लखनऊ! ह्यूमन राईट मानिटरिंग फोरम "26 जून अंतर्राष्ट्रीय यातना दिवस यातना के पीड़ितों के समर्थन में" आज यू.पी. प्रेस क्लब लखनऊ में "पुलिस टार्चर और राज्य की जवाबदेही" विषय पर चर्चा किया।

चर्चा की शुरुआत प्रताड़ना के शिकार पीड़ितों और उनके परिजनों की आप बीती बातों से हुआ जिसमें पुलिस द्वारा फर्जी इनकाउंटर के प्रयास से ज़िंदा बचे संजय गुप्ता ने बताया की उन्हें पांच माह पहले घर की पेंटिंग कराने के बहाने फोन कर शनिदेव मंदिर पराग रोड लखनऊ पर बुलाया जब वह वहा पर पहुचे तो वहां पर पहले से सादे वर्दी में खडे चार पांच लोग जबरन बन्दूक सटाकर उठा ले गए. वह लोग गाडी में भरकर मुठभेड़ करने के लिए लखनऊ में दिन भर घुमाते रहें और शाम को चारबाग नाका पर बने होटल पाल अवध में ले गए वहा पर पहले से दो लडके बैठाये गए थे उस दौरान उनके साथ मारपीट किया गया और वह लोग इनकाउंटर करने के लिए जिला बलरामपुर ले जाने की तैयारी कर रहें थे फिर वह पुलिस को चकमा देकर अपनी जान बचा पाए और इस घटना की शिकायत पुलिस से किया लेकिन आरोपी पुलिस वालों के ऊपर कार्यवाही के जगह उन्ही को डराया धमकाया गया! इसी प्रकार पुलिस प्रताड़ना के शिकार पीड़ित मानव अधिकार कार्यकर्ता मनोज कटियार, रमेश थारु,अजय सहित एनी पीड़ितों ने अपनी आप बीती सुनाई!
चर्चा का संचालन करते हुए ह्यूमन राईट्स मोनिटरिंग फोरम के सचिव अमित ने कहा की उत्तर प्रदेश सहित पूरे देश में लगातार पुलिस प्रताड़ना की घटनाए बढती जा रही हैं और सरकार पीड़ितों की मदद के लिए कोई ठोस उपाय नहीं कर रहीं हैं उन्होंने बताया की पुलिस गिरफ्तारी,हिरासत, पूछताछ की प्रक्रिया को हमेशा नजर अंदाज करती है और आरोपी/अभियुक्त के साथ पुलिस बर्बरतापूर्ण पिटाई करती है जिससे पीडितो कि जान तक चली जाती है ! सरकारी आंकड़ों के अनुसार, 2010 से अब तक लगभग एक हजार से ज्यादा लोगों की पुलिस हिरासत में मौत हो चुकी है! उन्होंने ये भी बताया की पुलिस प्रताड़ना के शिकार पीड़ितों के केस दौरान यह एहसास हुआ कि जो पुलिस अफसर पुलिस हिरासत प्रताड़ना और मौतों की जांच कर रहे होते हैं दरअसल वह अपने सहकर्मियों को बचाने की कोशिश में रहते हैं उन्हें पुलिस प्रताड़ना के शिकार पीड़ितों या उनके परिजनों को न्याय दिलाने में कोई रूचि नहीं होती हैं! प्रताड़ना और दुर्व्यवहार के निवारण के लिए बने नियम-कानूनों का यदि सही तरीके से पुलिस अनुपालन करे तो पुलिस प्रताड़ना को रोका जा सकता है यह तभी हो सकता हैं जब उसे लागू करने वालों की जवाबदेही तय किया जाएगा !

अमर उजाला के वरिष्ठ पत्रकार संजय त्रिपाठी ने कहा की हम मानवाधिकारों की बात जोर से करते हैं लेकिन कर्तव्यों की नहीँ I यही असल वजह है पुलिस उत्पीड़न की, सामान्य व्यक्ति बैंक, नगर निगम, अस्पताल या अन्य सरकारी दफ्तर में बेखटक जाता है लेकिन थाने के गेट पर उसके कदम ठिठक जाते है, पुलिसकर्मी से बात करने में जुबान लडखड़ाती है कलेक्टर से बात करने में नहीँ I ये डर ही पुलिसकर्मी की उत्पीड़न वाली सोच को बढ़ाता है I ज़रूरत मानवाधिकारों के साथ कर्तव्य के प्रति जागरूक होने की है I इसके बाद कोई पुलिसकर्मी किसी को प्रताडित करने की हिम्मत नहीँ जुटा सकेगा I

