मृत्युंजय दीक्षित

भारतीय संस्कृति में गुरूपूर्णिमा पर्व का अपना महत्व है। भारतीय संस्कृति मंे गुरू को साक्षात् ईश्वर का स्वरूप माना गया है। भारतीय शास्त्रों में गुरूभक्ति का महत्व वर्णित है। गुरू कैसा होना चाहिये, गुरू किसे मनाना चाहिये इत्यादि का वर्णन हमारे महान शास्त्रकारों ने किया है। मनुष्य का जीवन फूल के समान है इस जीवन पुण्य का सम्पूर्ण विकास होने देना चाहिये। मनुष्य के जीवन की एक एक फूल खिलने देना चाहिये । तब तक किसी व्यक्ति का मूल्यांकन नहीं करना चाहिये । व्यक्ति का मूल्यांकन आने वाली पीढ़ियों को करना चाहिये। इसलिए गुरूस्थान पर किसी भी व्यकित को नहीं लेना चाहिये। कारण यह है कि कोई भी व्यक्ति आज के युग में सर्वगंुण सम्पन्न नहीं होता है।सर्वगुणसम्पन्न केवल ईश्वर है। हर व्यक्ति में कोई न कोई कमी अवश्य होती है फिर किसी व्यक्ति को गुरू मान लेना कहां तक उचित है ?

भारतीय धर्मशास्त्रों में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि हम जिस गुरू की पूजा करते हैं उसके गुणों को भी अपने अंदर लाना चाहिये । यदि उन गुणों को अपने जीवन में नहीं लायेंगे तो कर्तव्यपूर्ति नहीं हो सकेगी। जो अपने गुरू के साथ अधिक एकात्म और एकरूप होता है वहीं उनकी पूजा कर सकेगा अन्य कोई नहीं। गुरू की श्रेष्ठता के समक्ष सम्पूर्ण विश्व छोटा लगता है। अतः शिष्य को अपने अंदर उसी प्रकार की श्रेष्ठता उत्पन्न करनी चाहिये। इसके साथ ही गुरू का इतना महत्व है कि यदि ईश्वर , माता पिाता और गुरू तीनों एकसाथ आपके सामने खड़ें होतों तो सबसे पहले गुरू का ही आशीर्वाद लेना चाहिये। गुरू अपने शिष्य को मजबूत बनाता है। गुरू अपने शिष्य की कठिन से कठिन समस्याओं के समाधान का रास्ता निकालता है। गुरू की महत्ता का जितना भी वर्णन किया जाये वह कम ही है।

गुरूपूर्णिमा पर्व से त्यौहारों की एक श्रृंखला प्रारम्भ हो जाती है। यह श्रावण से प्रारम्भ होकर दीपावलि के पूर्णतया समापन तक चलती ही रहती है। इस दौरान वर्षा ऋतु का पूरा जोर रहता है तथा देश का किसान वर्ग पूरी खुशी के साथ नयी फसलों को उगाने मंे जीजान से जुटा रहता है। गुरूपूर्णिमा का पावन पर्व हमें व समाज को बहुत कुछ सिखाता व देता है।

गुरू पूर्णिमा का पर्व महाज्ञानी वेदव्यास की पूर्णिमा के रूप मंे भी मनाया जाता है। महर्षि व्यास महर्षि पाराशर के पुत्र हैं। भगवान वेदव्याास ने ही महाभारत की रचना की थी। वे ऐसे महान महर्षि थे जिन्होनें अपनी आंखों के सामने अपने ही बांधवों के समृद्धशाली समाज को बनते और नष्ट होते देखा। उनके उपदेश और सीख ग्रहण की जाती तो इतिहास ही बदल जाता।

आदियुग में वेद एक एक ही था। महर्षि अंगिरा ने उनमंे से सरल तथा भौतिक उपयोग के छंदों को संग्रहीत किया । यह संग्रह छंादस अंगिरस या अथर्ववेद कहलाया। भगवान व्यास ने उनमेें से ऋचाओं, गायन योग्य मंत्रों और गद्यभाग को अलग- अलग किया । इस प्रकार ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद का वर्तमान स्वरूप निश्चित हुआ। इस कार्य से वे वेद कहलाये। भगवान व्यास ने पुराणों का संकलन करके उन्हें सभी के पढ़ने योग्य बनाया। अष्टादश पुराणों के अतिरिक्त बहुत से उपपुराण तथा धर्म , अर्थ, काम, मोक्ष संबंधी सिद्धांत को एकत्र करने के विचार से व्यास ने ही महाभारत की रचना की। महाभारत को पंचम वेद कहा गया है। महाभारत की कथा व्यास जी बोलते गये और श्रीगणेश जी लिखते गये। हिंदू संस्कृति का वर्तमान स्वरूप महर्षि व्यास द्वारा ही सजाया गया है।

व्यास किसी एक व्यक्ति का नाम नहीं अपितु एक पदवी है।महर्षि व्यास का आश्रम बदरी मंे था और इसलिए ये वादना भी कहलाये। उनके संबंध में अनेक कथाएं प्रचलित हैं। चूंकि व्यास क्षपर यंग की समस्त कथाओं व घटनाओं को जानते थे इसलिए उन्होनें सबको धर्म एवं कर्तव्य के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित किया। वे सबको उचित कार्य की ही प्रेरणा देते थे। महर्षि व्यास ने तपस्या के बल पर वृद्धावस्था व मृत्यु को जीत लिया था।

महाभारत के बाद व्यास जी ने हरिवंश भगवान श्रीकृष्ण की कथा लिखी। वे प्रतिभावान व श्रेष्ठ विभूति थे। उन्होनें शांतनु से जनमेजय तक की पीढ़ियों तक का उतार – चढ़ाव देखा। वे महान विभूतियों के साथ रहे। ऐसे महान विभूतियों की गाथाएं हमारे जीवन पथ को अवलोकित करती हैं। अतः गुरूपूर्णिमा का पर्व एक प्रकार से महन परम्पराओं को नमन करने का भी पर्व है।