-रविश अहमद

राजनीतिज्ञों की राह भारत में बेहद आसान है, जनप्रतिनिधियों को जवाबदेही का डर नही है, विशेषतः सत्तासीन लोगों को साम-दाम-दंड-भेद करने में स्वतः मदद मिलने लगती है क्योंकि उच्च स्तर पर कुछ लोग हमेशा सत्ता के बाहर से सत्ता पक्ष के लोगों के लिये कार्य करते हैं। आम आदमी की समझ से यह बाहर है लेकिन आप क्रान्तियों या आन्दोलनों का पिछले 15 वर्षों का आंकलन करें और स्वयं उस आन्दोलन या क्रान्ति के विषय में सोचें जो कामयाब रही हो।

ज़्यादा पीछे न जाते हुए केवल 5-6 वर्षों के भीतर हुए अन्ना के आन्दोलन से आंकलन करते हैं, यूपीए सरकार के कार्यकाल में भ्रष्टाचार के विरूद्ध लोकपाल की नियुक्ति को लेकर अन्ना हज़ारे के नेतृत्व में आन्दोलन शुरू हुआ जिसको वर्तमान सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी का पूर्ण समर्थन था। तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष से लेकर वर्तमान में कई केन्द्रीय मंत्री अन्ना के तत्कालीन आन्दोलन में भागीदार रहे, लेकिन लोकपाल न तब मिला था न हाल में अन्ना के पुनः अनशन करने पर मिला जो मिला वह सत्ता परिवर्तन पर भी ज्यों का त्यों है मतलब आश्वासन। कोई ऐसी घटना या मुद्दा यकायक सामने आ जाता है कि तमाम क्रान्तिवीर अपना आन्दोलन छोड़ नये मुद्दे में क्रान्ति करने लगते हैं। अन्ना हज़ारे के सबसे बड़े सहयोगी अरविंद केजरीवाल ने भी शायद आन्दोलन के हश्र को भांपते हुए सत्ता तक पंहुच कर कुछ करना ही उचित समझा और हुआ भी यही आन्दोलन आज भी परोक्ष रूप में जारी है जबकि अरविन्द केजरीवाल दिल्ली के मुख्यमंत्री बनकर अपने हिसाब से जनसेवा या फिर राज कर रहे हैं। अरविन्द केजरीवाल की सरकार सही है या ग़लत यह हमारे आंकलन का विषय नही है इसलिये केजरीवाल को केवल मिसाल के तौर पर पेश किया है। ठीक इसी दौरान एक दूसरा आन्दोलन होता है कालाधन के ख़िलाफ जिसके नायक थे योग गुरू बाबा रामदेव। बाबा रामदेव के खिलाफ सरकार का रवैया इतना दमनात्मक था कि उन्हें वेश-भूषा बदलकर आन्दोलन छोड़ भागना पड़ा था। उस समय बाबा रामदेव को सहयोग कर रही भाजपा अब सत्ता में है कालाधन भी वापस नही आया किन्तु बाबा रामदेव को शायद अहसास हो गया होगा कि इसका हश्र क्या होने वाला है लिहाज़ा उन्होने भी अपने कारोबार पर ही ध्यान देना उचित समझा।

उपरोक्त दोनों क्रान्तियां या आन्दोलन राष्ट्रीय स्तर पर यूपीए यानी कांग्रेस के कार्यालय में हुई थी जिनका कोई नतीजा नही निकला उल्टे क्रान्तिवीरों ने मैदान छोड़ दिया। अब आप मणिपुर की मानवाधिकार कार्यकर्ता इरोम शर्मिला के विषय में भी ध्यान दीजिए बिना मांगे पूरी हुए इरोम शर्मिला को बेहद दुखःद अन्त के साथ अपने आमरण अनशन को 16 वर्षों के बाद बिना किसी आश्वासन के स्वयं ख़त्म करना पड़ा और फिर वह राजनीति का रूख कर गयी यहां भी इरोम शर्मिला को उसी जनता ने शर्मिन्दा किया जिसके हक़ों के लिये वह 16 वर्षों तक अनशन करती रही, जब विधानसभा चुनाव में उनकी ज़मानत तक ज़ब्त हो गयी।

वर्तमान कथित किसान हितैषी सरकार में दक्षिण भारतीय तमिलनाडू के किसानों का देश की राजधानी में लम्बा आन्दोलन चला, आन्दोलन और किसानों की दुर्दशा का अन्दाज़ा इस बात से लगाईये कि यहां सुनवाई न होते देख किसानों ने विरोध में मूत्र तक पिया किन्तु सरकार के कानों पर जूं तक नही रेंगी।

इसके बाद पूरे उत्तर भारत से अपनी मांगों को लेकर योगेन्द्र यादव और अन्य किसान नेताओं के नेतृत्व में लाखों की संख्या में किसान दिल्ली को घेरते हैं लेकिन नतीजा सिफर माने शून्य।
ज़्यादा पीछे न जाकर हाल ही में महाराष्ट्र के किसान सरकार से राहत न मिलते देख करीब 35 हज़ार की संख्या में मार्च निकालते हैं बदले में मिलता है आश्वासन और फिर मुद्दे गायब। जी हां यही कमाल हैं सत्ता पक्ष के कि सरकार किसी भी दल की हो कुर्सी का ख़ुमार कुछ ऐसा होता है कि आन्दोलनों या कथित क्रान्तियों को बखूबी रौंद दिया जाता है और लोग दूसरे मामलों में उलझा दिये जाते हैं।
यह सब कुछ खास लोग किया करते हैं जिनमें कुछेक कार्पोरेट, एनजीओ और पत्रकार लोग सरकार के लिये मुद्दे बदलने की भूमिका निभाते हैं, और आजकल तो सोशल नेटवर्किंग का ज़माना है जहां मुद्दे बनाने और बिगाड़ने का काम चन्द सैकंडों में हो जाता है।

हाल ही में बलात्कार की शर्मसार करने वाली कुछ घटनाएं सामने आयी तो जनता सड़कों पर उतर पड़ी। सोशल मीडिया पर क्रान्ति ने पैर पसार लिये लेकिन कुछ ही दिनों में तमाम क्रान्तिकारी वीर एएमयू में जिन्ना की तस्वीर के विरोध एवं समर्थन में उतर आये क्रान्तिकारियों को पता भी नही चला और मुद्दा पाकिस्तान से चीनी लाने का बदल चुका था। अब तमाम क्रान्तिकारी पाकिस्तान के साथ इस सरकारी दया दृष्टि के विरोध में उठ खड़े हुए।

बाकी आप खुद भी ऐसी किसी क्रान्ति या आन्दोलन के विषय में जानकारी जुटाएं जो कम से कम आधुनिक भारत के पिछले 15 वर्षों में कभी कामयाब रही हो।

जनता को सरकार के कामकाज और तौर तरीकों पर विरोध बन्द कर देना चाहिये और उस ऊर्जा को कहीं और इस्तेमाल करना चाहिये क्योंकि सरकारें अपने विरोध में उठने वाली किसी भी आवाज़ को बड़े सलीके से दबाने का हुनर जानती हैं, दबाव कम होगा तो शायद सरकारें भी दया दृष्टि के तहत बेहतर ईनाम दे सकें या फिर आन्दोलनों में अपनी भूमिका को इस अन्दाज़ से परिणाम तक निभायें कि हर जायज़ मांग को सरकार पूरा करे।