प्रकार के पितर हैं।

सायवाणचार्य के अनुसार, ‘पितरः पालयितारः’ अर्थात् जो हमारा पालन-पोषण करें वे ही पितर हैं। पालन-पोषण करने वाले जीवित ही पितर हैं। मृत आत्मा न किसी का पालन-पोषण ही कर सकती है और न किसी से कुछ ले ही सकती है।

मनु स्मृति के अनुसार, ‘अहरहः श्राद्ध कुर्यातः‘ अर्थात् गृहस्थ प्रतिदिन श्राद्ध करें। प्रतिदिन श्राद्ध केवल जीवित पितरों का ही हो सकता है। इस से यह भी सिद्ध हो सकता है कि श्राद्ध करने के लिए कोई समय नियत नहीं है।
श्राद्ध पिता, पितामह, प्रपितामह का ही किया जाता है। इस से श्राद्ध होता है कि जीवित पितरो ंका यह श्राद्ध होता है, क्योंकि मनुष्य के जीवनकाल में ही इन तीनों की उपस्थिति सम्भव है। जब पुत्र लगभग 25 वर्ष का होगा तो उस का पिता, पितामह, प्रपितामह क्रमशः लगभग 50, 75, 100 वर्ष के होंगे इस से अधिक सामान्यतः नहीं होते।

आजकल केवल 15 दिनों को ही श्राद्ध का समय मान लिया गया है और वह भी मृतकों के लिए। यह सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाए तो श्राद्ध के ये 15 दिन भी जीवित पितरों के श्राद्ध के लिए ही हैं।

प्राचीन समय में ऋषि-मुनि वर्षा में वनों, पर्वतों को छोड़ कर गाँव तथा नगरों में चातुर्मास व्यतीत करने आते थे। उन के जाने से पूर्व लगभग 15 दिनों तक उनका विशेष रूप से भोजनादि पदार्थों द्वारा सत्कार किया जाता था। रामायण में राजा दशरथ के श्राद्ध करने का उल्लेख, पुत्रों के विवाह प्रसंग में आया है कि ‘ऋषया रासंघाश्च भवद्भयामभिपूजिताः’ (बालकांड 72/18) अर्थात आप ने जो ऋषियों और राजाओं का विशेष रूप से पूजन (सत्कार) कर लिया है। अब मैं अपने घर जाऊँगा और सब श्राद्ध कर्मों को करूँगा।

गीता में कहा गया है- ‘आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः मातुलाः श्वशुराः श्यालाः संबंधिनस्तथा’ (1/34) में अर्जुन कृष्ण से कहते हैं कि आचार्य, पितर, पुत्र आदि जिन के लिए हमें राज्य भोग का सुख चाहिए वे तो अपने प्राणों का मोह त्याग कर युद्ध के मैदान में खड़े हैं। इस में पितर शब्द जीवितों के लिए प्रयुक्त है।
मृतक श्राद्ध के पक्षपाती यह कहते हैं कि मृतक पितरों के नाम पर भोजन कराने से क्या हानि है। इस बहाने उन की यादगार में कुछ न कुछ दान-पुण्य हो जाता है, लेकिन विचार करने पर इस से धार्मिक, नैतिक, आर्थिक, सामाजिक दोष ही दोष दिखाई देते हैं। प्रथम तो धर्म की मर्यादा का नाश होता है, गलत परम्परा चल पड़ती है, जिस का परिणाम यह होता है कि जिन माता-पिता को उन के जीवित रहते दो घूँट पानी भी नहीं पिलाया जाता, मरने के बाद उन के नाम पर भोज, गोदान शैय्यादान आदि होता है और वह भी कर्ज ले कर। दूसरा, दान देना बुरा नहीं, यदि पात्र और कुपात्र को देख कर दिया जाए। बिना विचारे दान-पुण्य करना तो संसार में आलसी और निकम्मे लोगों को सहायता देना है। तीसरा, बहाने बनाकर किए गए काम का संस्कार भी आत्मा पर शुभ नहीं पड़ता है, क्योंकि हृदय में सच्चाई नहीं होती। चैथा, यदि अपने पूर्वजों की यादगार में खिलाना-पिलाना, दान देना आवश्यक है तो केवल आश्विन महीने के पन्द्रह दिन में ही इस के लिए निश्चित क्यों? वह केवल

ब्राह्मणों को ही क्या दिया जाए? भूखे, नंगे, लगड़े-लूले, अपाहिज व्यक्तियों को दिया जाए, चाहे वे किसी देश-जाति के हों, वे इस के अधिकारी क्यों नहीं?

