संविधान के द्वारा संघ की भांति राज्यों में भी संसदात्मक व्यवस्था की स्थापना की गयी है और संसदात्मक व्यवस्था में राज्यपाल राज्य की कार्यपालिका का वैधानिक प्रधान होता है जो कि राष्ट्रपति के प्रसादपर्यन्त पद धारण करता है। मन्त्रिपरिषद् राज्य की कार्यपालिका सत्ता की वास्तविक प्रधान होती है।

संविधान के अनुच्छेद 154 के अनुसार, ‘‘राज्य की कार्यपालिका शक्ति राज्यपाल में निहित होगी और वह इसका प्रयोग इस संविधान के अनुसार स्वयं या अपने अधीनस्थ अधिकारियों के द्वारा करेगा।’’ अनुच्छेद 163 के अनुसार, ‘‘उन कार्यों को छोड़कर जिनमें राज्यपाल स्वविवेक से कार्य करता है, अन्य कार्यों के निर्वहन में उसे सहायता प्रदान करने के लिए एक मंत्रिपरिषद् होगी जिसका प्रधान मुख्यमंत्री होगा।’’ मन्त्रिपरिषद सामूहिक रूप से विधानसभा के प्रति उत्तरदायी होती है।

संविधान के द्वारा भारत के प्रत्येक राज्य में एक विधानमंडल की व्यवस्था की गई है। संविधान के अनु.168 में कहा गया है कि प्रत्येक राज्य में 1 विधानमंडल होगा जो राज्यपाल एवं कुछ राज्यों में 2 सदनों से तथा कुछ में 1 सदन से मिलकर बनेगा। जिन राज्यों में 2 सदन होंगें उसके नाम विधानसभा एवं विधानपरिषद् होंगे। राज्यों का विधानमंडल एकसदनात्मक हो या द्विसदनात्मक, इस बात के निर्णय का अधिकार राज्य में निर्वाचित प्रतिनिधियों को ही है। अनु.169 के अनुसार, ‘‘संसद की राज्य में विधान परिषद् की स्थापना या अन्त करने का अधिकार है यदि सम्बन्धित राज्य की विधानसभा अपने कुल बहु मत एवं उपस्थित एवं मतदान करने वाले सदस्यों के 2/3 बहुमत से इस आशय का प्रस्ताव पास करे।

उ.प्र. राज्य संघ के संविधान से शासित है। राज्य की कार्यपालिका के प्रमुख संघटक-राज्यपाल, मन्त्रिपरिषद, विधानपरिषद, विधानसभा है। राज्य की कार्यपालिका के अन्तर्गत राज्यपाल तथा मुख्यमन्त्री के नेतृत्व में एक मन्त्रिपरिषद है। राज्य की कार्यपालिका के सभी अधिकार राज्यपाल में निहित हैं। मुख्यमन्त्री के नेतृत्व में मन्त्रिपरिषद, राज्यपाल को उनके कार्यों में सहायता करती है और सलाह देती है। राज्य में संवैधानिक तंत्र की असफलता की रिपोर्ट को भेजने अथवा राज्य विधानमण्डल द्वारा पारित किसी प्रस्ताव की स्वीकृत देने से सम्बन्धित मामलों में स्वेच्छा और स्वविवेक से निर्णय लेना होता है।

उ.प्र. में द्विसदनात्मक विधानमण्डल है। जिसमें राज्यपाल के अतिरिक्त दो सदन-विधानपरिषद एवं विधानसभा है। विधानपरिषद् के सदस्यों की कुल संख्या 225 तथा विधानसभा में 403 सदस्य है। संसद में लोकसभा की 80 एवं राज्यसभा में 31 सीटें हैं। राज्य में समाजवादी पार्टी, भारतीय जनता पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, भारतीय कम्युनिष्ट पार्टी, राष्ट्रीय लोकदल, अखिल भारतीय कांग्रेस, यूनाइटिड जनता दल, लोक शक्ति पार्टी आदि राजनीतिक दल हैं।

