क्रिकेटर गौतम गंभीर गंभीर विषयों पर अपनी राय हमेशा रखते हैं। इस बार उन्होंने देश में महिला अपराध की बढ़ती संख्या पर चिंता प्रकट की है। गौतम गंभीर ने इस मुद्दे पर अपनी चिंता जाहिर करते हुए कहा कि ‘मुझे डर लगता है कि कही एक दिन मेरी बेटी मुझसे ‘रेप’ (दुष्कर्म) शब्द का मतलब ना पूछ दे’। गौतम गंभीर ने बतलाया कि जब मैं 14 साल का था तब मुझे ‘रेप’ शब्द के बारे पहली बार पता चला। क्रिकेटर ने कहा है कि 1980 में रिलीज हुई फिल्म ‘इंसाफ का तराजू’ मेरे जन्म के एक साल बाद रिलीज हुई थी। मुझे याद नहीं कि मैंने यह फिल्म दूरदर्शन पर देखी है या फिर किसी वीडियो टेप में।

लेकिन मुझे फिल्म के बारे में याद है कि यह दो रेप पीड़ितों की कहानी पर आधारित फिल्म है। फिल्म में रेपिस्ट की भूमिका राज बब्बर ने निभाई थी। अत्याचार के बाद महिला को संतुष्टि तब ही मिलती है जब वो रेपिस्ट रमेश की हत्या कर देती हैं। आज बच्चों के साथ घिनौनी रेप की वारदातें अखबारों में हर रोज सुर्खियां बन रही हैं मुझे डर लगता है कि एक दिन मेरी बेटी मुझसे रेप शब्द का मतलब ना पूछ दे। 4 और 11 साल की दो बेटियों के पिता होने पर मुझे खुशी भी है तो थोड़ा असहज भी हूं। खुशी इस बात की है कि स्कूल में उन्हें ‘गुड टच’ और ‘बैड टच’ के बारे में बतलाया जाता है, लेकिन थोड़ा हिचकिचाहच इसलिए है क्योंकि रेप जैसे अपराध रोज हो रहे हैं।

क्रिकेटर ने नेश्नल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों का उल्लेख करते हुए लिखा है कि एनसीआरबी के मुताबिक पिछले 10 सालों में बच्चों के साथ यौन अपराधों के मामलों में 336 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। 2016 में 19,765 रेप के मामले दर्ज हुए जबकि 2015 में 10,854 मामले। मुझे एहसास है कि यह हालत तब है जबकि ऐसे कई सारे मामलों में तो एफआईआर तक दर्ज नहीं कराए जाते। कठुआ गैंगरेप का जिक्र करते हुए इस खिलाड़ी ने लिखा है कि निठारी,कठुआ, उन्नाव और इंदौर जैसे ऐसे अनेकों मामले हैं जिनपर हम शर्मिंदा हुए हैं। मेरे विचार से ऐसे लोग आतंकवादियों से ज्यादा खतरनाक हैं।

ऐसे लोगों को रेपिस्ट की बजाए किसी और मजबूत शब्द से बुलाया जाना चाहिए। हिंदुस्तान टाइम्स में लिखे एक आलेख में उन्होंने केंद्र सरकार द्वारा रेप के मामलों में लाए गए नए अध्यादेश का उल्लेख करते हुए कहा है कि सरकार ने अब 12 साल से कम उम्र के बच्चों के साथ दुष्कर्म करने वालों के खिलाफ मौत की सजा का प्रावधान किया है। उन्होंने सरकार के इस फैसले की आलोचना करते हुए कहा कि रेप, रेप ही होता है। फिर ऐसे मामलों में दोषियों को पीड़िता की उम्र के हिसाब से सजा क्यों? अपने लेख में कुछ गंभीर सवाल उठाते हुए गौतम ने कहा कि क्या हमारे पास रेप क्राइसिस सेंटर हैं?

नहीं है। जेएस वर्मा कमेटी की अनुशंसा के मुताबिक हमारे पास ऐसे मामलों के निपटारे के लिए पर्याप्त फास्ट ट्रैक कोर्ट हैं? नहीं हैं। क्या थानों में पर्याप्त संख्या में महिला पुलिसकर्मी हैं? नहीं हैं। खासकर जो महिलाएं या बच्चे दिव्यांग हैं उनकी सुरक्षा के लिए पर्याप्त उपाय किये गये हैं। एक सबसे अहम सवाल उठाते हुए गंभीर ने लिखा है कि कोई सरकार अपने राजनीतिक हित को ऐसे मामलों में कैसे दूर रख सकती है जब ऐसा अपराध करने वाला कोई राजीतिक शख्स हो? उन्नाव और कठुआ को देखने के बाद हम सब इसका जवाब जानते हैं।

एक पिता के तौर पर ना तो मैं मृत्युदंड देने वाले अध्यादेश के खिलाफ मानवाधिकार संगठनों द्वारा निकाले जा रहे कैंडल मार्च को सपोर्ट करता हूं और ना हीं मैं यह मानता हूं कि सरकार का यह अध्यादेश ऐसे अपराधों के खिलाफ काफी है? बेहद संजीदगी के साथ इस मुद्दे पर लिखते हुए गौतम गंभीर ने कहा है कि इसमे हमारी गलती ज्यादा है? घर से लेकर ऑफिस और यहां तक की फिल्म इंडस्ट्री भी अब इससे अछूती नहीं है। यह अब जिंदगी का हिस्सा बनता जा रहा है।