‘सरकारी विद्यालयों के छात्रों एवं निजी विद्यालयों के शिक्षकों की दरिद्रता चिन्ताजनक’

भारत के सभी गाँव-नगर के गली-कूंचों में प्रत्येक स्तर के विद्यालय संचालित हो रहे है। इन विद्यालयों की मान्यता सम्बन्धी कागजी औपचारिकता में शिक्षण सम्बन्धी समस्त वस्तुएँ विद्यालय में उपलब्ध होकर उनका छात्र-छात्राओं के उपभोग तथा विद्यालय भवन शिक्षण कार्य मात्र के लिए निर्धारित हो रहा है। जबकि वास्तविकता इससे परे व प्राप्त सामग्री नदारत है।

छात्र-छात्राओं के कौशल विकास के लिए राष्ट्रीय एवं प्रादेशिक स्तर पर समयानुकूल मानकीय पाठ्यक्रम एवं शिक्षण निर्धारित होता है। शिक्षण कार्य के लिए अर्ह शिक्षकों को निर्धारित वेतनमान के अन्तर्गत नियुक्त किया जाता है। शिक्षा व्यवस्था एवं शिक्षक-कर्मचारियों को वेतन-भत्ते तथा छात्रों की समस्याओं के समाधान हेतु शुल्क प्रतिपूर्ति, छात्रवृत्ति, पुस्तकें, छात्रावास, पुस्तकालय, समाचार पत्र-पत्रिकाएं आदि व्यवस्था उपलब्ध करायी करायी जाती है, जिसके लिए सरकार द्वारा राष्ट्रीय आय के बडे़ हिस्से का धन बजट व देश-समाज से भारी दान-अनुदान तथा सांसद-विधायक निधियों से प्राप्त धन व्यय किया जाता है।
सरकारी अनुदानित, निजी विद्यालय-कालेजों के शिक्षकों की अर्हता, नियुक्ति प्रक्रिया, वेतन निर्धारण में समानता तथा शिक्षण कार्य में निर्धारित आचरण प्रावधानों के बावजूद आज शिक्षा की स्थिति चिन्ताजनक बनी हुई है। व्यक्ति अपना एक तिहाई जीवन विद्यालयों में विद्यार्थी के रूप में खपाने के बावजूद व्यक्तित्त्व विकास करने में असफल हो रहे हैं। व्यक्ति का परिश्रम एवं डिग्री व्यर्थ सिद्ध होकर उनका जीवन बोझ बन रहा है। क्या यही है भारतीय शिक्षा का प्रतिष्ठित उद्देश्य?

आज देश की रिकार्डिड जनसंख्या 1211903144 की शैक्षिकता पर विचार करने के फलस्वरूप प्रकटित तथ्य ‘देश की जनसंख्या का 25.6 प्रतिशत अर्थात् 32 करोड़ व्यक्ति ऐसे हैं जो लिख-पढ़ नहीं सकते हैं। अवशेष 89 करोड़ जनसंख्या में अधिकांश व्यक्ति ऐसे हैं जो उल्टी-सीधी रेखाएँ अपने नाम के लिए पहचानते हैं। उनका जीवन कितना मानवतापूर्ण और उपयोगी है की वास्तविक स्थिति उनकी दरिद्रता और दयनीयता में दिखती है।’