उ.प्र. के पूर्व राज्यपाल बी.एल.जोशी द्वारा वर्ष 2012 में स.पा.के राष्ट्रीय अध्यक्ष मुलायम सिंह के पुत्र अखिलेश की मुख्यमन्त्री पद पर तथा मुख्यमन्त्री की सलाह पर अन्य मन्त्रियों की नियुक्ति हुई जिनमें अखिलेश के चाचा शिवपाल व रामगोपाल सहित अनेक आपसी हितबद्ध व अतिखूंखार शामिल हैं। मुख्यमंत्री के नेतृत्व में मंत्रिपरिषद, राज्यपाल-रामनाइक को उनके कार्यों में सहायता करती है और सलाह देती है।
आज उ.प्र. में लोकतांत्रिक व्यवस्था के सभी पद पर राजनीतिक हस्ताक्षेप चरम पर दिखाई दे रहा है। प्रदेश के सभी संवर्ग पदों पर आसीन अधिकांश व्यक्ति या तो व्यक्ति-विशेष यादव-जाति परिवारों की आवभगत (चापलूसी) में जुटे हुए हैं अथवा अपने पद पर निष्क्रिय बने हुए हैं। संवैधानिक पदों पर अर्ह व्यक्तियों की उपेक्षाकर चयन-मनोनयन प्रसाद की भांति धन-चंदा लेकर मनमाने ढंग से बांटे जा रहे हैं। सरकारी-सार्वजनिक विकास निधियों का धन फर्जी बिल-बाउचर्स के माध्यम से हड़पकर आपस में बंदरबांट किया जा रहा है। आमजनों के कल्याण एवं जनहित के उद्देश्य से निर्मित विकास योजनाओं का धन-संपत्ति व्यक्ति विशेष को देकर उसके लाभ तक सीमित हो रहा हैं। सरकारी कोषों से लाखों-करोड़ों रूपये खर्च कर आयोजित मंचों पर राजनीतिक व्यक्ति विशेष का गुणगान किया जाता है और रोजी-रोटी मांग रही दरिद्र जनता की समस्याओं पर राजनेता-अधिकारी कोई ध्यान नहीं देते हैं।

वर्तमान में प्रदेश के अधिकांश संस्थाओं एवं सरकारी विभागों सहित आयोगों, निदेशालयों, विश्वविद्यालयों, रजिस्ट्रार आदि कार्यालयों में प्रत्येक स्तर के कर्मचारी-अधिकारी जनता के हितों की जबरदस्त उपेक्षा कर अवैध वसूली में जुटे हुए हैं। इनके रेकेट्स के संगठित अपराधी किसी भी कार्य को संपन्न कराने के लिए मनमाना धन चंदा-कमीशन वसूल रहे हैं। इन रेकेट्स में सम्मिलित दलालों की दहशत, अराजकता, अवैध-वसूली, कमीशनबाजी आदि जनविरोधी कार्य प्रदेश के सरकारी-सार्वजनिक कार्यालयों में खुलेआम जारी है। किसी भी कार्य के लिए यथा आवेदन, चयन, नियुक्तियाँ, स्थानान्तरण, शिकायत, निस्तारण, सरकारी आडिट, अवकाशों आदि में कमीशन-रिश्वत के रेट बंधे हुए हैं। जिनकी अग्रिम वसूली बिना कोई भी कार्य आदेश-कार्यवाही संभव नहीं है। सरकारी आफिसों में जनशोषण, उत्पीडन एवं भ्रष्टाचार चरम पर है तथा सरकारी नियम-कानून, उ.प्र.कर्मचारी आचरण संहिता, भारतीय संविधान एवं न्यायिक संहिताओं की जबरदस्त उपेक्षा चरम पर है। यह स्थिति प्रदेश के किसी भी कार्यालय में जाकर देखी जा सकती है। ऐसी स्थिति के कारण राज्य की जनता का जीवन दिनों-दिन बद् से बद्तर होता जा रहा है और जनशोषण एवं भ्रष्टाचार के अपराधी-रैकेट्स प्रोत्साहित हो रहे हैं।

