-रविश अहमद

हम भारतीय वास्तव में मासूम हैं हमें कोई भी एक व्यक्ति बहला फुसला सकता है और यह एक बार नही हम हमेशा से साबित करते आये हैं। जिन्ना की तस्वीर याद तो होगी जी हां वही जिन्ना जिसने विभाजन के 71 वर्ष बाद भी भारतवासियों में क्रान्ति का बिगुल फूंक दिया था। अब कोई मोहतरमा पूजा हैं उन्होनें मुस्लिम जगत में हलचल मचाकर दूरसंचार कंपनी एयरटेल को ठप्प करने का बीड़ा उठाया है।

धर्म के नाम पर ट्विटर टिप्पणी को उन्होने हथियार बनाया जिसे एक राष्ट्रवादी चैनल द्वारा बड़ी ख़बर के रूप में परोसा गया, जिसके बाद एक नयी क्रान्ति का जन्म हुआ फिलहाल मॉब लिंचिंग जैसे बड़े मुद्दे से लेकर और शिक्षा से राजनीति तक हर स्तर पर हष तरह से पीछे को धकियाए जा रहे मुस्लिम समाज में अपने मोबाइल नम्बर को पोर्ट कराने की क्रान्ति जोश मार रही है। जियो एक सर्वसमाज हितैषी कम्पनी है जो उसी रिलायन्स कम्पनी की दूरसंचार सेवा है जिसने अपनी वायाकॉम फिल्म्स के ज़रिये पद्मावती के नाम पर क्रान्ति कराकर मुस्लिम समाज को भरपूर गालियां और नफरत दिलाई थी उसका बायकाट न तो गालियां बटोरने वाले मुस्लिम समुदाय ने किया न ही क्रान्तिकारी हिन्दू समाज ने किया।

आप और हम यानी हिन्दू मुसलमान सिक्ख ईसाई पारसी और तमाम समुदाय जो मिलकर इस भारत को अतुल्य बताते हुए गौरवान्वित महसूस करते हैं उसका एक महत्वपूर्ण हिस्सा हम सब मासूम भारतीय भी हैं। शायद ही किसी अन्य देश के लोग इतने मासूम हों कि उन्हें कभी भी किसी भी नई कहानी सुना दिखाकर क्रान्तिकारी बनाया जाता हो।

हम सब स्वयं में एक शक्तिशाली व्यक्तित्व हैं जो किसी को भी अकेले मसलने उजाड़ने की ताकत रखते हैं यही ग़लतफहमी हम सभी के दिलों में अनजाने डर ने पैदा कर दी है। जब कोई अनजाना भय आपको लगातार सताता है तो आप उसके ख़िलाफ हो जाते हैं। हमें राजनीतिक दलों द्वारा धर्म के नाम पर इतना डराया गया है कि अब हम दूसरे धर्मों के खिलाफ असहिष्णु हो चुके हैं। हमें छोटी छोटी सी बातों में धर्म खतरे में नज़र आने लगता है जिसके प्रति हम अपनी सोचने समझने की ताकत खो चुके हैं और किसी भी मामले पर क्रान्ति का बिगुल फूंक देते हैं।

अफसोस की बात यह है कि कभी भी मुद्दों पर हमारा दिखावटी संघर्ष तक नही होता। बेरोज़गारी-भुखमरी और शिक्षा के नाम पर हम कभी एकजुट नही होते। कितनी बड़ी उपहास की बात है कि समाज का एक वर्ग एक राजनीतिक दल के बहकावे में अपने ही देश पर अपने कब्जे़ के विषय में न केवल सोचता है बल्कि दिन रात एक ऐसी मेहनत कर रहा है जिसकी संभावना है ही नही।

बात कथित क्रान्ति की करें तो पिछले लेख की भांति इस लेख में जिस आन्दोलन का ज़िक्र किया गया वह भी अपने अन्जाम तक नही पंहुची । कितने नम्बर एयरटेल से पोर्ट होकर किसी और सैक्युलर कम्पनी में चले गये यह अज्ञात है। हो सकता है यह षड़यन्त्र किसी कम्पनी का ही रहा हो जो एयरटेल को डुबाना चाहता हो इससे फायदे भी दो हुए एक इस कम्पनी के खिलाफ लोग उठ खड़े हुए दूसरे मुस्लिम समुदाय की झूठी एकजुटता भी सामने आयी जिसका राजनीतिक लाभ भी राजनीतिक दलों को पंहुच सकता है।

कब तक हम लोग एक छोटी सी छोड़ी गयी चिंगारी को यूं ही हवा देते रहेगें। यह अपने आप में बड़ा सवाल है जिसका हल हमें अपनी ही सोच को संग्रहित कर निकालना होगा नही तो खराब हो चुके हालात बदतर होते चले जायेगें।