-एस.आर.दारापुरी, भूतपूर्व पुलिस महानिरीक्षक एवं संयोजक, जनमंच उत्तर प्रदेश

उत्तर प्रदेश की राजनीति में हाल के उपचुनावों के परिणामों के बाद सपा, बसपा के गठबंधन के भविष्य, संभावनाएं एवं संभावित खतरों की चर्चा बहुत जोर शोर से चल रही है. उपचुनाव में बसपा द्वारा सपा के समर्थन से दो सीटें जीतने को उत्तर प्रदेश की राजनीति में नए परिवर्तन के रूप में देखा जा रहा है. यह भी कहा जा रहा है कि यदि 2019 में भी सपा और बसपा का यह गठबंधन कायम रहे तो इससे भाजपा के लिए बहुत बड़ी चुनौती खड़ी हो सकती है. कुछ अतिउत्साही लोगों का तो यहाँ तक कहना है कि इससे न केवल उत्तर प्रदेश बल्कि शेष भारत में भी भाजपा को हराया जा सकता है. कुछ लोग इसे 1993 के गठजोड़ की पुनरावृति के रूप में भी देख रहे है.

अतः उपरोक्त उत्साहपूर्ण परिस्थितियों में यह देखना ज़रूरी है कि वर्तमान राजनीतिक माहौल में सपा-बसपा गठबंधन की सम्भावना क्या है? हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हाल के उपचुनाव में सपा- बसपा का गठजोड़ निस्वार्थ नहीं था. मायावती ने सपा को समर्थन इस शर्त पर दिया था कि वह राज्यसभा चुनाव में बसपा के प्रत्याशी को जिताने के लिए अपने विधायकों के फालतू वोट बसपा प्रत्याशी को देगी. बहरहाल बसपा के समर्थन से सपा गोरखपुर और फूलपुर की दोनों लोकसभा सीट जीतने में सफल रही परन्तु भाजपा की तगड़ी सेंधमारी के कारण राज्यसभा चुनाव में सपा के समर्थन के बावजूद बसपा प्रत्याशी हार गया. अतः उपचुनाव के दौरान बसपा का समर्थन राज्यसभा के चुनाव में सपा के समर्थन से सीधा जुड़ा हुआ था. एक तरीके से यह समर्थन सशर्त था.

उपचुनाव के बाद सपा–बसपा के कार्यकर्ताओं द्वारा आगामी चुनाव के लिए भी आपसी गठजोड़ की मांग को जोर से उठाया गया है. अब तक मायावती और अखिलेश ने भी राज्यसभा में हार के बावजूद भविष्य में गठबंधन को बनाये रखने की बात कही है. इस सन्दर्भ में 1993 का गठबंधन जिसके बाद उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा की मिलीजुली सरकार बनीं थी, के इतिहास को भी देखना होगा. उस समय भी दलितों और पिछड़ों की सरकार बनने से इन वर्गों में बहुत उत्साह पैदा हुआ था और पिछड़ी जातियां ख़ास करके यादव और कुर्मी सामाजिक भेद भाव भूल कर राजनीतिक स्तर पर दलितों के नजदीक आये थे और इससे राष्ट्रीय स्तर पर नए राजनीतिक समीकरण की सम्भावना बनती दिखाई दे रही थी. परन्तु उक्त गठजोड़ शीघ्र ही व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं की भेंट चढ़ गया. इस विघटन के पीछे उस समय भी भाजपा की मुख्य भूमिका थी क्योंकि इससे उसे अपना भविष्य धूमिल होता दिखाई दे रहा था. अतः उसने कांशी राम को मायावती को मुख्य्मंत्री बनाने का लालच देकर मुलायम सिंह की सरकार गिराने के लिए प्रेरित किया. गेस्ट हाउस काण्ड तो केवल निमित मात्र था जबकि उसमें भी भाजपा की बहुत बड़ी भूमिका थी.

