मोहम्मद आरिफ़ नगरामी

अल्लाह के रसूल स.अ. के हुकूक में एक बड़ा हक यह है कि आप स.अ. की बारगाह में सलात व सलाम के नजराने पेश किये जाते रहे हयह आप स.अ. के लिए एक आला दर्जे की दुआ है जो एक उम्मती के लिए बाइसे बरकत व तरक्की है आप स.अ. के एहसानात उम्मत पर बेमिसाल है। इसी तरह उम्मत पर आप स.अ. के हुकूक भी बेशुमार है उम्मत पर एक बुनियादी हक है कि आप स.अ. पर दुरूद पढ़ा जाये। जिन्दगी में एक मरतबा दुरूद पढ़ना फर्ज है इसलिए कि अल्लाह ताला ने इरशाद फरमाया है कि बेशक अल्लाह और उसके फरिश्ते रसूल पर दुरूद भेजते है ऐ ईमान वालों तुम भी उन पर दुरूर भेजा करों। और खूब सलाम पढ़ा करों।
खुद अल्लाह ताला आप पर मुसलसल रहमते नाजिल फरमाते है और फरिशते आप स.अ. पर दुरूद दुरूर पढ़ते है। और उम्मत को भी इसका हुक्म दिया गया कि वह आप स.अ. पर दुरूर भेजती रहे।

जब जब आप स.अ. का नामें नामी आप तो दुरूद शरीफ पढ़ा जाये और उसकों अपने लिए ऐन साआदत समझा जाये। बाज उलमा ने इसकों वाजिब लिखा है और बाज कहते है कि एक मजलिस में कम अज कम एक मरतबा दुरूद शरीफ पढ़ना बेहतर है बरकत और खुश बख्ती की बात है हदीसों में दरूद शरीफ के अल्फाज वारिद हुए है। बेहतर यही है कि उन्ही अल्फाजे मुबारिका का इस्तेमाल किया जाये। वह कुबूलियत से ज्यादा करीब है। उनमें अफजल तरीन दुरूद वह है जो नमाज में पढ़ा जाता है।

दुरूद शरीफ पढ़ने के फजायल और फवायद बेहिसाब है एक हदीस में आता है कि जो एक मरतबा मुझ पर दुरूद पढ़ता हे अल्लाह ताला उस पर दस मरतबा रहमत नाजिल फरमाते है दुरूद शरीफ पढ़ने से दिलों का जंग दूर होता है। अल्लाह से कुरबत का यह बेहतरीन रास्ता है रसूल करीम स.अ. का फरमान है कि जो मुझ पर एक मरतबा दुरूद भेजेगा अल्लाह ताला उसके लिए दस नेकिया लिखेगे उसके दस गुनाह माफ होंगे और उसके दस दर्जा बुलंद होगे।

रसूल करीम स.अ. का यह भी फरमान है कि कयामत के दिन मुझसे सबसे जियादा करीब वह होगा जो मुझपर सबसे जियादा दुरूद पढ़ने वाला होगा।

हजरत अनस की रवायत में है कि आप स.अ. ने फरमाया कि जो मुझ पर एक दिन में एक हजार मरतबा दुरूद पढ़ेगा उसको उस वक्त तक मौत नही आयेगी जब तक वह जन्नत में अपना ठिकाना ना देख लेगा।

हदीस मनकूल है कि आप स.अ. ने फरमाया मुझ पर दुरूद पढ़ों, इसलिए कि मुझ पर दुरूद पढ़ना तुम्हारे लिए गुनाहो का कफ्फारा है।

तरनदी शरीफ में मंकूल है कि अनहजरत स.अ. ने इरशाद फरमाया दुआ आसमान व जमीन के दरमियान ठहरी रहती है कोई दुआ ऊपर नही पहुंचती जब तक तुम अपने नबी पर दुरूद न पढ़ों सनन अबू दाउद में है कि अन हजरत स.अ. ने इरशाद फरमाया अपने घरों में नमाज नफिल पढ़ा करों और उनको कबिस्तान न बनाओं और मेरे घर को जश्न गाह मत बनाना मुझ पर सलवात व सलाम पढ़ों तुम कहीं भी हो तुम्हारे सलवात व सलाम मुझको पहुंचता है।

