भारत की स्वतन्त्रता एक ऐसा ऐतिहासिक क्षण था जब हमने उस सपने को सच होते हुए देखा जिसकी एक सदी पहले तक कल्पना भी नहीं की गयी थी। यह एक ऐसा पड़ाव था जहाँ उम्मीदों ने रास्तों को हमवार किया और भारत को श्रेष्ठतम बनाने की आरजू दामनगीर हुई। यह पल हमें आत्मविश्वास के साथ जीने की कला सिखा गया और भविष्य की सुन्दर कल्पनाओं के साथ खुद को ज़िन्दा रखने की प्रेरणा भी देता रहा। बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर ने कहा था कि " हमें अपनी आज़ादी की रक्षा अपने ख़ून की आख़री बूंद तक करनी है।" आज़ादी की रक्षा का यह संकल्प हमें अनगिनत त्याग और बलिदान को याद रखने की शिक्षा देता है तथा ऐसे राष्ट्र निर्माण की संकल्पना के लिए प्रतिबद्ध भी करता है जहाँ राष्ट्रीय एकता और सामाजिक समानता जैसे मूल्यों और आदर्शों की रक्षा की जा सके ताकि स्वतन्त्रता की यह सुगंध उदास चेहरों को खु़शनुमा परिवर्तनों के लिए प्रेरित कर सके। यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि जिस राजनीतिक प्रतिबद्धता के साथ राष्ट्र निर्माण प्रक्रियाधीन था वह अपने साथ उन्हीं आदर्शों को समेटे था जिनके इर्द गिर्द यह पूरा आन्दोलन गतिशील था और स्वभाविक तौर पर इसकी व्यापकता के कई आयाम और विश्लेषण के द्वार खुलते चले गए।

1857 की महान क्रान्ति के असफल हो जाने के बाद अंग्रेज़ों ने जिस निर्मम दमनकारी नीतियों को अपनाया उसका प्रभाव आने वाली नस्लों पर व्यापक रूप से रहा। शेखर बन्दोपाध्याय हमें बताते हैं कि
"जब विद्रोही एक-एक ईंच के लिए लड़ रहे थे तो अंग्रेज़ों ने देहाती एवं अन्य नगरीय क्षेत्रों में शुद्ध आतंक का राज स्थापित कर दिया था।" यह बात भी याद रखने योग्य है कि यह क्रान्ति असफल होने के बाद भी ईस्ट इन्डिया कंपनी के युग का अन्त कर गयी और अगस्त 1857 मे भारत ब्रिटिश राजमुकुट के अधीन कर दिया गया जिसके अन्तर्गत महारानी विक्टोरिया को भारत की महारानी घोषित किया गया। इस परिवर्तन ने उपरी तौर पर अपनी शासकीय नीति के अन्तर्गत धार्मिक सहिष्णुता एवं संवाद की वकालत की मगर घटना क्रम हमें बताते हैं कि इस परिवर्तन के साथ साम्राज्य निरंकुशता की ओर प्रभावशाली ढंग से बढ़ने लगा जिस ने अंतत: आधुनिक राष्ट्रवाद को जन्म दिया तथा जिस ने अखिल भारतीय स्तर पर एक जन-आन्दोलन पूर्ण स्वतन्त्रता के लिए संचालित किया। हमें यह भी याद रखना चाहिए कि यथार्थ के धरातल पर भारतीय राष्ट्रवाद अपनी सामाजिक संरचना एवं राजनीतिक गतिशीलता में यूरोपीय राष्ट्रवाद से सर्वथा भिन्न रहा है।

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने अपनी स्थापना के साथ ही असंतोष के स्वर को मुखर करने के लिए एक मंच उपलब्ध कराया और प्रारम्भ से राष्ट्रीय एकता एवं नागरिक स्वतन्त्रता को अपने उद्देश्यों में रखा। इस प्रयास ने भारत के अंदर एक नई राजनीतिक चेतना के साथ सार्वजनिक जीवन में नयी स्थापनाओं, प्रवृतियों एवं उद्देश्यों को जन्म दिया। कांग्रेस की पहली पीढ़ी का नेतृत्व जिन्हें आम तौर पर नरमपंथी नेतृत्व की संज्ञा दी गयी है, अपने राजनीतिक उद्देश्य मे सीमित अवश्य था परन्तु आधारभूत संवैधानिक एवं सामाजिक परिवर्तन के लिए सतत् संघर्षशील रहा। अपने आरंभिक चरण में ही कांग्रेस ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद की आर्थिक नीतियों की जो मूलत: किसान एवं मज़दूरों के शोषण पर आधारित थी एक मज़बूत समालोचना प्रस्तुत की जिस ने 'आर्थिक राष्ट्रवाद ' को जन्म दिया। इनमें प्रमुखता से दादा भाई नौरोजी, महादेव गोविन्द रानाडे एवं रोमेशचन्द दत्त अग्रणी भूमिका में रहे जिन्होंने अपनी पुस्तकों एवं लेखों के माध्यम से भारत की पूँजी को भारत से बाहर ले जाने वाली नीतियों एवं कृत्य की ज़ोरदार आलोचना की।

