नई दिल्ली: मोदी सरकार ने अंग्रेजों के समय से चले आ रहे देश में वित्त वर्ष का कैलेंडर बदलने का मन बना लिया है। यानी अब 1 अप्रैल से नहीं 1 जनवरी से नया फाइनेंसियल ईयर (वित्त वर्ष) शुरू करने की दिशा में सरकार ने कोशिश शुरू कर दी है। अभी केंद्र और राज्य सरकारें 1 अप्रैल से 31 मार्च तक वित्त वर्ष मानती हैं और उसके अनुसार ही योजनाएं तय होती हैं। सरकार ने mygov.in पर लोगों से इस बदलाव के संबंध में राय मांगी है।

मोदी सरकार ने पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार डॉ शंकर आचार्य के नेतृत्व में एक समिति गठित की गई है। यह समिति ही नए वित्त वर्ष शुरू करने के हर पहलुओं पर विचार और जांच करेगी। इस समिति में पूर्व कैबिनेट सचिव के.एम.चन्द्रशेखर, तमिलनाडु के पूर्व मुख्य वित्त सचिव पी.वी.राजारमण और सेंटर ऑफ पॉलिसी रिसर्च के वरिष्ठ फेलो डॉ राजीव कुमार को शामिल किया गया है।

वित्त वर्ष को 1 अप्रैल के बजाय 1 जनवरी से किये जाने का मुद्दे 30 साल पहले भी उठा था। इससे पहले वर्ष 1985 में एल.के.झा समिति ने इस बारे में मूल्यांकन किया था। हालांकि तत्कालीन सरकार ने वित्त वर्ष के कैलेंडर में बदलाव के प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया था। वित्त वर्ष बदलने के पक्ष और विपक्ष में कई तर्क दिये जा रहे हैं, जो सरकार द्वारा बजट एवं नकद प्रबंधन, सरकारी राजस्व एवं खर्च की अवधि, बजट पूर्वानुमान पर मानसून का प्रभाव, कार्य अवधि, संसद द्वारा बजट को पास करने में लगने वाली समयावधि, अंतरराष्ट्रीय वित्तीय आंकड़ों से तुलना आदि जैसे मुद्दों के इर्द-गिर्द हैं।

प्रधानमंत्री ने खुद भी इस विमर्श में दिलचस्पी दिखाते हुए ‘mygov.in’ फोरम पर लोगों के सुझाव मांगे हैं। फोरम की एक घोषणा में कहा गया है, 'हम समिति के संदर्भ की शर्तों और इससे संबंधित मुद्दों पर आपकी टिप्पणियों, सुझावों, सूचनाओं एवं कागजातों का स्वागत करते हैं। कृपया इसे 30 सितंबर के पहले मुहैया करायें।' शंकर आचार्य समिति को इस साल दिसंबर तक रिपोर्ट देने के लिए कहा गया है। समिति को नये वित्त वर्ष की संभाव्यता के मूल्यांकन के अलावा सुझावों के कारण, विभिन्न कृषि फसल चक्रों पर सुझावों के प्रभाव, कारोबार पर प्रभाव, कर प्रणाली एवं प्रक्रिया आदि भी बताने के लिए कहा गया है।

1 अप्रैल से वित्त वर्ष की शुरुआत अंग्रेजों के समय से ही यानी वर्ष 1867 में हुई थी। तब से भारत में इसका ही अनुसरण किया जाता रहा है। करीब 150 साल पुरानी इस प्रक्रिया पर सबसे पहली बार 1984-85 के दौरान सवाल उठे थे और अब वर्तमान सरकार इसका पुनर्मूल्यांकन कर रही है। मोदी सरकार ने पहले ही अगले वित्त वर्ष से रेलवे बजट को आम बजट में ही मिलाने का निर्णय ले चुकी है। अलग रेल बजट भी एक औपनिवेशिक परंपरा थी जिसे अंतत: अलविदा कह दिया गया।