(05 सितम्बर शिक्षक दिवस डॉ सर्वपल्ली राधा कृष्णन की जयंती पर विशेष)

मै एक शिक्षक हूँ और हमारा सम्पूर्ण जीवन पढ़ने और पढ़ाने में बिता है अगर हमारा जन्मदिन मनाना है तो कृपया शिक्षक दिवस के रूप में मनाये । का आग्रह करने वाले डा. सर्वपल्ली राधा कृष्णन राजनीति में आने से पहले उन्होंने अपने जीवन के 40 साल अध्यापन को दिये थे। उनका मानना था कि बिना शिक्षा के इंसान कभी भी मंजिल तक नहीं पहुंच सकता है । इसलिए इंसान के जीवन में एक शिक्षक होना बहुत जरूरी है।भारत रत्न से सम्मानित डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने इसलिए शिक्षकों को सम्मान देने के लिए अपने जन्मदिन को शिक्षक दिवस के रूप मे मनाने की बात कही। आज शिक्षकों ,शिक्षा शास्त्रियों और शिक्षार्थियों की दुर्दशा देखकर लगता है हमें एक बार उनकी अध्यक्षता में गठित उच्च शिक्षा आयोग के और उनके अन्य संदर्भित बिचारों की उपयुक्तता का मूल्यांकन करते हुए देखना चाहिए कि उन्हें कितना अपनाया गया और कैसे अपनाया जा सकता है।

जब वो विद्यार्थी थे उस समय उनके कुछ मित्र विदेश में पढ़ने के लिए जा रहे थे तो उन्होंने राधा कृष्णन से पूछा आप विदेश पढ़ने नहीं जायेगें तो उन्होंने बहुत ही निर्भीक होकर उत्तर दिया पढ़ने नहीं पढ़ाने जाउगा। उनकी बात आगे चलकर सही सिद्ध हुई और १९२२ में आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय द्वारा “दी हिन्दू व्यू ऑफ लाइफ “ विषय पर व्याख्यान देने के लिए आमंत्रित किया गया । ऐसे ही जब स्टालिन के निमंत्रण पर उससे भेटं करने गए और उसकी ठुड्डी पर हाथ लगाकर सिर और पीठ पर हाथ फेर कर पूछा कैसे हो तो स्टॅलिन ने कहा कि आप हमें आदमी समझ कर व्यवहार करने वाले पहले आदमी है यहाँ के लोग मुझे दैत्य समझते है । इस प्रकार भारतीय विचारों और संस्कारो के प्रति आत्मीयता का संचार पाशचात्य जगत में फैलाकर भारत और भारतीयता की अलख जगाई ।

