हिन्दी और उर्दू दो महत्वपूर्ण हिन्द-आर्यायी भाषाएं हैं। यह मात्र संयोग नहीं है कि दोनांे भाषाओं का उत्थान मुगल-साम्राज्य के पतन की आहट के साथ ही शुरू होता है। दोनों भाषाओं का व्याकरण लगभग एक होने के कारण इनका उत्थान भी एक साथ हुआ मगर समय बीतने के साथ दोनों भाषाएं अलग-अलग शैली के साथ नजर आती हैं। यह कथन सही प्रतीत होता है कि भाषाई स्तर पर ‘जितना गहरा रिश्ता उर्दू और हिन्दी में है शायद दुनिया की किसी भी भाषा में नहीं है।‘

हिन्दी और उर्दू के दरम्यान भाषाई रिश्ता एक ऐतिहासिक तत्व है क्योंकि दोनों भाषाओं का स्रोत (खड़ी बोली) एक है। तुर्को के भारत आगमन के साथ जो साहित्यिक परिवर्तन विशेषकर भाषा के साथ प्रस्फुटित हुए उनमें हरियाणवी भाषा की बहुतायत को खड़ी बोली के सन्दर्भ में महसूस किया जा सकता है और दोनों भाषाओं के उत्थान की बुनियाद ‘खड़ी बोली‘ को एक केन्द्रीय महत्व की भूमिका के साथ स्थापित किया जा सकता है जिनमें दोनों भाषाओं का परस्पर विरोध भी शामिल है। दोनों भाषाओं का उत्थान उत्तर भारत में हुआ मगर इनका पराभव भारत के दूसरे राज्यों में भी एक समान देखने को मिल सकता है जो भौगोलिक इकाई की एकरूपता के साथ-साथ सांस्कृतिक भिन्नता को अपने अन्दर समेटे था। ये वही वक्त था जब दोनों संस्कृतियाँ एक दूसरे से मिल रही थी और इनका परस्पर मिलना एक नई संस्कृति को जन्म दे रहा था और भाषाई सतह पर अरबी और फारसी के शब्द हिन्दी में प्रयुक्त होने लगे थे। लोक भाषाओं में अरबी, फारसी के मिश्रण से जो भाषा जन्म ले रही थी भारत में वही उर्दू और प्राचीनतम हिन्दी या हिन्दवी कहलायी और शायद यही वजह है कि उर्दू को प्रारम्भ से ही साझा संस्कृति की भाषा के रूप में पहचान मिलना शुरू हो गयी थी।

किसी भी भाषा का स्वरूप, उच्चारण एवं प्रखरता उसके व्याकारण एवं उसकी बनावट पर निर्भर है। ऐसा प्रतीत होता है कि दोनों भाषाओं के उदय में इनकी प्रखरता एवं बनावट में एक प्रकार का सम्मोहन है। व्याकरण के अतिरिक्त हिन्दी और उर्दू की बुनियादी शब्दावली एक जैसी है और दैनिक उपयोग में आने वाले शब्द और मुहावरे लगभग एक जैसे प्रतीत होते हैं।

ऐतिहासिक और साहित्यिक दृष्टि से समान भाषाएं जो कतिपय अपना अलग-अलग खेमा बनाने को मजबूर हुयीं मगर भाषाओं और साहित्य को समृद्ध करने वाले भाषा विद् तथा साहित्यकार (मुख्यतः) को यह श्रेय प्राप्त रहा कि यह दोनों भाषाओं के साहित्यकार कहला सकें और इस श्रेणी में हम प्रेमचन्द को प्रमुखता के साथ रख सकते हैं। अपनी तमामतर समानताओं के बावजूद यह एक विचारणीय प्रश्न बना हुआ है कि दोनों भाषाएं अपना अलग अस्तित्व स्थापित करने में क्यों सफल हुयीं। इसका एक सामान्य एवं सर्वप्रथम कारण script (लिपि) है जो दोनों script को अलग दृष्टिकोण प्रदान करता है जैसा कि हमें मालूम है कि हिन्दी की script देवनागरी और उर्दू की script फारसी है। मगर यह एक विडम्बना ही है कि मौजूदा दौर में दोनों भाषाओं का स्टाइल भी परिवर्तित होता जा रहा है और इस अस्पष्ट अन्तर को स्पष्ट और प्रस्फुटित करने का श्रेय निश्चित तौर पर फोर्ट विलियम कालेज को दिया जा सकता है जब गिलक्राइस्ट के नेतृत्व में उर्दू और हिन्दी शीर्षक से अलग-अलग भाशाओं की पुस्तकें प्रकाशित की गयीं। उर्दू में बाग़ ओ बहार लिखी गयी जिसकी स्क्रिप्ट फारसी थी जिसमें अरबी और फारसी शब्दों की बहुतायत थी और दूसरी तरफ प्रेम सागर थी जिसकी स्क्रिप्ट देवनागरी थी और जिसमें संस्कृत के शब्दों की बहुलता थी। विभिन्न भाषा विदों एवं साहित्यकारों का यह कथन सही प्रतीत होता है कि उर्दू और हिन्दी का भाषाई अन्तर इसी समय से शुरू होता है जबकि इससे पहले दोनों भाषाएं एक ही धारा में प्रवाहित हो रही थीं।

