(मकर संक्रांति उत्सव पर विशेष)

भारत एक उत्सवप्रिय देश है। कहते है उत्सव न हों, तो जीने की इच्छा-आकांक्षा ही समाप्त हो जाये। अपने चारों ओर बिखरे संकटों, अव्यवस्थाओं और निराशाओं के बीच उत्सव हमें हंसाकर जीवन में उल्लास-उमंग भर देता है। ऐसा ही पर्व है मकर संक्रांति, जो केवल उल्लास ही नहीं, सम्यक परिवर्तन का संदेश भी देती है। मकर संक्रांति यानी सूर्य का दिशा परिवर्तन से मौसम परिवर्तन और मन के परिवर्तन से व्यवस्था का सम्यक परिवर्तन । जब मौसम करवट लेता है तो मन में तरंगे उठना बड़ा स्वाभाविक है क्योंकि मन का मौसम से बड़ा गहरा रिश्ता होता है । मन के तरंगों की उड़ान को ही आसमान में ऊंची उठती पतंगों के माध्यम से व्यक्त किया जाता है। पतंगे जीवन के सरल-कठिन पेंच सिखाती है कि रिश्तों में इतनी ढील ना रहे कि सामने वाला लहराता ही रहे और ना ही इतनी तनाव कि वह आगे बढ़ ही न सके। संक्रांति अर्थात सम्यक दिशा में क्रांति जो समाज में ऐसी क्रांति लायें जो सभी प्रकार से शुभ तथा समाज जीवन का उन्नयन करने वाली हो । भारत में जो क्रांतियां हुई वे समाज जीवन को बलशाली करने वाली हुई है । जैसे श्री राम, श्री कृष्ण, चाणक्य द्वारा महापद्मनंद का नाश व चंद्रगुप्त को आगे लाया जाना, छत्रपति शिवाजी द्वारा हिंदू पदपादशाही की स्थापना आदि ऐसे उदाहरण है । मकर संक्रांति के दिन सूर्य मकर राशि में प्रवेश करते है तथा दक्षिणायन समाप्त होकर उत्तरायण प्रारंभ होता है । मकर संक्रांति अर्थात सम्यक दिशा में क्रांति है जो सभी प्रकार से शुभ तथा समाज जीवन का उन्नयन करने के साथ ही समाज को हीनता से श्रेष्ठता की ओर, क्षुर्द्ता से गौरव की ओर, निराशा से आशा की ओर जाने की प्रेरणा देती है । समाज में परिवर्तन लाकर राष्ट्र को समुन्नत कर स्थायी परिवर्तन में विश्वास रखता है । जिस प्रकार प्रकृति में होने वाले सम्यक् दिशा के परिवर्तन का हम स्वागत करते हैं, ठीक उसी प्रकार समाज जीवन को बढ़ाने एवं मजबूत करने वाले परिवर्तनों का समर्थन अति आवश्यक है।
मकर संक्रांति पूरे देश में लोकप्रिय है। पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, हिमाचल आदि में इसे लोहड़ी, दक्षिण में पोंगल, कर्नाटक में सुग्गी, पूर्वोत्तर भारत में बिहू, महाराष्ट्र में तिलगुल, उड़ीसा में मकर चौला, बंगाल में पौष संक्रांति, गुजरात व उत्तराखंड में उत्तरायणी तथा बिहार, बुंदेलखंड और मध्य प्रदेश में सकरात कहते हैं। मकर संक्रांति का पर्व सामाजिक समरसता का संदेश लेकर आता है। इस त्यौहार के अवसर पर तिल और गुड़ की मिठास हमें अपने जीवन में सभी लोगों के साथ मधुर व्यवहार करने की प्रेरणा देती है समाज में मकर संक्रांति के मायने आज मकर संक्रांति का महत्व भौगोलिक एवं ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य से भी अधिक सामाजिक क्षेत्र में है। समाज में इतने दुर्गुण प्रविष्ट हो गए हैं कि उनसे हमारे अस्तित्व पर ही प्रश्नचिन्ह लगने लगा है। समाज का सबसे बड़ा रोग जातिभेद है। इस दिन खिचड़ी और तिल गुड़ से बनी सामग्री खायी जाती है। खिचड़ी में प्रयुक्त दाल, चावल, घी तथा गजक या रेवड़ी में पड़े तिल, गुड़ आदि आपस में इतने मिल जाते हैं कि उन्हें अलग नहीं किया जा सकता है जो समरसता के संदेशवाहक हैं।