आज प्रदेश में दबंगई, दहशत, चोरी, लूट, डकैती, हत्या, बलात्कार, भ्रष्टाचार, विश्वासघात की विभीषिकाएँ व्यापक हैं। संगठित अपराधियों की योजनाएँ सफल हो रहीं हैं। ऐसी स्थिति में अपराधी और संगठित आपराधों पर अंकुश लग पाना ठीक उसी प्रकार असंभव प्रतीत हो रहा है, जैसे किसी बालक द्वारा अपनी छाया को पकड़ना अथवा किसी नदी-तालाब में प्रतिबिम्बित-चाँद के माध्यम से चद्रमा को पकडना। ऐसा क्यों? उत्तर जानने के लिए अपराधी, अपराध और आपराधिक योजनाओं की अंजाम प्रक्रिया को जानना होगा। अपराधी कौन और कहाँ रहता है? अपराधी की सुरक्षा कैसे होती है? आपराधिक योजनाओं को अंजाम कैसे दिया जाता है? अपराधियों को सहयोग-संरक्षण कौन देता है? अपराध में पुलिस, प्रशासन, न्यायालय, राजनीतिज्ञ व देश-समाज की भूमिकाएँ कैसी होती हैं?

आज हमें देखने को मिलता है कि पद, प्रतिष्ठा और राजनीतिक व्यक्तियों के संपर्क में रहने वाले आवारा अकर्मण्ड जनसेवा के नाम पर रातों-रात प्रगति कर धन-कुबेर बन जाते हैं। इनकी बहुमूल्य पोशाकें, गहनें, वाहन और सुख-साधन तो देखते बनते हैं। पुलिस, प्रशासन, राजनीतिज्ञ, दलाल एवं ठेकेदार इनके गुणगान करते हुए इनके आसपास मंडराते रहते हैं। लाल-नीली बत्ती एवं सायरन वाले वाहनों का जमघट इनकी शान बन जाते हैं। व्यक्ति-समाज का नियंत्रण व सरकारी योजनाएँ इनके द्वारा संचालित होने लगती हैं। अर्थात् देश, राज्य, जिला, नगर, गाँव समाज का विकास सहित सरकारी योजनाओं पर इनका एकाधिकार हो जाता है। क्या मजाल जो इनकी मर्जी बिना स्वतंत्र सांस भी ली जा सके।

ऐसे व्यक्तियों के सम्बन्ध में शिकायत-कार्यवाहीं की स्थिति को समझने के लिए पर्याप्त उदाहरण है, ‘‘एक सभ्य व्यक्ति ने मार्ग में खड़े एक उदंड किशोर को रूक-रूक कर ‘यूरिन’ डिस्चार्ज करते देखा तो उन्होंने किशोर के पिता से मिलने की बात सोची और किशोर के यहाँ जाकर देखा कि उस किशोर का पिता अपने दरवाजे के सामने चबूतरे पर खड़े होकर घूम-घूम ‘यूरिन’ डिस्चार्ज कर रहा है।’’

भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में सामूहिक चुनाव के माध्यम से सामान्य जनता का प्रतिनिधित्व अनिवार्य होने के बावजूद आज साधारण जनों के स्थान पर विशिष्ट जन एवं स्वार्थी-अपराधी मनमाने ढंग से पदासीन हो रहे हैं। यह सामूहिक चुनावों में जनता के बीच लोक-लुभावने सपने दिखाकर और धन-वैभव के प्रचार-प्रसार से जनता के बीच वाह-वाही लूटकर सगे-सम्बंधी आपसी हितबद्ध लोगांं सहित स्वयं को संवैधानिक पदों पर आसीन करने में सफल हो रहे हैं। इनके द्वारा फर्जी प्रस्ताव-कार्यवाही के आधार पर मनमाने आदेश जारी किए जा रहे हैं तथा सांसद-विधायक सरकारी निधियों एवं राजकोषों का धन हड़पा जा रहा है। तथा सामान्य जनों को जन प्रतिनिधित्व से बंचित करने के उद्देश्य से ऊँची शुल्क एवं जटिल प्रक्रिया बनाकर जन-सामान्य को चुनाव लडने से बंचित किया जा रहा है। ऐसे अलोकतांत्रिक प्रावधानों के माध्यम से संगठित अपराधी धन-दहशत के प्रभाव से बारम्बार पदासीनता प्राप्त करने में सफल हो रहे हैं।