यह तथ्य भी आम तौर पर स्वीकृत है कि कांग्रेस अपने अगले चरण में द्वन्द का शिकार हुई तथा आम भारतीय को ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरूद्ध लामबन्द करने में पूरी तरह सफ़ल नहीं हो पायी मगर इस दौरान होने वाली हिंसक घटनाओं ने अंग्रजी़ राज के विरूद्ध मनोवैज्ञानिक प्रभुत्व की जड़ों को कमज़ोर करने के लिए जन विद्रोह के माध्यम से कुछ सफ़लताएँ ज़रूर अर्जित की गयीं।
(विस्तृत अध्ययन के लिए सुमित सरकार, रविन्दर कुमार एवं शेखर बन्दोपाध्याय की पुस्तकें देखें)

नए ऐतिहासिक अनुसंधानों ने यह भी स्पष्ट किया है कि सूरत विभाजन से 1915 तक दोनों समूह अपना आकर्षण खोते जा रहे थे और अपने घोषित उद्देश्यों की प्राप्ति में प्राय: असफल रहे।

इस विषम परिस्थिति में गाँधी जी का राजनीतिक परिदृश्य में उदय होना एक महत्वपू्र्ण ऐतिहासिक घटना थी। गाँधी जी की राजनीतिक समझ, अध्यात्मिक लगन और एकजुट भारत की लगन के प्रति समर्पण ने उनको स्वतन्त्रता आन्दोलन का महानायक बना दिया। गाँधी जी की व्यक्तिगत सादा एवं शालीन जीवनशैली तथा संयमित और नियंत्रित जनता की प्रभुसत्ता के विचार ने उनके प्रति जो सम्मोहन पैदा किया था उसका उदाहरण इतिहास में शायद दूसरा न मिले। गाँधी जी का विचार था कि अगर आन्दोलन संयमित नहीं रहेगा तो अराजक बन जाएगा और इस विचार व विश्वास को अधिकांश जनता की स्वीकृति भी प्राप्त थी। यह बात भी सत्य के निकट ही है कि सामाजिक असंतोष राजनीति में संभावनाओं के द्वार खोलता है और कुशल नेतृत्व ही उस असंतोष को एक संगठित स्वर देता है। गाँधी जी का कारनामा यह था कि उन्होंने समाज में व्याप्त राजनीतिक असंतोष एवं सामाजिक अप्रियता को एक संगठित अभिव्यक्ति दी।

भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन अपने स्वरूप में एक विशालतम जन-आन्दोलन था जो करोड़ो लोगों की राजनीतिक सक्रियता, प्रतिबद्धता,नैतिक बल एवं संघर्ष पर आधारित था। गाँधी जी का यह कथन सत्य ही प्रतीत होता है कि प्रत्येक आन्दोलन की स्रष्‍टा जनता होती है बशर्ते कि वह अपने नैतिक आचरण, सामाजिक प्रतिबद्धता, समानता एवं उदारता के साथ मज़बूती से खड़ी रहे। भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन ने जिस राजनीतिक संस्कृति को जन्म दिया वह आपसी सम्मान, विरोधी विचारों एवं विविधता के प्रति सम्मानजनक रवैया एवं भारत की धार्मिक,भाषाई,सामाजिक एवं जनजातिय विविधता की स्वीकार्यता पर आधारित था और यही राजनीतिक संस्कृति हमें आदर्श एवं श्रेष्ठ राष्ट्र के सपने को साकार करने में सहायक होगी।

डा० शाहिद परवेज़

एसोसिएट प्रोफेसर- मध्य एवं आधुनिक इतिहास विभाग,

रमाबाई राजकीय महिला स्ना० महा०,

अकबरपुर, अम्बेडकरनगर, यू०पी०

मो०- 9415169186