अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कितनी है? और अभिव्यक्ति की क्या सीमाएंे हैं? इसका मूल्यांकन लोगों ने और देशों ने अपने-अपने सुविधाओं, स्वार्थों, राजनीति लाभों के आधर पर कर ली है। अपने आप को सभ्य और विकसित देशों में रहने वाले, कुंठा, ईष्र्या, भेदभाव, दूसरों के आस्था से खेलते रहते हैं। इसे अभिव्यक्ति का स्वतंत्रता  बताते हैं। यह कैसी अभिव्यक्ति और कैसी स्वतंत्राता है जिससे लाखों लोग आहत होते हैं, उनका आस्था पामाल होता है। सहनशीलता की एक सीमा होती है। यह वही लोग हैं जिन्होंने विश्व की व्यवस्था, शान्ति, व्यापार, सभ्यता और संस्कृति का ठेका ले रखा है। किसी भी देश पर प्रतिबन्ध लगाना, व्यापारिक और आर्थिक रूप से किसी देश पर प्रहार करना, किसी भी सरकार को अस्थिर करना, किसी भी देश में अराजकता पैदा करना, गृहयुद्ध  की स्थिति पैदा करना और अन्तः सुरक्षा, शान्ति और आतंकवाद के नाम पर सैनिक कार्यवायी करके देश को तबाह कर देना। मैं कतई इसका पक्षधर  नहीं हूं कि प्रतिक्रिया स्वरूप निर्दोष नागरिकों पर गोली चलाई जाऐ, बंध्क बनाया जाये और आतंकवादी गतिविधियों  का सहारा लिया जाऐ। मगर मैं यह भी नहीं चाहता कि कोई अपने कला और ज्ञान का प्रदर्शन करने के लिए, चेहरों पर मुस्कान लाने के लिऐ, व्यंग्य के लिऐ किसी के आस्था और धर्म  पर कुठाराघात करे। 

फ़्रांस  में दूसरी घटना घट गई। पहली घटना के पश्चात् पिफर से वही हुआ जिसका आधर पहली घटना थी। जोर व शोर से फिर  से व्यंग्य छापा गया। प्रचार हुआ और विरोध् और शोक शैली में भी वही व्यंग्य का प्रदर्शन हुआ। आतंकवादी घटना निन्दनीय है और व्यंग्य का उत्तर व्यंग्य होना चाहिऐ अथवा उसे टाल देना चाहिऐ। ऐसी प्रतिक्रिया उन गुमनामों को खुराक प्रदान करता है और वह पल भर में विश्वविख्यात हो जाते हैं। 

फ़्रांस  की सरकार और उनके साथ खड़े लोग, आतंकवाद के इस घटना को स्वतंत्राता और अभिव्यक्ति पर आक्रमण मान रहे हैं। पिछली घटना में व्यंग्य पत्रिका शार्लि हैडो के मुख्यालय पर आक्रमण हुआ था, जिसमें कुल 12 व्यक्तियों की जान गयी थी, जिसमें 2 पुलिस अधिकारी  भी शामिल थे। फ़्रांस के इतिहास में पिछले चार दशकों में होने वाली यह सबसे जघन आतंकवादी घटना थी, जिसने दो दिनों तक पूरे फ़्रांस  को लगभग रोके रखा था। फ़्रांस में जन्म लेने वाले दो अरब मूल के भाइयों ने (शरीफ और सईद कवायी) पत्रिका के मुख्यालय में घूस गऐ। यह घटना उस समय की है जब पत्रिका के मुख्य सम्पादक अपने सम्पादकीय टीक के साथ अगले अंक के प्रकाशन पर चर्चा कर रहे थे। मरने वालों में दो मुसलमान थे, जिसमें एक पुलिस अध्किारी और दूसरा पत्रिका का कर्मचारी शामिल  है। इसी व्यंग पत्रिका ने 2006, 2011, 2013 में पैगम्बर साहब पर व्यंगात्मक प्रतियां छापी थी, जिस पर विश्व भर में प्रतिक्रिया हुई थी और पत्रिका के मुख्यालय पर बम से हमला भी हुआ था। 