राजनीतिक प्रतिनिधियों का प्रयास सत्ता व शक्ति पर किसी प्रकार अधिकार करना और हमेशा तब तक उसके साथ चिपके रहने से होता है जब तक क्रान्ति या षडयन्त्र या चुनाव के द्वारा उन्हें उखाड़ न फेंका जाय। उनका यह भी प्रयास होता है कि सत्ता पर उनके ही परिवार का उत्तराधिकारी स्थापित हो जाये। हर बात जनता की दुहाई देकर लोगों के भावात्मक आवेश को ये प्रतिनिधि अपने पक्ष में कर लेते हैं फिर चरवाहे की तरह इन भेंड़ों को हांकते हैं। जनता पागल होकर इनके पीछे दौड़ती रहती है, इनका यशगान करती रहती है और उन्हें अपना भाग्य-विधाता मानकर पूजा करने लगती है लेकिन अन्ततोगत्वा यह मालूम पड़ जाता है कि ये शक्तियाँ सारा नाटक अपने स्वार्थी केंन्द्र के चारों ओर ही रचती हैं। यह भेद खुल जाने पर पुजारियों को ज्यों ही शंका होने लगती है उन्हें निर्ममता के साथ समाप्त कर दिया जाता है और दूसरे पुजारी उनका स्थान ले लेते हैं। इस प्रकार आगे चलकर ये प्रतिनिधि अपने आतंक के अनेकों हथकंडों द्वारा अपने प्रशंसकों और समर्थकों की जमात बदलते रहते हैं और आलोचकों का सफाया करते रहते हैं।

सामाजिक व्यवस्था में नेतृत्त्व के लिए चुनाव आवश्यक है। चुनाव के माध्यम से सर्वसमाज के योग्य एवं शिष्ट व्यक्तियों को चयन का अवसर प्राप्त होता है। लोकतांत्रिक व्यवस्था जन नेतृत्त्व पर आधारित होती है। लोकतंत्र की संवैधानिक व्यवस्था के अनुरूप देश, राज्य जनपद, ब्लाक, ग्राम व नगर के प्रमुख पदों हेतु पंचवर्षीय चुनाव सम्पन्न होते हैं। इन चुनावों के माध्यम से व्यवस्था संचालन हेतु विभिन्न स्तरों की कार्य-पालिकाओं के सदस्य एवं अध्यक्ष चुने जाते हैं। जिनको पद एवं गोपनीयता की शपथ दिलाई जाती है। इनके प्रत्येक कार्य एवं व्यवहार के लिए आचरण प्रक्रिया संहिताएँ निर्धारित होती है। इनका विपथगमन दण्डनीय होता है।
जब सत्ता का संचालन जनतांत्रिक व्यवस्था के प्रतिकूल हो जाता है और सत्ता गैंग या दलों के आपसी हितबद्ध लोगों के स्वार्थ की पूर्ति तक सीमित हो जाती है, तब चारों तरफ अंधेरा, छल, कपट, भय, दहशत, लूट, डकैती, हिंसा का वातावरण उत्पन्न हो जाता है। सर्वसमाज के लोग एक-दूसरे से सशंकित रहने लगते हैं। क्षण-प्रतिक्षण नवीन घटनाएं घटित होने लगती हैं। लोगों के बीच छलियों का चमत्कारी विघान लागू हो जाता है, लोकतंत्र के हत्यारे एवं लुटेरे समाज के भाग्य-विघाता बन जाते हैं। सामान्य जनसमाज लुटेरों के जलसों का चरणामृत एवं रैली वादों की भीख प्रतीक्षा में जीवन यापन करने को मजबूर हो जाता है। जनता बेरोजगारी, दरिद्रता, मंहगाई और भ्रष्टाचार की मार से तडपती रहती है।