हदीस में आया है कि वह शख्स है जिस के पास मेरा तजंकिरा हो और दुरूद शरीफ न पढ़े
हदीस सही में है कि अल्लाह ताला ने ऐसे फरिश्ते मुतअय्यन फरमायें है जो मेरी उम्मत का सलाम मुझको पहुंचाते रहते हे।

एक हदीस में इरशाद ळ ेकि जो बंदा मुझ पर दुरूद पढ़ता है तो उसको एक फरिश्ता आसमान तक ले जाता है यहां तक कि बारगाह इलाही में उसको पेश किया जाता है। तो अल्लाह ताला फरमाता है कि उसको मेरे बंदे की कब्र के पास ले जाओं यह उसके लिए इस्तगफार करता रहे ओश्र उकसे जरिये से उसकी आंख ठंडी हो।
अबू दाउद की एक रवायत है कि आप स.अ. ने इरशाद फरमाया कि जिसको यह पसंद हो कि उसके बडे़ पैमाने से भर भर दिया जाये उसे चाहिए कि जब दुरूद शरीफ पढ़े तो यह अल्हाफज कहें।

हजरत अबी बिन कआब रजि. फरमाते है कि मैंने अल्लाह के रसूल स.अ. की खिदमत में अर्ज किया कि ऐ अल्लाह के रसूल मंे कसरत से आप पर दुरूद पढ़ता हूं तो मैंने अपने मालूमात से उसका कितना हिस्सा रखो आपे स.अ. ने फरमाय जितना चाहो में ने अर्ज किया कि एक तिहाई फरमाया जो चाहे ज्यादा हो तो ओर बेहतर है मैने कहा तो दुरूद शरीफ पढ़ता ही रहूं आप ने फरमाया अगर ऐसा करोगे तो तुम्हारी सब फिक्रेा के लिए वह काफी होगा और तुम्हारे गुनाहों की बख्शिश कर दी जायेगी।

एक और हदीस मे आता है कि आप स.अ. ने फरमाया जो मोहम्मद स.अ. पर दुरूद पढ़ता रहे तो अल्लाह ताला उसके लिए मेरी शफाअत वाजिब फरमा देते है एक दूसरी हदीस में है अल्लाह जल्ले शाना ने एक फरिश्ता मेरी कब्र पर मुकर्रर कर रखा है जिसकों सारी मखलूक की बाते सुनने की कुदरत अता फरमा रखी है पस जो शख्स भी मुझ पर कयामत तक दूरूद भेजता रहेगा वह फरिश्ते मुझको उसका और उसके बाप का नाम लेकर दुरूद पहुचाता है कि फलां शख्स जो फला का बेटा है उसने आप पर दुरूद भेजा है।

एक दूसरी रवायत में है जो शख्स मेरे ऊपर मेरी करीब दुरूद भेजता है मैं उसको खुद सुनता हूं और जो दूर से मुझे पर दुरूर भेजता है वह मुझको पहुचा दिया जाता है।

दुरूदशरीफ न पढ़ने का वबालः-

दुरूद शरीफ न पढ़ना आप स.अ. की हक तल्फी है और यकीनन यह सबसे बड़ी महरूमी है हदीसों में जगह जगह उसका तजकिरा है।

एक हदीस में इरशाद है कि जिस के पास मेरा तजकिरा हो और वह दुरूद शरीफ भूल जाये तो गोया वह जन्नत का रास्ता भूल गया।