क्या यह मूर्खता नहीं है कि हम अपनी वर्तमान समस्याओं की ओर ध्यान नहीं देते और तथाकथित अन्य लोगों में स्थित पितरों के पास भोजन का थाल लिए दौड़ते हैं, जब कि देश के लाखों बालक भूख से मरते हैं, विधर्मी बनते हैं। हमारी संस्कृति में तो मृत्यु दिवस नहीं वरन जन्म दिवस मनाने की परिपाटी है, जैसे कृष्णजन्माष्टमी, रामनवमी, सीताष्टमी, हनुमान जयंती आदि।

पितर नाम शरीर का है या आत्मा का या शरीर सहित आत्मा का? यदि पितर नाम शरीर का है, तो मरने के बाद तो शरीर को जला दिया जाता है। अतः वे मृतक हमारे पितर ही नहीं रहे। यदि केवल आत्मा का ही नाम पितर है तो आत्मा न कभी जन्मता है न मरता है और न किसी का पुत्रा, पितादि बनता है। यदि शरीर सहित आत्मा का नाम पितर है, तो शरीर छूटने के बाद हमारे पितर ही नहीं रहे। शरीर नाश हो जाने पर पितृधर्म कहां रहता है? जब पितृधर्म नही तो पितृ श्राद्ध कैसा? श्राद्ध में पितर सशरीर आते हैं या बिना शरीर? यदि सशरीर आते हैं तो वे आते-जाते समय दीखते क्यों नहीं? यदि सशरीर आते है तो फिर ब्राह्मणों को खीर-पूरी मेवा-मिष्ठान खिलाने की क्या आवश्यकता है।

यदि मृत शरीर छोड़ कर आते हैं तब उन के छोड़े शरीर को उन के सम्बन्धी मरा समझ कर उसे जल देंगे, तब पितर पुनः किस शरीर में प्रविष्ट होंगे? क्या हाथ-मुंह के अभाव में खीर-पूरी खा सकेंगे?

‘पितर’ खाते नहीं, देख कर ही तृप्त होते हैं। ऐसी अवस्था में तथाकथित ब्राह्मणों को खीर-पूरी खिलाने के क्या आवश्यकता है? एक व्यक्ति के खिलाने से यदि दूसरे व्यक्ति के पास भोजन पहुँचता है तो परदेश जाने वाल व्यक्ति को भोजन बाँध कर ले जाने की क्या आवश्यकता है? क्या इन तथाकथित ब्राह्मणों को यह पता होता है कि मृतक पितर की आत्मा इस समय कहां है, जिस से भोजन उस के पास पहुँचा सकंे? क्या देवलोक, स्वर्गलोक में अन्न, जल, वस्त्र आदि की कमी है। दूसरे कर्मानुसार यदि वे निकृष्ट योनि, पशु-पक्षी या कीड़े-मकोड़े को प्राप्त हुए हैं तो क्या वह खीर-पूरी उन्हें परिवर्तित हो मांस, घास और मल के रूप में प्राप्त होगी? कौओं और पितरों में क्या सम्बन्ध है, जो श्राद्ध पक्ष में उन्हें विशेष रूप से भोजन दिया जाता है? यदि यह माना जाता है कि प्रजापिता परमेश्वर सब का प्रबन्ध उन के कर्मानुसार करता है फिर उन की तृप्ति की चिन्ता हम क्यों करें? यदि किसी का पिता अफीमची, मांसाहारी, शराबी और व्यभिचारी हो ता उस के मरने के बाद उस की तृप्ति के लिए क्या उस का पुत्र अफीम आदि अपने पितरों तक पहुँचाने के लिए ब्राह्मणों को सेवन कराएगा? क्या ब्राह्मण यह स्वीकार करेंगे?

श्राद्ध पक्ष में हजामत बनवाने और कपड़े बदलने का किस शास्त्र में निषेध है? यदि मृतक श्राद्ध वैदिक है तो ऐसा मानने वाले चारों वेदों में कहीं भी ऐसे शब्द दिखलाएँ, जिस से मृतक श्राद्ध की परम्परा सिद्ध हो। वेदानुयायी ब्रह्मा से लेकर जैमिन तक ऋषि-मुनियों ने अपने मृत पितरों का श्राद्ध किया हो, इस का कहीं भी उल्लेख नहीं है।

पितृ श्राद्ध माता-पिता आदि गुरुजनों के जीवनकाल में ही किया जाना उचित है। जीवनकाल में उन का सम्मान, उन की देखभाल सर्वथा उचित है, पर मृत्यु के बाद तो उन आडम्बरों की कोई उपयोगिता नहीं रह जाती। जो गलत है उसे त्यागना ही चाहिए।

##(डाॅ.नीतू सिंह सेंगर)