तारकेश्वर मिश्र

आगामी पांच दिसंबर को राहुल गांधी कांग्रेस अध्यक्ष निर्वाचित घोषित किए जा सकते हैं। नेहरू-गांधी परिवार के इस पद तक पहुंचने वाले वह छठे व्यक्ति होंगे। राहुल के कांग्रेस अध्यक्ष बनने में न तो कोई अजूबा है और न ही कोई नयापन है। राहुल 2004 से ही ‘छाया अध्यक्ष’ हैं और 2013 में जब उन्हें कांग्रेस संविधान को पार कर उपाध्यक्ष बनाया गया था, तब से वह कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के फैसलों में भागीदारी करते रहे हैं। राहुल की मां सोनिया गांधी सबसे अधिक 19 सालों से कांग्रेस अध्यक्ष हैं। अस्वस्थता के कारण उन्हें बेटे की ताजपोशी की चिंता थी। वैसे भी भारतीय राजनीति में कांग्रेस अध्यक्ष का एक विशेष स्थान रहा है, क्योंकि कांग्रेस नाम देश में सबसे पुराना है।

हालांकि हम साफ कर देना चाहते हैं कि जो कांग्रेस महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, सुभाष चंद्र बोस, सरदार पटेल, मौलाना आजाद, महामना मालवीय, तिलक, सरोजनी नायडू सरीखे कद्दावर नेताओं की थी, सोनिया-राहुल की कांग्रेस वह नहीं है। सिर्फ नामकरण की कुछ साम्यता है। यह वह कांग्रेस है, जो पुरानी कांग्रेस से टूटकर इंदिरा गांधी के नाम से बनाई गई थी, लेकिन अब देश उसे ही प्राचीन कांग्रेस मानता है। राहुल गांधी को कांग्रेस के भीतर से कोई चुनौती नहीं है, अलबत्ता एक धड़ा है, जो उनके नेतृत्व का पक्षधर नहीं है। राहुल 2013 में कांग्रेस उपाध्यक्ष बने थे और अब पार्टी अध्यक्ष बनने जा रहे हैं, तो उनके हिस्से में 27 चुनावी पराजय दर्ज हैं। यह कोई सामान्य तथ्य नहीं है।

एक राजनेता के तौर पर राहुल गांधी अब ‘खुली हुई मुट्ठी’ की तरह हैं। उनकी राजनीतिक क्षमताएं, परिपक्वताएं, रणनीतिकार के तौर पर उनकी छवियां और राजनीतिक बौद्धिकता आदि देश के सामने बेनकाब हैं, लेकिन कांग्रेस के लिए उनका महत्त्व निर्विवाद और अपरिहार्य है, क्योंकि कांग्रेस और उसके नेताओं के लिए गांधी परिवार एक केंद्रीय धुरी की तरह है, जिसके इर्द-गिर्द सभी लामबंद हो सकते हैं। गांधी परिवार के अलावा, अन्य कोई भी शख्सियत सर्वसम्मत स्वीकार्य नहीं है। राहुल के चुनाव को भी कौन चुनौती दे सकता था?

चुनाव का ढोंग भी इसलिए रचना पड़ा, क्योंकि ये चुनाव आयोग की बाध्यताएं हैं। बाकायदा नामांकन, छंटनी, मतदान और परिणाम की तारीखें तय की गईं, लेकिन राहुल इस पद पर अकेले उम्मीदवार होंगे, लिहाजा पांच दिसंबर को ही उन्हें ‘अध्यक्ष’ निर्वाचित घोषित कर दिया जाना तय है। कांग्रेस कार्यसमिति पार्टी अध्यक्ष के चुनाव को मंजूरी दे चुकी है। लेकिन कांग्रेस के प्रवक्ता इस प्रक्रिया को ही ‘आंतरिक लोकतंत्र’ करार देते हैं और ऐसी व्यवस्था किसी और दल में नहीं है, ऐसा दावा करते हैं, तो उनके कुतर्कों पर बहस करना फिजूल लगता है।

इंदिरा कांग्रेस में उनके बाद राजीव गांधी, फिर सोनिया गांधी और अब राहुल गांधी की ताजपोशी क्या ‘आंतरिक लोकतंत्र’ की मिसालें हैं? चूंकि मई, 1991 में पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या की गई थी। पत्नी सोनिया गांधी और समूचा परिवार एक अनपेक्षित सदमे और चिंता में था, लिहाजा सोनिया ने कांग्रेस नेतृत्व संभालने से इनकार कर दिया था। पांच साल के लिए पीवी नरसिंहराव को प्रधानमंत्री एवं कांग्रेस अध्यक्ष बनाया गया था, तो वह भी गांधी परिवार का ही अघोषित निर्णय था।

1996 के आम चुनावों में कांग्रेस की करारी पराजय के बाद सीताराम केसरी को कुछ समय के लिए कांग्रेस अध्यक्ष बनाया गया, लेकिन वह भी मुद्दतों से गांधी परिवार के ‘वफादार’ थे और कांग्रेस के ‘मुनीम’ थे। अंततः 1998 में सोनिया गांधी की ताजपोशी से पहले जिस तरह सीताराम केसरी को कांग्रेस के नेतृत्व से खदेड़ा गया, क्या वह भी ‘आंतरिक लोकतंत्र’ की मिसाल थी? हमें कहने में कोई गुरेज नहीं है कि कांग्रेस अध्यक्ष मनोनीत होते हैं और चुनाव का ढोंग किया जाता है।

