21वीं सदी में भारत को स्मार्ट गांवों की जरूरत है, न कि स्मार्ट शहर की:

21वीं सदी में भारत के समक्ष रोजगार की चुनौतियों पर 'प्रहार' ने शुरू किया राष्ट्रीय अभियान

लखनऊ: दिल्ली स्थित एक गैर-सरकारी संगठन- 'प्रहार' ने आज यहां घटते रोजगार की विषम स्थिति से निपटने और सरकारों को चेताने के लिए एक राष्ट्रीय अभियान शुरू करने की घोषणा की। 'प्रहार' यानी पब्लिक रेस्पोंस अगेंस्ट हैल्पलैसनेस एंड एक्शन फॉर रिड्रेसल असहाय वर्ग की समस्याओं के समाधान खोजने की दिशा में निरंतर सक्रिय है। संस्था इस बात से चिंतित है कि जिस दर से आबादी बढ़ रही है, उस दर से रोजगार नहीं बढ़ पा रहे हैं।

इस अवसर पर बोलते हुए, 'प्रहार' के अध्यक्ष अभय राज मिश्रा ने कहा, 'भारत रोजीरोटी के भयानक संकट से गुजर रहा है। जो भी विकास हो रहा है उसमें रोजगारों के अवसर नहीं हैं। लोगों और नीतिकारों की इच्छाएं चाहे जितनी बड़ी हों, हकीकत यह है कि वास्तव में देश में हर दिन रोजगार के अवसर कम होते जा रहे हैं। अमीरों और विदेशी निवेशकों पर आधारित विकास की नीति अपनाने का नतीजा यह है कि किसानों, छोटे दुकानदारों, ठेके पर काम करने वाले श्रमिकों आदि के रोजगार छिन रहे हैं।'

उन्होंने कहा, 'भारत को पुराना तरीका अपनाते हुए खेती, असंगठित खुदरा व्यापार, सूक्ष्म एवं लघु इकाइयों को बचाने की दिशा में काम करना चाहिए, क्योंकि देश में रोजी-रोटी का 99 प्रतिशत जुगाड़ इन्हीं सेक्टर्स से होता है। इन क्षेत्रों को सरकार की मदद चाहिए, न कि नियंत्रण। इक्कीसवीं सदी में भारत को स्मार्ट गांवों की जरूरत है, न कि स्मार्ट शहर।'

श्री मिश्रा ने आगे बताया, 'प्रहार' ने पता किया है कि रोजी-रोटी के अवसर कम होते जाना देश की नंबर 1 समस्या है, जिसे यदि काबू नहीं किया गया तो सामाजिक असंतोष और अपराधों जैसी समस्याएं बढ़ जायेंगी। इसी नाते, 'प्रहार' राष्ट्रीय स्तर पर एक बहु-आयामी अभियान शुरू कर रहा है, जिससे जागरूकता बढ़ायी जा सके और समयबद्ध तरीके से कार्य योजना तैयार करने पर सहमति बन सके।'

इस वर्ष के शुरू में भारत सरकार के श्रम ब्यूरो द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार, भारत में वर्ष 2011 में 9 लाख रोजगार सृजित हुए, 2013 में 4.19 लाख और 2015 में सिर्फ 1.35 लाख रोजगारों का सृजन हुआ। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार, देश की औसत वार्षिक आर्थिक वृद्धि दर 7.7 प्रतिशत रही, जबकि रोजगारों की दृष्टि से यह सिर्फ 1.8 प्रतिशत रही। आंकड़े ही साफ-साफ बता रहे हैं कि भारत में रोजगार सृजन धीरे-धीरे कम होता जा रहा है, जोकि चिंता का विषय है।

आंकड़ों की बारीकी से विश्लेषण करने पर और भी भयावह तस्वीर सामने आती है। बढऩे के बजाय, रोजगार के अवसर हर रोज खतम होते जा रहे हैं। प्रतिदिन भारत में करीब 550 रोजगार समाप्त हो रहे हैं, यानी 2050 तक भारत में कुल करीब 70 लाख रोजगार समाप्त हो जायेंगे। जबकि आबादी में 60 करोड़ की संख्या जुड़ चुकी होगी।

ऐसा इसलिये हो रहा है क्योंकि सबसे अधिक रोजगार पैदा करने वाले सेक्टर सबसे अधिक प्रभावित हो रहे हैं। कृषि से देश में 50 प्रतिशत रोजगार के अवसर पैदा होते हैं, इसके बाद आता है लघु एवं मध्यम उद्योग क्षेत्र, जिसमें देश की 40 प्रतिशत वर्कफोर्स लगती है। भारत में संगठित क्षेत्र में बमुश्किल एक प्रतिशत से भी कम रोजगार पैदा होते हैं। भारत में संगठित क्षेत्र में सिर्फ तीन करोड़ रोजगार के अवसर हैं, जबकि 44 करोड़ काम के अवसर असंगठित क्षेत्र में हैं। विश्व बैंक के आंकड़ों के अनुसार, वर्ष 1994 में कृषि क्षेत्र में 60 प्रतिशत रोजगार के अवसर थे, जोकि 2013 तक घट कर 50 प्रतिशत रह गये।

लघु एवं मंझोले उद्योगों में श्रम वाले रोजगारों की संख्या बड़ी फर्मों के मुकाबले चार गुना अधिक है। बहुराष्ट्रीय कंपनियां पूंजीवादी सोच रखती हैं। फरवरी 2016 में मेक इन इंडिया सप्ताह के अंतर्गत अगले पांच वर्षों के लिए 22.5 करोड़ अमेरिकी डॉलर के निवेश की डील हुई। यद्यपि, इस निवेश से मात्र 60 लाख रोजगारों का ही सृजन हो सकेगा। ये पूंजीवादी बहुराष्ट्रीय कंपनियां भारत के उच्च वर्ग को अपनी फैक्ट्रियों में निर्मित सामान बेचना चाहती हैं, उत्पादन में वर्कफोर्स लगाना उनका मकसद नहीं है।