चर्चा को संबोधित करते हुए विडियो वालंटियर्स के राज्य समन्वयक अंशुमान ने कहा कि पुलिस रेगुलेशन एक्ट 1861 में अग्रेजो द्वारा भारतीयो पर पुलिस का भय कायम कर अग्रेजो द्वारा भारत पर बर्बरतापूर्ण पुलिसिया कार्यवाही कर भय के दम पर ही शासन करने का था उसी सोच के साथ पुलिस रेगुलेशन एक्ट 1861 को बनाया गया था और उसी के अनुसार पुलिसकर्मीयो को प्रशिक्षित भी किया जाता था ! आजादी के बाद भी पुलिस रेगुलेशन एक्ट 1861 में बदलाव ना होने के कारण बर्बरतापूर्ण पुलिसिया कार्यवाही आज तक जारी है, उन्होंने सवाल उठाया कि क्या कारण है कि जिस मामले को पुलिस आरोपितो के ऊपर टार्चर करके भी नही हाल कर पाती है उसी मामले को सीबीआई आरोपितो को बिना टार्चर किये ही हाल कर लेती है ? उन्होंने ने कहा कि पूरा मामला मानसिक सोच और प्रशिक्षण का है यही कारण है कि उत्तर प्रदेश पुलिस मित्र पुलिस के नारे आज बेमानी है ! जब तक उपरोक्त कानून, उसके प्रशिक्षण और पुलिस के सोच में बदलाव नही होगा ! तक मित्र पुलिस का सपना कभी साकार नही होगा!

लखनऊ विश्वविद्यालय के सहायक प्रोफ़ेसर नेहा मिश्र ने बताया की पुलिस दुर्व्यवहार के प्रति जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए भारतीय कानून के तहत पुलिस हिरासत और मुठभेड़ में हुई हरेक मौत की जांच एक न्यायिक दंडाधिकारी (ज्यूडिसियल मजिस्ट्रेट) से कराया जाना अनिवार्य है. पुलिस को एक प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करना होता है, और इस तरह की मौतों की जांच ऐसे पुलिस स्टेशन या एजेंसी द्वारा कराई जाती है जो इसमें संलिप्त न हो लेकिन पुलिस प्रताड़ना के आरोपी पुलिसकर्मियों के खिलाफ शिकायत दर्ज करने में देर करती है या उसका विरोध करती है. यदि किसी दबाव में मुक़दमा दर्ज भी हो जाए तो पुलिस आतंरिक जांच के नाम पर मूल मकसद पर लीपा-पोती कराती है ऐसा नहीं होना चाहिए को इस पर जल्द न्यायिक प्रक्रिया पर कुछ ठोस पहल करने की जरुरत है और इस विषय को किताबो में भी शामिल करना चाहिए!

सामाजिक कार्यकर्ता और एचआरएमएफ के सदस्य सुरेश भारती ने कहा की राष्ट्रीय और राज्य मानवाधिकार आयोग जांच का काम बहुत धीमी गति से कर रहा हैं जो न्याय के लिए बांधा हैं! आयोग द्वारा किसी मामले में जांच और मुआवजे की तो सिफारिश की जाती है, लेकिन आरोपियों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई या मुकदमा चलाने की सिफारिश नहीं किया जाता है और न्याय के लिए लड़ने वाले पीड़ितों,गवाहों और उनके परिजनों की कोई सुरक्षा नहीं होती और आरोपी पुलिस द्वारा शिकायत को वापस लेने या सुलह करने के लिए डराया या धमकाया जाता हैं.

चर्चा में प्रताड़ना के सभी रूपों का पुरजोर विरोध और निंदा करते हुए अंत में पांच सूत्रीय मांग के साथ पुलिस प्रताड़ना के खिलाफ आम जनता में जागरूकता लाने और प्रताड़ना के शिकार पीड़ितों की मदद के लिए एक पर्चा जारी किया गया!

उपरोक्त कार्यक्रम को विधिक सेवा प्राधिकरण के शैलेन्द्र सिंह,ऐडवा की कंचन गुप्ता माधुरी चौहान, सिमरन, च्न्द्रकला,रविन्द्र, जीतेन्द्र थारु, सुरेश, सरला, सोनी,सिमरन, अमृतलाल, इन्द्रजीत, आदि ने भी संबोधित किया कार्यक्रम में सहित सैकड़ों लोग उपस्थित थे !