लोग नेतृत्त्व के लिए तरह-तरह का दिखावा करते हैं। कोई अपने को समाजसेवी कहता है, कोई पर्चा-बैनर छपवाता है, कोई रैलियों के मंच पर चढ़कर दहाड़ता है, कोई जनता के चरणों पर अपना सिर रखकर समर्थन की भीख मांगता है, कोई गरीब जनों के घर में घुसकर नमक-रोटी मांग कर खाता है और दरिद्र बच्चों को गोद में लेकर दुलारने लगता है। परन्तु ऐसा करने वाले लोग वास्तव में सामाजिक कार्यों में रूचि नहीं रखने वाले लोग होते हैं और न ही अपने से अधिक किसी अन्य का आदर बर्दास्त कर सकते हैं, बल्कि जनसेवा की दुहाई देकर एवं अपनी नेम-प्लेट्स में जनसेवक शब्द लिखकर एवं पार्टी झंडा-बैनर लगाकर लग्जरी गाड़ियों में बैठ पुलिस-अधिकारियों पर जबरदस्त दबाव बनाकर सरकारी जन कल्याणकारी योजनाओं का धन हड़प बंदरबांट एवं तस्करी व्यापार संचालित करते हैं। इनकी वास्तविक आय के स्रोत अति दयनीय होने के बावजूद इनके पास अकूत धन-सम्पदा पाई जाती है। चुनाव काल में अपनी काली कमाई का कालाधन चुनाव में वोट खरीदनें के लिए प्रयोग करते हैं। चुनाव एजेंट एवं जाति विशेष के लोगों को शराब, खाना, उपहार, धन बांटते हैं, तरह-तरह के प्रलोभन, वादे एवं घोषणाएं करते हैं। खूंखार डकैतों और गिरोहबंद माफियाओं को धन देकर विवादित लोगों के बीच संगीन घटनाओं को अंजाम देकर, विवादित लोगों को फंसाते हैं। बिरादरी को भड़काकर जलूस निकालकर दबाव बनाते हैं और संप्रदायिकता की समस्या उत्पन्न करके आपसी भाईचारा समाप्त कर देते हैं। चुनाव में खाना पैकट, धन, दहशत के प्रभाव से तथा रिश्तेदार एवं भाड़े के अपराधियों को एकत्रित कर फर्जी मतदान कराते हैं।

चुनाव परिणाम के उपरान्त असफल प्रत्याशी अगले चुनाव तक क्षेत्र से पलायन कर जाते हैं। चुनाव में सफल व्यक्ति राजधानी व नगरों में मकान खरीदते हैं और जब सरकारी योजनाओं का धन क्षेत्र को आवंटित होता है तो उस धन का बंदरबांट करने, कागजी खानापूर्ति एवं अपने लोगों में प्रभाव बनाए रखने के उद्देश्य से यदा-कदा क्षेत्र में घूमा-फिरी करते है। इन प्रवासों में अपने विरोधियों को लड़वाने एवं लुटवाने का षड़यंत्र रचते हैं तथा पुलिस दलाली कर जबरदस्त अवैध धन उगाही करते हैं। सदन कार्यवाही में दबाव बनाकर अपना मोलभाव कर पद एवं सुख-सुविधाएं प्राप्त करते हैं। व्यापारियों एवं पेशेवर अपराधियों को सुरक्षा गारण्टी का अश्वासन देकर उनसे मोटी रकम एवं सुविधाए वसूलते है। इनके धन, पद एवं दहशत के प्रभाव में कोई भी व्यक्ति यदि इनकी बात का विरोध सोचता है तो उसे गुगों एवं पुलिस से प्रताड़ित कराकर फर्जी केसों में फंसाकर जेल में डलवा देते हैं। इस तरह हमारा नायक अपराध-व्यापार जगत में डॉन के रूप में प्रतिष्ठित हो रहे हैं। पुनः चुनाव आने पर यह अपना स्वयं का दल या किसी दल में प्रभाव बनाकर जबरदस्ती चुनाव जीतने का प्रयास करने लगते हैं। पुनः रैलियां करने लगते है और यह सिद्ध करने का प्रयास करते है कि लुटने वाले से लूटने वाला अति महान दानी एवं लुटेरा भाग्य विधाता होता है। इस तरह अपनी उपयोगिता बता पुनः सत्ता हथियाने का दुःचक्र रचते हैं। यदि विरोधी इन्हें पराजित करने में सफल होता है तो पुनः अपने को निवर्तमान मंत्री/सांसद/विधायक/अध्यक्ष घोषित कर दल एवं प्रत्याशियों से समर्थन-विरोध का मोलभाव कर धन एवं पद पा लेते हैं तथा जनता के बीच तरह-तरह की अफवाहों का प्रचार-प्रसार कर जबरदस्त प्रभाव बनाते हैं। कुछ लोग तो अपने पद एवं सदस्यता का इस्तीफा देने का ढ़ोंग कर सत्ता पर दबाव बनाकर मंत्री पद तक हथिया लेते हैं। जनसमस्याओं एवं जनसेवा कार्यों से इनका दूर तक कोई संबंध नहीं रहता है। सरकारी विकास निधियाँ 40 प्रतिशत धन लेकर गैर-क्षेत्रीय लोगों को बेची जाती हैं।