इन दिनों जब शिक्षा की गुणात्मकता का ह्रास होता जा रहा है और गुरु-शिष्य संबंधों की पवित्रता को ग्रहण लगता जा रहा है, उनका पुण्य स्मरण फिर एक नई चेतना पैदा कर सकता है। शिक्षा के क्षेत्र में जो अमूल्य योगदान दिया वह निश्चय ही अविस्मरणीय रहेगा ।उनकी मान्यता थी कि यदि सही तरीके से शिक्षा दी जाए तो समाज की अनेक बुराइयों को मिटाया जा सकता है। वे छात्रों को प्रेरित करते थे कि वे उच्च नैतिक मूल्यों को अपने आचरण में उतारें। दर्शन जैसे गंभीर विषय को भी वे अपनी शैली की नवीनता से सरल और रोचक बना देते थे। उनका कहना था कि मात्र जानकारियाँ देना शिक्षा नहीं है। शिक्षा का लक्ष्य है ज्ञान के प्रति समर्पण की भावना और निरंतर सीखते रहने की प्रवृत्ति। वह एक ऐसी प्रक्रिया है जो व्यक्ति को ज्ञान और कौशल दोनों प्रदान करती है तथा इनका जीवन में उपयोग करने का मार्ग प्रशस्त करती है। करुणा, प्रेम और श्रेष्ठ परंपराओं का विकास भी शिक्षा के उद्देश्य हैं। जब तक शिक्षक शिक्षा के प्रति समर्पित और प्रतिबद्ध नहीं होता और शिक्षा को एक मिशन नहीं मानता तब तक अच्छी शिक्षा की कल्पना नहीं की जा सकती। उनका कहना था कि शिक्षक उन्हीं लोगों को बनाया जाना चाहिए जो सबसे अधिक बुद्धिमान हों। शिक्षक को मात्र अच्छी तरह अध्यापन करके ही संतुष्ट नहीं हो जाना चाहिए। उसे अपने छात्रों का स्नेह और आदर अर्जित करना चाहिए। सम्मान शिक्षक होने भर से नहीं मिलता, उसे अर्जित करना पड़ता है। वे कहते थे कि विश्वविद्यालय गंगा-यमुना के संगम की तरह शिक्षकों और छात्रों के पवित्र संगम हैं। विश्वविद्यालय जानकारी बेचने की दुकान नहीं हैं, वे ऐसे तीर्थस्थल हैं जिनमें स्नान करने से व्यक्ति को बुद्धि, इच्छा और भावना का परिष्कार और आचरण का संस्कार होता है। उच्च शिक्षा का काम है साहित्य, कला और व्यापार-व्यवसाय को कुशल नेतृत्व उपलब्ध कराना। उसे मस्तिष्क को इस प्रकार प्रशिक्षित करना चाहिए कि मानव ऊर्जा और भौतिक संसाधनों में सामंजस्य पैदा किया जा सके। उसे मानसिक निर्भयता, उद्देश्य की एकता और मनकी एकाग्रता का प्रशिक्षण देना चाहिए।

अमरीका में भारतीय दर्शन पर उनके व्याख्यान बहुत सराहे गए। उनके व्यक्तित्व और विद्वत्ता से प्रभावित होकर ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय ने धर्म और नीतिशास्त्र विषय पर एक चेअर की स्थापना की और उसे सुशोभित करने के लिए डॉ. राधाकृष्ण को आमंत्रित किया। सन 1939 में जब वे ऑक्सफोर्ड से लौटकर कलकत्ता आए तो पंडित मदनमोहन मालवीय के अनुरोध पर वे बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर बनें । सन1962 में वे भारत के राष्ट्रपति चुने गए। देश के सर्वोच्च पद पर पहुँचकर भी वे सादगीभरा जीवन बिताते रहे। 17 अप्रैल 1975 को हृदयाघात के कारण उनका निधन हो गया। यद्यपि उनका शरीर पंचतत्व में विलीन हो गया तथापि उनके विचार वर्षों तक हमारा मार्गदर्शन करते रहेंगे। डॉ राधाकृष्णन विवेकानंद और वीर सावरकर को अपना आदर्श मानते थे। इनके बारे मे इन्होंने गहन अध्ययन कर रखा था। अपने लेखों और भाषणों के माध्यम से उन्होंने समूचे विश्व को भारतीय दर्शन शास्त्र से परिचित कराने का प्रयास किया। शिक्षा और राजनीति में उत्कृष्ट योगदान देने के लिए राधाकृष्णन को सर्वोच्च अलंकरण “भारत रत्न” से सम्मानित किया गया। आवश्यकता है उनके विचारों को नई शिक्षा निति में आत्मसात कर भारतीय दर्शन वैश्विक धरातल पर उतारने की ।उनकी जयंती पर शिक्षक उनके विचारों को अपने विद्यार्थियों में बीजारोपण करें जिससे आनेवाली पीढ़ी आदर्श नागरिक बन राष्ट्र के पुनर्निर्माण में सहभागी हो ।

-डॉ हरनाम सिंह

(लेखक दीन दयाल उपाध्याय कौशल केंद्र सरदार भगत सिंह राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय रुद्रपुर उत्तराखंड में सहायक आचार्य है।)