फोर्ट विलियम कालेज में जिस हिन्दी गद्य की बुनियाद पड़ी उसे कालान्तर में खड़ी बोली या स्तरीय हिन्दी कहा जाने लगा। यद्यपि यह बात सत्य से निकट प्रतीत होती है कि इससे पहले खड़ी बोली के रूप में हमें कोई साहित्य नहीं मिलता है और समग्र उपलब्ध साहित्य अपनी बोलियों के अधीन था मसलन-अवधी या ब्रज जो साहित्यिक दृष्टिकोण से समृद्ध और प्रमुख थीं जिनका अपना अस्तित्व किसी भी भाषा या स्क्रिप्ट के अधीन नहीं था मगर धीरे-धीरे खड़ी बोली हिन्दी का विकास तत्कालीन परिस्थितियों और सामाजिक गतिशीलता के कारण होता गया जिससे इसकी समृद्धता को और बल मिला।

फोर्ट विलियम काॅलेज के अस्तित्व में आने से पहले ही दक्षिण (दकन) से लेकर उत्तर भारत तक उर्दू में प्रचुर मात्रा में साहित्य उपलब्ध था। 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का प्रभाव भाषा और उसकी बनावट पर भी पड़ा और अंग्रेजों द्वारा लगातार इस बात का प्रयास किया जाता रहा कि किस तरह हिन्दुओं और मुसलमानों को भाषाई सतह पर भी विभाजित किया जाए। भारत में अंग्रेजी शिक्षा को सम्मान के पर्याय और अस्तित्व की पहचान के रूप में पढ़ा पढ़ाया जाने लगा। भारत में अंग्रेजी शिक्षा राजसत्ता को सुदृढ़ करने एवं आवश्यक हस्तक्षेप का एक महत्वपूर्ण स्रोत बन गयीं।(एस0 बन्दोपाध्याय, प्लासी से विभाजन तक, पुनर्मुद्रित, नई दिल्ली, 2010, पृ0सं0-152-53) हिन्दी और उर्दू विवाद को अंग्रेजों की वीभत्स्कारी नीति की परिणति के तौर पर याद किया जा सकता है। महात्मा गाँधी ने इस भाषाई भिन्नता को समाप्त करने के लिए दो अलग हो चुकी भाषाओं को एक स्वरूप देते हुए इसका नामाकरण हिन्दुस्तानी के रूप में किया मगर गाँधीजी का प्रयास दिलों के अन्दर घर कर चुकी नफरत को समाप्त करने में असफल रहा। गाँधीजी का भाषाई एकता का प्रयास निरन्तर कमजोर होता गया और जिस भाषाई एकता की बुनियाद पर अंग्रेज विरोध के महल की स्थापना का स्वप्न देखा गया था उसकी बुनियाद ही अंग्रेजो द्वारा कमजोर कर दी गयी।

स्वतंत्र भारत के संविधान में हिन्दी और उर्दू को अलग-अलग भाशा के रूप में स्थापित किया जा चुका है मगर इसके बावजूद इन भाषाओँ का भाषाई रिश्ता समाप्त नहीं हो जाता है क्योंकि हम कह सकते है कि ऐतिहासिक भाषाई प्रतिबिम्ब में दोनों भाषाओँ का इतिहास और सा्रेत एक ही है। अपने तमाम विरोधी अस्थिरताओं के बावजूद हिन्दी और उर्दू का भाषाई सम्बन्ध स्थिर बना हुआ है। यह सम्बन्ध यह सन्देश भी अग्रसारित करता है कि भाषाई पहचान को धार्मिक पहचान के अन्तर्गत नहीं आना चाहिए। यह सम्बन्ध हमें इस प्रश्न पर बार-बार विचार करने की प्रेरणा भी देता है कि धार्मिक अस्मिताएँ, भाषाई अस्मिता के साथ ही पहचानी जायेगी या इसका एक अलग अस्तित्व भी तमाम अंतर्विरोधों के बावजूद स्थापित रहेगा और भाषा -ऐतिहासिक, सामाजिक और सांस्कृतिक चेतना की अभिव्यक्ति की पहचान के रूप में स्थापित रहेगी।

डाॅ0 शाहिद परवेज़

एसो0 प्रो0- इतिहास, रमाबाई राजकीय महिला स्ना0 महाविद्यालय, अकबरपुर, अम्बेडकरनगर- 224122, मो0- 9415169186