मकर संक्रांति के साथ कुछ ऐतिहासिक घटनाएं जुड़ी हैं। पहली घटना महाभारत युद्ध से संबंधित है। भीष्म पितामह को इच्छा मृत्यु का वरदान प्राप्त था। वे दक्षिणायण के बदले उत्तरायण में शरीर छोड़ना चाहते थे। मकर संक्रांति पर जब सूर्य मकर राशि में आकर उत्तरायण हुआ, तब उन्होंने देहत्याग किया। इतने दिन तक वे गंगा तट पर शरशैया पर लेटे रहे, यह प्रसंग सर्वविदित ही है। दूसरी घटना जब श्री गुरुगोविंद सिंह जी के साथियों ने हताश होकर उन्हें छोड़ दिया था, तब माईभागो नामक एक वीर महिला की प्रेरणा से उनमें से 40 ने महासिंह नामक सरदार के नेतृत्व में फिर उनके साथ चलने का संकल्प लिया। जब मुगल सेना ने अकेले गुरुजी को घेर लिया था, तब उस पर हमलाकर इन वीरों ने ही गुरुजी की प्राणरक्षा की थी। इस युद्ध में माईभागो सहित उन सबको वीरगति प्राप्त हुई। 1705 ई0 की मकर संक्रांति को ‘खिदराना के ढाब’ नामक स्थान पर हुए उस संग्राम का साक्षी वह तालाब आज भी ‘मुक्तसर’ कहलाता है।

भारतीय परंपरा में प्रत्येक उत्सव का तथा इससे जुड़े व्यंजनों का भी अपना महत्व है। चूँकि तिल की सामग्री, गुड़ तथा शक्कर के साथ बनी उष्ण होती है। अतः शीत ऋतु में इसका सेवन स्वास्थ्य की दृष्टि से लाभप्रद माना जाता है। यह प्रतीक है इस बात का कि आज से दिन तिल भर बड़ा हो रहा है। तिल की पौष्टिकता से सभी अवगत है। यही तिल बदलते मौसम से लड़ने की ताकत देता है। गुड़ की तरह रिश्ते मधुर बने हम सब चाहते हैं लेकिन अकेला गुड़ ज्यादा नहीं खाया जा सकता, यही कारण है कि तिल के साथ उसका कुशल संयोजन बैठाया जाता है। रिश्तों में भी इसी समायोजन की जरूरत है। इस उत्सव को सामाजिक समरसता दिवस के रूप में मनाया जाता है। लोगों के घरों से चावल मांग कर एक स्थान पर खिचड़ी बनाकर सब लोग उसे प्रसाद रूप में ग्रहण करते हैं! चावल मांगने के लिए समाज के सभी जातियों के घरों का दरवाजा खटखटाया जाता है। और खिचड़ी खाते समय यह भाव किसी के भी मन में नहीं आता है कि उसमे प्रयुक्त चावल दाल किस जाति के व्यक्तियों से एकत्रित किया गया है।उनमे समाज के कुछ लोगों के मनोविकार के कारण कुछ वर्गों को नीचा मानने वाले लोगों के घर भी शामिल होते हैं।

