आशीष वशिष्ठ

सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसले में मरणासन्न व्यक्ति द्वारा इच्छा मृत्यु के लिए लिखी गई वसीयत (लिविंग विल) को दिशा-निर्देश के साथ कानूनी मान्यता दे दी है। जीवन की तरह ही मरने को भी अधिकार मानने की आवेदनों पर चली लंबी व पेचीदा कानूनी जिरह के उपरांत आखिर सर्वोच्च न्यायालय ने जीने के अधिकार को और विस्तृत करते हुए गरिमापूर्ण मृत्यु से जोड़ते हुए कहा कि स्वस्थ रहते हुए व्यक्ति इच्छा मृत्यु की वसीयत भी कर सकता है। इस मसले का आधार वे लोग हैं जिनके लिए जिंदा रहना केवल सांस चलना जाता है। अस्पताल में वेंटीलेटर या अन्य जीवन सहायक प्रणाली पर पड़े-पड़े व्यक्ति का जीवन एक तरह से उद्देश्यहीन रह जाता है। सुप्रीम कोर्ट के फैसले का लबोलुबाब यह है कि व्यक्ति को गरिमा के साथ मरने का अधिकार है।

यह मुद्दा तब देश भर में बहस का विषय बना था जब मुंबई की नर्स अरुणा शानबाग की दयामृत्यु के लिए याचिका दायर की गई थी। बलात्कार और हत्या के प्रयास की शिकार अरुणा चालीस साल तक एक अस्पताल में बेहोशी की हालत में रहीं। उन्हें सामान्य अवस्था में ला सकने की सारी कोशिशें निष्फल हो चुकी थीं। लगभग 35 साल से कोमा में पड़ी मुंबई की नर्स अरुणा शानबॉग को इच्छा मृत्यु देने से सुप्रीम कोर्ट ने 2011 में इनकार कर दिया था। सर्वोच्च न्यायालय का ताजा फैसला ऐतिहासिक भी है और दूरगामी महत्त्व का भी। इस फैसले ने एक प्रकार से गरिमापूर्ण ढंग से जीने के अधिकार पर मुहर लगाई है। हमारे संविधान के अनुच्छेद इक्कीस ने जीने के अधिकार की गारंटी दे रखी है। लेकिन जीने का अर्थ गरिमापूर्ण ढंग से जीना होता है। और, जब यह संभव न रह जाए, तो मृत्य के वरण की अनुमति दी जा सकती है।

एनजीओ कॉमन कॉज ने 2005 में इस मसले पर याचिका दाखिल की थी। कॉमन कॉज के वकील प्रशांत भूषण ने कहा कि गंभीर बीमारी से जूझ रहे लोगों को श्लिविंग विलश् बनाने का हक होना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद अब कोई मरणासन्न शख्स ‘लिविंग विल’ के जरिए अग्रिम रूप से बयान जारी कर यह निर्देश दे सकता है कि उसके जीवन को वेंटिलेटर या आर्टिफिशल सपॉर्ट सिस्टम पर लगाकर लम्बा नहीं किया जाए। इच्छामृत्यु या दयामृत्यु के पक्ष में सर्वोच्च न्यायालय ने अपनी टिप्पणी में कहा कि मरणासन्न व्यक्ति को यह अधिकार होगा कि कब वह आखिरी सांस ले। कोर्ट ने कहा कि लोगों को सम्मान से मरने का पूरा हक है। वास्तव में ‘लिविंग विल’ एक लिखित दस्तावेज होता है जिसमें कोई मरीज पहले से यह निर्देश देता है कि मरणासन्न स्थिति में पहुंचने या रजामंदी नहीं दे पाने की स्थिति में पहुंचने पर उसे किस तरह का इलाज दिया जाए। ‘पैसिव यूथेनेशिया’ यानी कोमा में पड़े मरीज का लाइफ सपॉर्ट सिस्टम हटाने की वह स्थिति है जब किसी मरणासन्न व्यक्ति की मौत की तरफ बढ़ाने की मंशा से उसे इलाज देना बंद कर दिया जाता है। सर्वोच्च न्यायालय का यह फैसला भारतीय सन्दर्भों में नया हो सकता है किंतु विश्व के तमाम देशों में तत्सम्बन्धी व्यवस्था पहले से ही लागू है।

भारतीय जीवन पद्वति में तेजी से आ रहे बदलाव एवं अर्थप्रधान युग में देश में एकाकी परिवारों की संख्या बढ़ती जा रही है। संयुक्त परिवारों की गिनती तो अंगुलियों पर गिनने लायक ही बची है। इस फैसले को सामाजिक संदर्भाें में मद्देनजर देखें तो अब प्राचीन भारतीय जीवन पद्धति के अनुसार वानप्रस्थ की व्यवस्था भी नहीं रही। औसत आयु बढने और एकाकी परिवारों की वजह से भी वृद्धावस्था सुख की बजाय एक समस्या बनती जा रही है। माता-पिता को बोझ मानने वालों की बढ़ती संख्या ने वृद्धाश्रम को एक अनिवार्य आवश्यकता बना दिया है। इसकी वजह से ऐसे बुजुर्गों की संख्या में तेजी से बढ़ोतरी हो रही है जिन्हें अकेलेपन और बीमारी के कारण जिन्दगी बोझ लगने लगी है और इस कारण से बरबस उनके मुंह से निकलता है, भगवान उन्हें उठा क्यों नहीं लेता। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय का सन्दर्भित फैसला किसी को आत्महत्या की अनुमति नहीं देता। इच्छा मृत्यु की व्यवस्था उसी सूरत में वैध होगी जब इंसान का जिंदा रहना असहनीय या निरर्थक रह जाए। मसलन पूर्व केन्द्रीय मंत्री प्रियरंजन दास मुंशी लम्बे समय तक कोमा में पड़े रहे। चूंकि उनके इलाज पर करोड़ों रुपये भारत सरकार खर्च कर रही थी इसलिए वे कोमा जैसी स्थिति में भी जीवनरक्षक प्रणाली की मदद से कई वर्षों तक जीवित रखे गए। वर्तमान में पूर्व केंद्रीय मंत्री जॉर्ज फर्नांडीज, जसवंत सिंह और यूपी के पूर्व मंत्री वकार अहमद शाह भी उसी स्थिति में हैं जिसे सामान्य बोलचाल की भाषा में जिंदा लाश कहा जाता है।