नेतृत्त्व पाने वाले लोगों के परिजनों की स्थिति एवं गतिविधियाँ समाज के लिए अत्यन्त घातक बन रहीं हैं। नेताओं के परिजन अपने को महानायक के रूप में प्रतिष्ठित करने में लगे रहते हैं। इनकी सरकारी सुख-सुविधाएं विशिष्ट होती हैं। शिक्षा-परीक्षा कार्य सरकारी अधिकारियों, पुलिसगार्ड व गुर्गों के जुम्में होते हैं। सैरकाल में सरकारी अधिकारी-सुरक्षाकर्मी इनके खिलौने एवं फुटवाल बनते हैं। सरकारी धन-सुविधाएं होटल्स, आहार-विहार के टिप्स पर व्यय होती हैं। पशु-पक्षियों व मानव का शिकार इनकी दिनचर्या मे शामिल होते हैं। इनके सहयोगी उच्चस्तरीय एवं सर्वगुण सम्पन्न धनीवर्ग विशेष के लोग बनते हैं। साधारण-दरिद्र जनों से यह दूरी बनाए रखते हैं। व्यापारी एवं अपराधी अपने लाभ-बचाव के लिए नेताओं के परिजनों को मिष्ठान, फल, दावत, गिफ्ट, धन व नजराना देकर इनकी कृपा के पात्र बनते हैं।

नायक एवं नेतृत्त्व की गतिविधियों पर विचार करने पर यह बात स्पष्ट रूप से सिद्ध हो जाती है कि नेतृत्त्व कर रहे लोग अपने स्वलाभ के लिए किसी भी हद तक जाकर कुछ भी कर सकते हैं। देश, जन, समाज एवं राष्ट्रीय धन-सम्पत्ति इनके जेब की वस्तु होती है। जब चाहें जहाँ चाहें वहाँ प्रयोग या नष्ट कर सकते हैं। देश-समाज का धन एवं सम्पत्ति सदनों में मनमाने प्रस्ताव पारित कर स्वयं हथिया कर पीढ़ियो सहित अपना भविष्य सुरक्षित कर लेते हैं। राष्ट्र-देश सम्पदा का विक्रय, बंटवारा एव अशाँति हेतु विदेशी आतंकवादियों को आमंत्रित किया जाता हैं। खूंखार अपराधियों एवं सगे-सम्बन्धियों को राजदूत- मंत्री बनाया जाता है। नंगे-भूखे निर्दोषजनों को कारागार में डालकर अमानवीय उत्पीडन किया जाता हैं। डाकू-अपराधी मंचासीन होकर अंलकृत होते रहते हैं। जनहित एवं न्याय की बात कहने वालों का दमन किया जाता है। जो देश-समाज के लिए अत्यन्त धातक और कलंक है। तत्काल सुधार होना चाहिए।

डॉ.नीतू सिंह तोमर एम.ए., पी-एच.डी. समाजशास्त्र, पोस्ट डॉक्टोरल फेलो, यू.जी.सी. दिल्ली