काब बिन अजरा रजि. फरमाते है। कि हम लोग मस्जिद नबवी में मेम्बर के करीब थे आप स.अ. ने मेम्बर के पहले दर्जे पर कदम रखा तो फरमाया। आमीन फिर जब आप फारिग हुए और मेम्बर से नीचे उतरे तो हमने अर्ज किया कि अल्लाह के रसूल स.अ. आज हमने आप से ऐसी बात सुनी जो पहले कीज्ञी नही सुनी तो आप स.अ. ने फरमाया जिब्राईल हमारे सामने आये थे और उन्हेने कहा कि हलाक हो वह जो शख्स जिसको रमजान का महीना नसीब हो और उसकी मगफिरत न हो मैंने कहा अमीन फिर जब मैनें तीसरे दर्जा पर कदम रखा तो उन्होने कहा कि हलाक वह शख्स जिसको वालदैन में से दोनों या एक बुढ़ापे में मिले और वह जन्नत का सामान कर सकें मैंने कहा आमीन।

हजरत अबू हुरैरा रजि. से आप स.अ. का यह इरशाद मंकूल है। कि अगर कोई मजलिस ऐसाी हो कि लोग न अल्लाह का जिक्र करें और न मुझ पर दुरूर पढ़े तो उनकी वह मजलिस कयामत के दिन वबाल होगी अल्लाह चाहे तो माफ करें और चाहे तो मवाखजा फरमायें।

दुरूद शरीफ पढ़ने के खास मवाकाः-

दुरूद शरीफ जितना पढ़ा जाये बाअस खैर व बरकत है दुनिया व आखरत की कामयाबी की जमानत है खास तौर पर जब आप स.अ. का नाम नामी आये उस वक्त दूरूद पढ़ना वाजिब करार दिया गया है। कम अज कम मजलिस में एक मर्तबा और अर हर मर्तबा कोई दुरूद पढ़े तो इसके लिए बड़ी फजीत की बात है।
जुमा के दिन दुरूद शरीफ पढ़ने की बड़ी फजीलत विर्द हुई है। मुस्तईद वारदात में उसकी मुखतलिफ फजीलतों का तजकिरा है एक हदीस में आता है कि आप स.अ. ने फरमाया तुम्हारे दोनो अफजल तरीन दिन जुमा है इसी में पहली सूर फूंकी जायेगी। और दसी मं दूसरी सूर फूंकी जायेगी तो उस दिन मुझ पर कसरत से दुरूद पढ़ा करों इसलिए कि तुम्हारा दुरूद मेरे सामने पेश होता है।

इसी तरह दुआ से पहले दुरूद शरीफ पढ़ने का हुक्म है

कोई दुआ आसमान तक नही पहुंचती बस जब मुझ पर दुरूद पढ़ा जाता है तो दुआ ऊपर पहुच जाती है।
इसी तरह मस्जिद में दाखिल होते वक्त और निकलते वक्त दुआ से दुरूद शरीफ पढ़ने का हुक्म है सही हदीस में उसका तजकिरा है और अजान के जवाब से पहले भी दुरूद शरीफ पढ़ना चाहिए मुस्लिम शरीफ की रवायत में है। कि जब मौजिन से अजान सुनो तो वही कलमात दोराओं और मुझ पर दुरूद पढ़ो फिर अल्लाह से मेरे वसीला मांगों इसलिए कि यह जन्नत में कए खास मकाम है जो अल्लाह के लिए खास बंदे को हासिल होगा और मुझे उम्मीद है कि वह मुझे मिलेगा। बस जो मेरे लिंउ इसकी दुआ करेंगा उसकों मेरी शफाअत का हक हासिल होगा।

इसी तरह खतूत में किताबों में बिसमिल्लाह के बाद दुरूद शरीफ लिखने का मामूल रहा है कि हदीस में यह अल्फाज मंकूल है। कि अगर किसी नौशता में मुझपर दुरूद शरीफ लिखता है तो बराबर फरिश्ते इसके लिए इस्तगफार करते रहते है। जब तक मेरा नाम इस किताब में मौजूद रहे।