उच्च शुल्क एवं डोनेशन युक्त निजी विद्यालयों में प्रवेश व्यक्ति के स्तर की पहचान बन गए हैं। जबकि सरकारी- अनुदानित विद्यालयों में प्रवेश-शिक्षा दरिद्रता एवं निम्नता का प्रतीक बन गई हैं। सरकारी अनुदानित एवं निजी स्कूल-कालेजों एवं छात्रों की स्थितियों की तुलना करने पर ज्ञात होता है कि सरकारी-अनुदानित विद्यालयों के शिक्षक भारी वेतन-भत्ते लेने पर भी निर्धारित मानकीय पाठ्यक्रम नहीं पढ़ाते हैं तथा विद्यालयों में क्षिक्षण का वातावरण नष्ट कर नेतागीरी, ट्यूशन, कमीशन बाजी करते रहते हैं जबकि निजी विद्यालयों के शिक्षकों से विद्यालय में शिक्षण कार्य कराने एवं प्राचार्य-प्रबंधकों के आवासों पर बन्धुआ मजदूर की भाँति कार्य करने पर भी उनका वेतन-खैरात हड़प लिया जाता है। यहाँ तक कि शिक्षकों के वेतन खातों में वेतन डालकर दबंग प्रबन्धको द्वारा फर्जीबाडा करके वेतन हड़पा जा रहा है। बोर्ड-विश्वविद्यालय द्वारा नियुक्त प्रक्रिया में फर्जीबाड़ा करके सगे-सम्बन्धी आपसी हितबद्ध अयोग्य लोगों को आचार्य-प्राचार्य पद पर स्वयंभू पदासीन कर अनुमोदित किया जाता है तथा प्रबन्धतन्त्रों द्वारा छात्रों से अवैध वसूली कराई जाती है। मिड-डे-मील एवं अनुदानित कम्प्यूटर बेंचे जा रहे हैं।
सरकारी व अनुदानित विद्यालयों में पढ़ने वाले छात्रों में अधिकांश विद्यार्थी दरिद्रता के शिकार व्यक्ति-परिवारों से जुडे़ हैं जो अपने अभिभावकों की दीन-हीनता की दशा से बुरी तरह प्रभावित होकर अपने भाग्य को कोसते रहते हैं। ऐसी स्थिति में वे अपने मन-मस्तिष्क को पठन-पाठन हेतु ढ़ालने में असमर्थ पाते हैं तथा पढ़ने की चाह रखते हुए शिक्षकों का हिटलर शाही रुख को भाँप अपनी चुप्पी साधकर आवश्यकीय शिक्षा प्राप्त करने से वंचित हैं। बस्तियों में इनकी बड़ी संख्या मौजूद है।

निजी विद्यालयों में धनाढ्य लोगों के बच्चे पढ़ते हैं जो सुख-सुविधा की वस्तुओं से परिपूर्ण रहते हैं। पठन-पाठन के स्थान पर कार्टून्स और टी.वी. पर कन्सनटेंट होते हैं। स्कूल-होम वर्क ट्यूशन शिक्षकों द्वारा पूर्ण कर दिया जाता है। स्कूल के शैक्षिक सत्र में तरह-तरह के मनोरंजन-कार्यक्रम चलते रहते हैं। परीक्षा के अवसर पर धन लेकर ‘मुन्नाभाई’ परीक्षा-कापी लिख देते हैं तथा मनमाने प्रमाण-पत्र देकर विद्यार्थी कालेज से विदा कर दिए जाते हैं। इनकी सफलता धनाधारित होती है।

उक्त स्थिति पर विचारोपरांत स्पष्ट कहा जा सकता है कि आज छात्र-छात्राओं के पठन-पाठन के लिए निर्मित विद्यालय, पाठ्यक्रम, शिक्षक, परीक्षा, डिग्री-प्रमाणपत्र व्यक्ति और समाज के लिए अनुपयोगी है, जो व्यक्ति-समाज से मनमाना धन एवं लम्बा जीवन लेने के बावजूद कौशल-विकास में योगदान करने में नाकाम हैं जिससे बेरोजगारी वृद्धि चरम पर है।

शिक्षा के उद्देश्य ‘असतो मा सद् गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय’ के लिए हमारे ऋषियो-मुनियों ने गुरू पद धारण कर देश-समाज में व्यक्तित्त्व को विकसित किया। किन्तु आज गुरू अर्थात् शिक्षक व्यक्ति-समाज की दृष्टि में हेय बन गए हैं। अतः हमें चाहिए कि परिस्थिति अनुरूप मानकीय शैक्षिक पाठ्यक्रय, अर्ह शिक्षकों, निर्धारित शिक्षण प्रक्रिया, गुणवत्तायुक्त परीक्षा-डिग्री प्रमाणपत्र ही स्वीकार करें। हमें प्रवधारित करना है कि ‘हमें शिक्षित बनकर अपने व्यक्तित्त्व का विकास करना है न कि साक्षर कहलाकर स्वयं को शोषित कराना है।’

(डाॅ.नीतू. सिंह तोमर)

एम.ए.,पी-एच.डी., समाजशास्त्र

पोस्ट डाक्टोरल फेला, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग, दिल्ली

मोबाइल 9389766228