पत्रिका के मुख्यालय और अन्य स्थानों पर हुऐ इस आतंकवादी और जघन्य घटनाओं के विरोध् में फ़्रांस  की राजधनी पेरिस में, सरकारी स्तर पर मार्च का आयोजन किया गया, जिसमें देश और देश से बाहर के 10 लाख से अध्कि लोगों ने भाग लिया, मार्च में लोगों ने पत्रिका की कापी उठा रखी थी, मार्च में भाग लेने वालों में ब्रिटेन के प्रधनमंत्राी, कैमरून, जर्मन चान्सलर इन्जला मरकुल, इजराईयली प्रधनमंत्राी,फिलिस्तीन के राष्ट्रपति, तुर्की के प्रधानमन्त्री  के अतिरिक्त अन्य अरब देशों के अध्यक्षों और शासनाध्यक्षों ने भाग लिया था। मार्च में पत्रिकाओं के पोस्टर बनाने के विरोध् में कुछ अरब देशों ने भाग नहीं लिया था। 

व्यंग और अभिव्यक्ति तो देखिऐ! कुछ समय पूर्व की एक घटना है जो हालैन्ड में घटित हुई थी। जिसके अन्तर्गत एक कलाकार ने अपने कला का प्रदर्शन करने के लिए एक निर्वस्त्र महिला के शरीर पर कुरान की आयात लिखे और पिफर उस पर पैगम्बर साहेब का व्यंगात्मक चित्रा बनाया था। एक अरब ने उस कलाकार की हत्या कर दी थी। यह कैसा कला का प्रदर्शन है। जिसके तहत 1 अरब 60 करोड़ लोगों का दिल दुखाया जाता है। यह महज मानसिक दिवालियापन, बढ़ते इस्लामी प्रभाव का डर है। 

इस्लाम फ्रांस का दूसरा बड़ा धर्म  है और यूरोप मे सबसे अधिक  70 लाख मुसलमान फ्रांस  में रहते हैं। यहां पर रहने वाले मुसलमान अधिकतर  उस देश के हैं जो देश कभी फ़्रांस  का उपनिवेश रहा है। उसमें मोराकश, अलजिरिया और तुनेशयाई मूल के लोग हैं। अगर इस विरोध् और आतंकवादी गतिविधियों  के अन्य पहलू पर नजर दौड़ाएं  तो कार्टून के साथ-साथ कई अन्य कारण पर भी विचार करना होगा। फ्रांस में आतंकवादियों का जन्म हुआ था, और उनकी शिक्षा दीक्षा भी आधुनिक परिवेश में हुआ था। फ़्रांस  की सरकार ने महिलाओं और लड़कियों को बुरका पहनने पर रोक लगा रखी है। जिसके अधीन  जुर्माना और नौकरी से हाथ तक धोना  पड़ सकता है। यूरोपीय देश और वहां के नागरिकों में इस्लाम के खिलाफ आक्रोश और डर में लगातार बढ़ोत्तरी हुई है। जिसे इस्लामोपफोबिया का नाम दिया गया है। इसी के अन्तर्गत जर्मनी में प्रत्येक सप्ताह इस्लाम के विरोध् में नागरिक सड़क पर उतरते रहते हैं। लगातार नाटो और अमेरिकी पैफसलों में फ्रांस का इस्लाम और इस्लामी विरोधी  चेहरा सामने आता रहा है। मगर सरकार को इस प्रकार की अभिव्यक्ति का समर्थन नहीं किया जाना चाहिऐ और इस प्रकार की जघन्य अपराध् और आतंकवाद इस्लाम और इस्लाम के पैगम्बर से मुहब्बत का परिचायक भी नहीं है। 

फखरे आलम