गेस्ट हाउस काण्ड के बाद भाजपा ने दलितों और पिछड़ों खास करके यादव जातियों और चमार जाति में अधिक से अधिक दुश्मनी और दूरी पैदा करने की कोशिश की और दुर्भाग्यवश कांशी राम और मायवती उनके इस कुचक्र में बुरी तरह से फंस गये. नतीजतन जिन्हें कुदरती दोस्त होने के नाते बड़े दुश्मन के खिलाफ एकजुट होना चाहिए था वे आपस में ही उससे से भी बड़े दुश्मन बन गये. यह भाजपा की दलितों-पिछड़ों के सामाजिक तथा राजनीतिक गठजोड़ को ध्वस्त करने की सबसे बड़ी सफलता थी. इतना ही नहीं इसके बाद भाजपा की बराबर कोशिश रही कि दलितों और पिछड़ों का पुराना गठजोड़ किसी भी तरह से पुनर्जीवित न हो पाए. इसके बावजूद भी 1996 में सपा के कुछ दलित विधायकों द्वारा मुलायम सिंह की अनुमति से पुनः गठजोड़ करने हेतु दिल्ली जाकर कांशी राम से बातचीत की गयी थी. आश्चर्यजनक तौर पर कांशी राम इसके लिए राजी हो गए थे और उन्होंने उसी दिन दिल्ली में इसकी घोषणा भी कर दी. उस दिन मायावायी लखनऊ में थी और उसने अगले दिन यह कह कर कि ”इसका सवाल ही पैदा नहीं होता” इसका प्रतिकार कर दिया और उस समय भी उक्त गठबंधन पुनर्जीवित होते होते मर गया. यह इस लिए हुआ क्योंकि उस समय मायावती पूर्णतया भाजपा के प्रभाव में थी और कांशी राम मायवती के मुख्यमंत्री बन जाने के बाद काफी कमज़ोर स्थिति में आ गये थे. इस प्रकार 1996 में भी उक्त गठबंधन बीजेपी के कारण पुनर्जीवित होने से रह गया. इसके बाद भाजपा ने दोबारा दो बार मायावती को केवल इस आशय से समर्थन दिया कि कहीं सपा-बसपा गठबंधन पुनर्जीवित न हो जाये और इसमें वह पूरी तरह से सफल भी रही थी.

वर्तमान में भाजपा केंद्र तथा उत्तर प्रदेश में भारी बहुमत से सरकार चला रही है. भाजपा मायवती की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा को भी पूरी तरह से जानती है और मायवती की कमजोरियों को भी. यह सर्वविदित है कि मायावती और उसका भाई आनंद कुमार भ्रष्टाचार के कई मामलों में बुरी तरह से फंसा हुआ है और सीबीआई और ईडी का फंदा भाजपा के हाथ में है. ऐसा हो सकता है कि मोदी सरकार लालू प्रसाद की तरह सीबीआई का फंदा मायावती पर भी कसने लगे. क्या ऐसी परिस्थिति में मायावती इसी प्रकार की स्वतंत्र राजनीति करने का साहस दिखा पाएगी और सपा के साथ आसानी से गठजोड़ कर पायेगी?

भाजपा की अब तक यह कोशिश रही है कि अगर मायवती उसके साथ खुले गठबंधन में नहीं आती तो उसे किसे दूसरे के साथ भी गठबंधन न करने दिया जाये. उसकी हमेशा कोशिश रही है कि मायावती सभी सीटों पर अकेली लड़े ताकि उसका दलित वोट किसी दूसरी पार्टी खास करके कांग्रेस को न जाये. अब तक के सभी लोकसभा तथा विधानसभाओं के चुनाव में यही स्थिति देखने को मिली है. इससे भाजपा को दोहरा लाभ होता है. एक उसका अपना प्रतिबद्ध वोट तो उसे मिलता ही है दूसरे वह मायावती के माद्यम से दलित वोट कांग्रेस को जाने से रोकने में भी सफल रहती है जैसा कि पिछले गुजरात चुनाव में भी देखा गया है. अतः भाजपा संभावित सपा-बसपा गठबंधन को रोकने के लिए मायावती पर दबाव बना कर उसे अकेले ही सभी सीटों पर लड़ने के लिए बाध्य कर सकती है. यह भी उल्लेखनीय कि मायावती इससे पहले सत्ता पाने के लिए तीन बार भाजपा से गठजोड़ कर चुकी है. कुछ लोगों की आशंका है कि वह चौथी बार ऐसा नहीं करेगी, की भी कोई गारंटी नहीं है.

अब तक यह स्पष्ट हो चुका है कि वर्तमान में भाजपा को मायावती की सोशल इन्जीनीरिंग से कोई खतरा नहीं है क्योंकि उसने भी उसी फार्मूले का इस्तेमाल करके दलितों और पिछड़ों के बहुत बड़े हिस्से को वृहद हिंदुत्व के छाते के तले ले लिया है. इसके परिणामस्वरूप अब सपा के साथ पिछड़ों में केवल यादव ही प्रमुख वर्ग बचा है और अतिपिछड़ों का बड़ा हिस्सा भाजपा के पास चला गया है. इसी प्रकार बसपा के दलित मतदाताओं का भी बहुत बड़ा हिस्सा चमार/जाटव उपजाति को छोड़कर हिंदुत्व के छाते तले भाजपा के साथ जा चुका है जैसा कि पिछले लोकसभा एवं विधानसभा चुनाव से स्पष्ट हो चुका है. अतः इस समय यह कहना कि सपा- बसपा गठजोड़ से पिछड़ा और दलित वर्ग उसी संख्या में एकजुट हो जायेगा जितना कि वह 1993 में था, केवल दिवास्वपन होगा और यथार्थ से कोसों दूर. ऐसी परिस्थिति में अगर किसी तरह सपा-बसपा गठबंधन बनता भी है तो बहुत मजबूत नहीं होगा जब तक अपने जाति वोट के इलावा इसमें दूसरी जातियों/वर्गों के वोट नहीं मिलते.

