लखनऊ: 21 लाख से ज़्यादा बाल मजदूरों की संख्या के साथ, उत्तर प्रदेश बाल मजदूरी में देश में भारी अंतर के साथ सबसे आगे है. क्राइ (चाइल्ड राइट एंड यू) द्वारा किये गए जनगणना के विश्लेषण के मुताबिक़ इन 21 लाख में 7.5 लाख से अधिक बाल मजदूर या तो निरक्षर हैं या फिर मजदूरी के कारण उनकी पढ़ाई नकारात्मक रूप से प्रभावित होती है.
2011 की जनगणना के अनुसार प्रदेश में 2176706 बाल-मजदूर थे. इनमें से करीब 60 फीसदी सीमान्त मजदूर थे जो कि साल में 6 महीने से कम समय के लिए मजदूरी करते थे. शेष 9 लाख बच्चे मुख्य मजदूर थे जो कि 6 महीने से ज़्यादा समय के लिए मजदूरी कर रहे थे.
विस्तृत विश्लेषण से पता चलता है कि 7-14 आयु वर्ग में लगभग 3 लाख मुख्य मजदूर लिख और पढ़ नहीं सकते हैं जबकि 4.7 लाख से ज़्यादा सीमान्त मजदूर ऐसे हैं जिनके लिए पढ़ाई प्राथमिकता नहीं है.
संस्था क्राई की स्थानीय निदेशक (रीज़नल डाइरेक्टर) सोहा मोइत्रा बताती हैं, “ उत्तर प्रदेश में 33 फीसदी बाल मजदूर निरक्षर हैं, यानी कि हर तीन में से एक बाल मजदूर को पढना लिखना नहीं आता. यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है और अगर इसमें परिवर्तन नहीं होता तो ये बच्चे गरीबी और बेरोजगारी के पीढ़ी दर पीढ़ी चलने वाले चक्र का हिस्सा बनकर रह जाएंगे. प्रदेश में न केवल बाल मजदूरों की संख्या सबसे ज़्यादा है बल्कि ये संख्या चिंताजनक रूप से 2001 की जनगणना के मुकाबले 13 फीसदी ज़्यादा है.”
क्राइ (चाइल्ड राइट एंड यू) द्वारा किये गए जनगणना के विश्लेषण से ये भी पता चलता है कि राष्ट्रीय स्तर पर 7-14 आयु वर्ग के करीब 14 लाख बाल मजदूर अपना नाम तक नहीं लिख पाते.
भारत का न्याय तंत्र इस धारणा पर आधारित है कि बच्चे काम करते हुए भी शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं. लेकिन समस्या ये है कि बाल मजदूरों की शिक्षा के सम्बन्ध में उपलब्ध मौजूदा आंकड़े स्पष्ठ तौर पर इस तर्क पक्ष में नहीं दिखाई देते. बाल-मजदूरी कानून के प्रभावी होने के तीस साल बाद आज भारत के पास ये मौका है कि वो हर तरह की बाल-मजदूरी पर प्रतिबंध लगाए. लेकिन इसके उलट नया क़ानून भी इस आयु वर्ग के बच्चों को स्कूल की अवधि के बाद घरेलू व्यवसायों में काम करने की अनुमति दे देता है.
वर्ष 2011 की जनगणना में बाल-मजदूरी के आंकड़े बताते हैं कि भारत में 5 से 14 वर्ष की आयु वर्ग के अंतर्गत आने वाले 65 लाख बच्चे कृषि और घरेलू उद्योगों में काम करते हैं. आश्चर्यजनक रूप ये संख्या इस आयु-वर्ग के बाल मजदूरों की 64.1 फीसदी है. संस्था ‘क्राई’ के ज़मीनी अनुभव बताते हैं कि इन व्यवसायों में लगे हुए बच्चों की बड़ी संख्या उनकी है जो अपने माता-पिता के साथ काम कर रहे हैं, जिससे उन्हें प्रस्तावित प्रतिबन्ध से छूट मिल जाती है..
सोहा आगे बताती हैं- “बच्चे जो घरेलू कामकाजों में लगे हैं वो ज़्यादा लम्बे समय तक काम करते हैं और साथ में उन्हें स्कूल भी जाना होता है. इससे उनपर शारीरिक और मानसिक दबाव पड़ सकता है परिणामस्वरूप इससे उनकी उपस्थिति प्रभावित होती है. स्कूल के बाद खेलने के समय और सामाजिक जुड़ाव में कमी की वजह से बच्चा स्कूल छोड़ने को मजबूर हो सकता है. इस तरह से 14 साल के बच्चों को घरेलू काम करने की अनुमति देना दरअसल उनके लिए शिक्षा के सामान अवसर और उनके सम्पूर्ण विकास को नकारने की तरह ही है.”
उस उम्र में जब बच्चों को शिक्षा की सीढ़ियों पर चढ़ना चाहिए यह जानना बेहद चिंताजनक है कि राष्ट्रीय स्तर पर पिछले दस साल में 5-9 आयु वर्ग के बाल मजदूरों में 37 प्रतिशत का इजाफ़ा हुआ है. बच्चों को आर्थिक भूमिका निभाने के लिए मजबूर करना शिक्षा के अधिकार की मूल भावना के प्रतिकूल है. जिसे केवल स्कूल जाने का वक्त निर्धारित करने तक सीमित रखने के बजाय सभी को पढ़ने और सीखने के सामान अवसर दिए जाने के रूप में देखे जाने की ज़रुरत है.