सूर्य की गति-दशा का यह परिवर्तन हमारे यहां दिन को क्रमशरू बड़ा और रात के आकार को छोटा करने लगता है। दिन प्रकाश, गतिशीलता व ज्ञान का प्रतीक है, जबकि रात अंधकार, गति-बाधा और अज्ञान की। चूंकि इस दिन से सूर्य में ऊर्जा और ऊष्मा बढ़नी शुरू हो जाती है और दिन बढ़ने लगते हैं, इससे लोगों के भीतर भी ऊर्जा का संचार होता है। अभी तक ठंड से सिमटे बैठे लोग भी अपने-अपने कामों में पूरी ऊर्जा से जुट जाते हैं। अतरू यह पर्व हमें ऊर्जावान बनने और कर्म में प्रवृत्त होने की प्रेरणा देता है। सूर्य के अंदर ऊष्मा की प्रचुरता होने से लेकर इन सभी प्रसंगों से हमें यह प्रेरणा मिलती है कि नकारात्मकता का अंत करके हमें सकारात्मक ऊर्जा के प्रकाश को अपने भीतर धारण करना है। इसके लिए हमें सद्गुणों की सर्वोच्चता प्रतिष्ठापित करनी होगी। यह सूर्य के बहाने हमारे आपसी संबंधों में ऊष्मा जगाने का भी पर्व है।
मकर संक्रांति का महत्व भौगोलिक एवं ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य से भी अधिक सामाजिक क्षेत्र में है। भारतीय समाज में इतने दुर्गुण प्रविष्ट हो गये हैं कि उनसे हमारे अस्तित्व पर ही प्रश्नचिन्ह लगने लगा है। मकर संक्रांति का पर्व हमें अपने मानस में व्यापक परिवर्तन कर सही दिशा में जाने की प्रेरणा देता है। नारी समाज के प्रति भी दृष्टि बदलनी होगी। किसी समय आक्रमणकारियों के भय से उन्हें घर में रहने की सलाह दी गयी होगीय पर अब समय बदला है। अब उन्हें भी हर स्तर पर शिक्षित करने की आवश्यकता है। बाल विवाह, पर्दा प्रथा, परिवार नियोजन, अन्तरजातीय एवं विधवा विवाह, बलिप्रथा, मृतक भोज आदि के प्रति भी सार्थक एवं समयानुकूल दृष्टिकोण अपनाना होगा। ऐसी सब सामाजिक बीमारियों का निदान कानून से नहीं, अपितु मानसिकता में परिवर्तन से होगा। इसके लिए समाज के प्रभावी लोगों को आगे आकर अपने आचरण से समाज के सम्मुख आदर्श प्रस्तुत करना होगा। सब में ईश्वर के वास को मानने वाला समाज आज जातिगत,भाषाई और प्रांत-क्षेत्र के संकुचित व्यवहार में लगा है । प्रकृति को पूजने वाला ही नदियों-भूमि को प्रदूषित कर रहा है ।त्यौहार मानने में जो परिवर्तन आया है उस पर समय के साथ विचार करना जरूरी है । त्यौहारों की मूलभावना से समाज क्यों दुर होता जा रहा है । पतंग उडाकर, तिल-गुण खाकर आपसे के पतंग कों काटते -काटते अब तलवार से भी तेज धार वाली डोर से लोगों की जीवन डोर ही कटने लगी है।पंछियों का आकाश पतंगों से उन्ही के निरीह खून से लाल हो जा रहा है । प्रकृत्ति के साथ संतुलन का हमारा कर्त्तव्य अहंकार की उड़ान भर रहा है । मानवता के नए रूप ने प्राकृतिक संसाधनों व आर्थिक धर्म कों आसुरी प्रबृत्ति से जोड़कर कर लक्ष्य और लक्ष्मी दोनों का निरादर किया है ।पर्व -त्यौहार बाजार अभिमुख होते जा रहे है जिनमे पैसों की बोलबाला है । एकता और समरसता के संदेश में गरीब आदमी अपने को असहाय सा महसूस कर रहा है ।इन सभी कहे अनकहे विसंगतियों से बाहर निकल कर हम पर्व परंपरा और त्योहारों का आनंद सामाजिक समरसता के साथ ले तभी वास्तविक त्यौहार मनाने का उमंग जीवन्त बनेगा ।

मकर संक्रांति आपसी मनमुटाव को तिलांजलि देकर प्रेम बढ़ाने हेतु मनाई जाती है। आने वाली धार्मिक कृतियों के कारण प्रेमभाव बढ़ने में और नकारात्मक दृष्टिकोण से सकारात्मक दृष्टिकोण की ओर जाने में सहायता मिलती हैए जो संक्रांति का मूल है । समाज से हम जो कुछ लेते हैं उसे किसी ना किसी माध्यम से समाज को वापस लौटाना ही दान होता है। दान अहसास जगाता है कि भगवान ने हमें इतना योग्य बनाया है, हम किसी के मददगार हो सकते हैं। समाज के उत्थान और पतन से देश का उत्थान और पतन जुड़ा होता है । इसलिए व्यक्ति-समाज को अपना व्यवहार आदर्श बनाकर मकर संक्रांति का यह उत्सव सामाजिक परिवर्तन वाहक बने तभी भारत और विश्व का कल्याण होगा ।

-डॉ हरनाम सिंह

(लेखक दीन दयाल उपाध्याय कौशल केंद्र, सरदार भगत सिंह राजकीय स्नातकोत्तर महविद्यालय रुद्रपुर, उधम सिंह नगर, उत्तराखण्ड में सहायक आचर्य है।