सर्वोच्च न्यायालय के फैसले की भावना मुख्यरूप से इच्छा मृत्यु को उन परस्थितियों में वैधानिक स्वरूप देने की है जब सांसों का सफर बोझ से भी बढ़कर असहनीय अथवा निरर्थक होकर रह जाए। महाभारत काल में भीष्म पितामह को इच्छा मृत्यु का वरदान होने से उन्होंने सूर्य के उत्तरायण तक आने की प्रतीक्षा की और फिर प्राण त्यागे। अनेक जैन मुनि भी मृत्यु की कामना से अन्न जल त्याग देते हैं। कुल मिलाकर सर्वोच्च न्यायालय ने इच्छा मृत्यु के साथ सम्मानजनक शब्द जोड़कर काफी कुछ स्पष्ट तो कर दिया है किन्तु सरकार के लिए इस बारे में कानून बनाना आसान नहीं है क्योंकि इच्छा मृत्यु की वसीयत या असामान्य परिस्थितियों में उसके निर्णय का अनुचित उपयोग न हो ये चिंता करना ही होगीं।

अक्सर पढ़ने-सुनने में आता है कि पारिवारिक धन-संपत्ति हासिल करने के लिए भाई-भाई में विवाद हो गया है, माता-पिता से भी रंजिश हो जाती है। कई बुजर्गों की तो इस कारण हत्या तक कर दी गई। वृद्धावस्था में बेसहारा होने के भय से अनेक बुजुर्ग दंपत्ति बेटे-बहू के अत्याचार सहने बाध्य होते हैं। सरकार को सर्वोच्च न्यायालय की मंशानुसार इच्छा मृत्यु सम्बन्धी कानून बनाने से पहले उन सभी परिस्थितियों का अनुमान लगा लेना चाहिए उसकी वसीयत को लेकर उत्पन्न हो सकती हैं क्योंकि हमारे यहां की सामाजिक और पारिवारिक स्थितियां पश्चिमी देशों और संस्कृति से काफी हद तक अलग हैं।

भारत में विभिन्न मानव अंगों के दान से संबंधित कानून हैं, और ये कानून यही जताते हैं कि हर व्यक्ति का अपने शरीर पर अधिकार है। सर्वोच्च न्यायालय के ताजा फैसले ने भी इसी की पुष्टि की है। अब इस संबंध में कानून बनाने की जिम्मेदारी संसद की है, और केंद्र सरकार को इस बारे में पहल करनी चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाले पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने सुनाया है, जिसके मुताबिक दयामृत्यु की इजाजत कुछ विशेष परिस्थितियों में दी जा सकती है। इजाजत के लिए अदालत ने उचित ही कई कठोर शर्तें लगाई हैं और कहा है कि जब तक इस संबंध में संसद से पारित होकर कानून लागू नहीं हो जाता, तब तक ये दिशा-निर्देश लागू रहेंगे।

वर्तमान अर्थप्रधान युग में जब रिश्तों की अहमियत और पवित्रता पर स्वार्थ, लोभ-लालच का मुलम्मा चढ़ गया हो तब इच्छा मृत्यु की वसीयत जबरन मृत्यु का औजार न बन जाए ये चिंता का विषय है। परिवार के बुजुर्गों की सेवा को कर्तव्य की बजाय बोझ मानने वाली पीढ़ी इस फैसले का अपने स्वार्थ हेतु दुरुपयोग न करे इसकी फिक्र भी कानून बनाते समय ही करनी होगी, वरना कहीं ऐसा न हो कि इच्छा मृत्यु की आड़ में जबरन मृत्यु गले में डाल दी जाए।

सर्वोच्च न्यायालय के फैसले का आशय मृत्यु को व्यक्ति की मनमर्जी पर छोड़ देने का कदापि नहीं है। इसका उद्देश्य उन लोगों को इच्छा मृत्यु का अधिकार देना मात्र है जिनके लिए जिन्दगी एक बोझ बन जाए या उसका कोई अर्थ ही न रहे। देश में अनगिनत लोग ऐसे होंगे जिनकी सांस तो चल रही है लेकिन आस खत्म हो चुकी है। अक्सर सुनाई देता है कि फलां व्यक्ति की जिंदगी नर्क बनकर रह गई है। यद्यपि इसका आशय अलग-अलग होता है फिर भी निरुद्देश्य और निरर्थक जीवन चूंकि मृत्यु से भी बदतर होता है इसलिए जैसा सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि सम्मानजनक मृत्यु भी एक तरह का मौलिक अधिकार होना चाहिए। इस हेतु स्वस्थ अवस्था में ही वसीयत कर देने की सहूलियत देकर सर्वोच्च न्यायालय ने जो व्यवस्था की वह काफी हद तक उचित है किंतु देखने वाली बात ये होगी कि कोमा की स्थिति में आ चुके किसी व्यक्ति का इलाज कराने में असमर्थ परिजन इस प्रावधान का दुरूपयोग न कर सकें।