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यूपीकोका के जरिए अपने खिलाफ उठने वाली आवाजों का गला घोटने पर उतारु योगी सरकार: रिहाई मंच

लखनऊ: रिहाई मंच ने कहा कि सरकार के खिलाफ उठने वाली आवाजों को हिंसक करार देकर योगी सरकार यूपीकोका के जरिए लोकतंत्र का गला घोटने पर उतारु है। मंच ने कहा की जिस प्रदेश का मुखिया कहता हो कि अपराधी जेल में जाएंगे या मारे जाएंगे उससे साफ हो जाता है की सूबे में अराजकता का दौर चल रहा है। जब राज्य मानवाधिकार आयोग पुलिस के खिलाफ सबसे अधिक शिकायत होने की बात कहता हो और प्रतिदिन एक हिरासत में मौत होती हो वहां प्रशासन के हाथों में यूपीकोका आने से प्रदेश के आम नागरिक असुरिक्षत महसूस करेंगे।

रिहाई मंच अध्यक्ष मुहम्मद शुऐब ने कहा कि यूपीकोका में आरोपी को अपनी बेगुनाही साबित करने की शर्त साफ करती है कि यह निरंकुश टाडा-पोटा जैसे गैरलोकतांत्रिक कानूनों की ही अगली कड़ी है। यूपीकोका के अन्र्तगत मीडिया रिपोर्टिंग पर रोक लगाकर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर सरकार ने हमला बोला है। आरोपी के मुलाकातियों पर सख्ती की बात साफ करती है कि न सिर्फ उसके मौलिक अधिकारों का हनन होगा बल्कि उसकी प्रताड़ना का संशय बराबर बना रहेगा। उन्होंने कहा कि जब सामान्य कानूनों के नाम पर योगी सरकार ने फर्जी मुठभेड़ों का इतना क्रूरतम अध्याय 6 महीने में लिख दी की एनएचआरसी को उसे नोटिस करना पड़ा तो साफ है कि यूपीकोका के बल पर वह भाजपा की सांप्रदायिक जेहनियत के तहत मुसलमानों-दलितों पर हमलावर होगी। मुहम्मद शुऐब ने कहा कि यूपीकोका के जरिए प्रशासन को निरंकुश बनाकर लोकतंत्र को सैन्यतंत्र में तब्दील करने की यह फासिस्ट कोशिश है। उन्होंनेे कहा कि पूर्व एडीजी लाॅ एंड आर्डर बृजलाल जिनको निमेष कमीशन की सिफारिशों और खालिद मुजाहिद की हत्या के आरोप में जेल में रहना चाहिए था उनकी यूपीकोका के आने की खुशी को समझा जा सकता है। जिन्होंने यूपीकोका लाने के लिए माहौल बनाने के लिए अपने कार्यकाल में मुस्लिम युवाओं की फर्जी गिरफ्तारी और फर्जी एनकांउटर करवाया था।

अवामी काॅउंसिल के महासचिव अधिवक्ता असद हयात ने कहा कि कठोर कानूनों के बनाए जाने का उस समय कोई अर्थ नहीं रह जाता जब वे बिना किसी सार्थक परिणाम के हों। वर्तमान संदर्भ प्रस्तावित यूपी कोका का है जिसमें प्रावधान किया जा रहा है यह कानून जिन अपराधियों के विरुद्ध लाया जा रहा है उनका सर्वप्रथम आपराधिक इतिहास होना चाहिए और द्वितीय यह की उनके विरुद्ध कम से कम दो मामलों में आरोप पत्र हो और दोष सिद्ध भी हुए हों। इस स्थिति में सरकार को पहले यह बताना चाहिए कि ऐसे कितने अपराधी हैं जो वर्तमान कानूनों के चंगुल से बाहर निकल गए हों और उनके लिए यूपीकोका जैसे कानून लाना अनिवार्य हो गया हो? सच्चाई यह है कि यदि निष्पक्ष विवेचना करके ठोस सबूत इकट्ठा किए गए होते तो ऐसा कोई भी अपराधी कानून के चंगुल से नहीं बचा होता। सरकार सिर्फ कठोर कानून लाकर अपने मजबूत शासन के होने का दिखावा करना चाहती है जबकि उसकी जांच एजेंसियां न तो निष्पक्ष विवेचना करती हैं और न ही मजबूत साक्ष्य जुटाती हैं। ऐसे कितने अपराधी हैं जो दो या दो से अधिक आतंकवाद से संबन्धित अपराधों में मुकदमों में आरोपी हैं और ऐसा कौन सा नया मामला है जिनमें उनकी नई भूमिका पाई जा रही हो जिसके लिए यूपीकोका लाया जाना जरुरी हो गया हो। दरअसल सरकार के पास न तो कोई ठोस आंकड़ा है न आधार है। दमनकारी कानून बना कर उसका गलत इस्तेमाल ही होगा वहीं अपराधी को ही अगर अपने बेगुनाह होने का सबूत देना होगा तो यह पूरे अपराध विधि शास्त्र के सिद्धांतों को ही बदल देगा। अपराधी को यह पता होना चाहिए की कौन उसके विरुद्ध गवाही दे रहा है और प्रत्येक केस में यदि गवाह की पहचान को छुपाए जाने का चलन हो गया तो इससे कानून का दुरुपयोग तो होगा ही न्याय की हानि भी होगी। 60 दिन की अवधि का पुलिस रिमांड पर्याप्त होता है यदि 60 दिन की अवधि के भीतर पुलिस कोई तथ्य/जानकारी अपराधी से नहीं हासिल कर पाती है तो यह भी उसकी कार्यशैली पर सवाल खड़े करता है। रिमांड अवधि बढ़ाने से आरोपियों पर पुलिस का दमन चक्र ही बढ़ेगा। यह अजीब विडंबना है कि सरकारें यूपीकोका जैसा दमनकारी कानून लाने के लिए तो प्रयत्नशील हैं मगर सुप्रिम कोर्ट के लगभग 12 वर्ष पूर्व प्रकाश सिंह मामले में दिए गए फैसले पर अमल नहीं करना चाह रही हैं जिसमें सुप्रिम कोर्ट ने देश की सभी राज्य सरकारों को निर्देष दिया था कि एक ही थाने में कानून व्यवस्था संभालने वाले और मामलों की विवेचना करने वाले पुलिस अफसर अलग हों। यह एक कड़वी सच्चाई है कि दोनों जिम्मेदारियां संभालने के कारण मामलों की विवेचना समय पर और सही प्रकार से नहीं हो पाती। मगर सरकारों को इससे कोई मतलब नहीं है। यह सिर्फ कठोर सरकार का अपना चेहरा दिखाने में ही लगी हैं। न्याय और प्रशासन व्यवस्था को चुस्त और दुरुस्त बनाने में नहीं। ऐसे अपराध जो किसी सांप्रदायिक दुर्भावना के साथ किए जा रहे हैं वो भी संगठित अपराध हैं और उनके विरुद्ध भी कठोर कानून अलग से लाना चाहिए। क्यों कि वहां ऐसे नए अपराधी होते हैं जिनका कोई आपराधिक इतिहास नहीं होता बल्कि वे सांप्रदायिक उकसावे में आकर किसी संगठन से जुड़े होने के कारण सांप्रदायिक हिंसा साजिशन कर देते हैं।

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