उपरोक्त वर्णित परिस्थियों में यह प्रशन पैदा होता है कि क्या सपा–बसपा का जातिगत गठजोड़ भाजपा को हराने में सक्षम होगा? क्या उनके गठजोड़ की घोषणा मात्र से सभी दलित, पिछड़े और मुसलमान बड़ी संख्या में इसके साथ आ जायेंगे? क्या सपा- बसपा उन पिछड़ों और दलितों को जो वृहद हिंदुत्व के छाते तले भाजपा में चले गये हैं, आसानी से अपनी पार्टियों में वापस ला पाएगी? क्या जाति की राजनीति की काट जाति की राजनीति से हो पाएगी? वास्तव में अब तक की जाति की राजनीति ने हिंदुत्व को कमज़ोर करने की बजाये उसे मजबूत ही किया है जिसका फायदा भाजपा ने उठाया है. यह भी एक सत्य है कि जिस प्रकार कांग्रेस हिंदुत्व की राजनीति में भाजपा को नहीं हरा पायी है उसी तरह जाति की राजनीति जो कि हिंदुत्व की पोषक है में सपा-बसपा गठबंधन भी उसे हरा नहीं पाएगी. अतः सपा-बसपा गठबंधन के सामने सबसे बड़ी चुनौती अपने से अलग हुए वोट बैंक को भाजपा से वापस छीनने की होगी और क्या वह केवल गठजोड़ हो जाने से ही वापस आ जायगा? भाजपा की वर्तमान साम,दाम, दंड,भेद की राजनीति के सामने यह आसान नहीं लगता.

यह भी उल्लेखनीय है कि जाति की राजनीति जातिगत भावनाओं के जोड़तोड़ की राजनीति है जिसमे जातिहितों के टकराव और अलगाव की भी प्रमुख भूमिका रहती है. अब तक भाजपा जातिगत भावनाओं को भुनाने का हुनर बहुत अच्छी तरह से सीख चुकी है. अतः अब जातिगत गठजोड़ और टकराव को तोड़ने के लिए जातिगत भावनाओं को भुनाने के स्थान पर वर्गहित को आगे लाने की जरूरत है. इसके लिए ज़रूरी है कि वर्तमान जाति आधारित गठजोड़ के एजंडा की बजाये वर्गहित आधारित राजनीतिक एजंडा आगे लाया जाये जो बेरोज़गारी, गरीबी, कृषि संकट, निजी क्षेत्र में आरक्षण,आदिवासी समस्या, स्वास्थ्य एवं शिक्षा के निजीकरण को रोकने और सामाजिक न्याय के मुद्दों को प्रमुखता से आगे लाया जाये. इसके साथ ही वर्तमान सरकार की कार्पोरेट परस्त नीतियों के स्थान पर वैकल्पिक नीतियों को लाने की भी ज़रुरत है. मेरा यह निश्चित मत है कि केवल इस प्रक्रिया द्वारा ही सपा-बसपा वर्गहित को आधार बना कर अपने खोये हुए वोट बैंक को भाजपा की झोली से वापस लाने में सीमित सफलता प्राप्त कर सकती है. डॉ. आंबेडकर ने भी कहा है- “जो राजनीति वर्गहित की बात नहीं करती वह धोखा है.” क्या अब तक जातिगत जोड़तोड़ करके सत्ता की दौड़ में लगी रही सपा और बसपा अपनी कार्यशैली में उक्त आमूलचूल परिवर्तन ला पायेगी? इसमें कोई संदेह नहीं कि अगर सपा-बसपा जाति की राजनीति को त्याग कर वर्गहित की राजनीती का राजनीतिक एजंडा अपनाती है तो वह भाजपा को 2019 में पुनः सत्ता में आने से काफी हद तक रोकने में सफल हो सकती है. मायावती और अखिलेश को यह भी याद रखना चाहिए कि यह उनके लिए अपना अस्तित्व बचाने का आखिरी मौका है.