यह यथार्थ हमें स्वीकार कर लेना चाहिए कि यह कांग्रेस नेहरू-पटेल-सुभाष बोस वाली कांग्रेस नहीं रह गयी है। तब की कांग्रेस देश की आजादी के लिए जनता की अंगड़ाई का आंदोलन थी, जबकि आज की कांग्रेस महज सत्ता राजनीति का एक उपकरण बन गयी है। इस यथार्थ को अपराधबोध नहीं माना जाना चाहिए। आखिर आज सभी राजनीतिक दल सत्ता के ही खेल में तो शरीक हैं। अन्ना हजारे की इस टिप्पणी से असहमत होने का कोई कारण नहीं है कि हमारे राजनीतिक दलों ने लोकतंत्र को सत्ता पाने और फिर उसे बनाये रखने की चुनावी जोड़तोड़ तक सीमित कर दिया है। चुनावी वादों और घोषणापत्रों के प्रति प्रतिबद्धता तो राजनीतिक दलों ने बहुत पहले ही त्याग दी थी, लेकिन अब तो सवाल पूछने पर उन्हें जुमला बताकर पल्ला झाड़ लिया जाता है।

कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में राहुल गांधी की असली कसौटी भी चुनाव ही होंगे। बेशक उपाध्यक्ष बनने के बाद तो व्यावहारिक रूप से वह ही कांग्रेस के ज्यादातर फैसले लेते रहे हैं। जाहिर है, चुनाव परिणाम उन फैसलों पर सवालिया निशान ही लगाते हैं। फिर भी केंद्र में सत्ता के दो कार्यकाल के बाद हुए चुनावी पराभव के लिए अकेले राहुल को जिम्मेदार ठहराना उनके साथ अन्याय होगा, लेकिन कांग्रेस के पुनरुत्थान की अपेक्षाओं की कसौटी से वह मुंह नहीं चुरा पायेंगे।

ढाई दशक से गुजरात की सत्ता से बाहर कांग्रेस ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के इस गृह राज्य में हर दांव आजमाने का फैसला किया है। मतदान से पहले राहुल अध्यक्ष भी बन जायेंगे, लेकिन उससे किसी चमत्कार की उम्मीद बहुत तार्किक नहीं लगती। हां, अध्यक्ष बनने के बाद राहुल अपेक्षाकृत खुलकर कांग्रेस को नया स्वरूप दे पायेंगे, लेकिन उसके बाद हर चुनावी परीक्षा के परिणाम के लिए वह, और सिर्फ वह ही जिम्मेदार होंगे। सत्ता से बेदखल कांग्रेसी अनंतकाल तक सब्र करेंगे, इसमें शक है। इसलिए अध्यक्ष पद का यह चुनाव कांग्रेस की सीमाओं और राहुल की संभावनाओं के संधिकाल की शुरुआत भी होगा। खुद अभी तक सरकार और संगठन की जिम्मेदारियों से बचते रहे राहुल अपनी नेतृत्व क्षमता के प्रति गैर भाजपा दलों का विश्वास जीत पायेंगे, यह भी एक अहम सवाल है।

वरिष्ठ कांग्रेस नेता एवं राजीव गांधी के बेहद करीबी मणिशंकर अय्यर का बयान था कि जब राहुल गांधी को ही पार्टी अध्यक्ष बनाना तय है, जब उम्मीदवार ही एक होगा, तो चुनाव कराने के मायने क्या हैं? बहरहाल यह कांग्रेस के भीतर की राजनीतिक व्यवस्था है। हमें आपत्ति ‘आंतरिक लोकतंत्र’ के दावों पर है। आंतरिक लोकतंत्र तो तब परिभाषित होता है, जब एक चायवाला देश का प्रधानमंत्री भी बन सकता है या कुशाभाऊ ठाकरे और जनाकृष्णा मूर्ति सरीखे प्रचारक कार्यकर्ता भी भाजपा अध्यक्ष बन सकते हैं। बहरहाल नेहरू-गांधी परिवार ने कांग्रेस पर 44 साल राज किया है और वह सिलसिला जारी रहेगा, राहुल की ताजपोशी से यही साबित होता है।

राहुल गांधी कांग्रेस को किस दिशा में ले जाएंगे, ये तो आने वाला वक्त ही बताएगा। अभी तक राहुल का प्रदर्शन फीका रहा है। अब जबकि यह तय हो गया है कि अगले माह राहुल कांग्रेस के अध्यक्ष बन जाएंगे, तो उनके सामने चुनौतियां भी ढेरों होंगी। सबसे पहले पहली चुनौती पर बात करें। कांग्रेस के बारे में यह आम धारणा बन गई है कि वह सत्ता में रहती है तो लूट खसोट करती है और मुस्लिम तुष्टिकरण की राजनीति करती है। भाजपा के मौजूदा नेतृत्व ने प्रचार के हर माध्यम का इस्तेमाल करके इस धारणा को पुख्ता बनवाया है। कांग्रेस को हर प्लेटफार्म से इसका जवाब देना ही होगा। दूसरी चुनौती के रूप में अगले लोकसभा चुनाव तक कार्यकर्ताओं में फिर से जोश भरना होगा। 2014 के बाद से कांग्रेस ने पूरे देश में जो कुछ खोया है, उसकी भरपाई के लिए राहुल गांधी को सौ फीसदी देना होगा। अब देखना है कि राहुल करिश्मा कर पाते हैं या नहीं।

-लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।