केंद्र में मोदी सरकार बनने के बाद सोहराबुद्दीन शेख और तुलसीराम प्रजापति फर्जी एंकाउंटर मामले के आरोपी अमित शाह के वकील रहे उदय यू ललित का नाम वरिष्ठता क्रम में नीचे होने के बावजूद जज बनने के लिए भेजे जाने, पेशी के दौरान अमित शाह के लगातार अनुपस्थित होने पर शाह के वकील से स्पष्टीकरण मांगने वाले जज जेटी उत्पत का दूसरे ही दिन ट्रांस्फर कर दिए जाने से ही साफ हो गया था कि सीबीआई की पूरी कोशिश किसी भी तरह अमित शाह को क्लीनचिट दे देने की है। और ठीक यही हुआ भी। पिछले दिनों ही अमित शाह के वकील ने मुंबई स्थित सीबीआई कोर्ट में शाह पर से आरोप हटाने की दरख्वास्त दायर की और इसके लीए तीन दिन से ज्यादा वक्त तक अपना पक्ष रखा। जबकि किसी फिक्स्ड मैच की तरह सीबीआई के वकील ने अमित शाह के खिलाफ हजारों पन्नों का दस्तावेज होने के बावजूद अपनी बात को पंद्रह मिनट से भी कम समय में समेट लिया और सीबीआई अदालत ने तथ्यों का अभाव बताकर अमित शाह को ‘क्लीनचिट’ दे दिया।

इस तरह इस मामले में किसी शेक्सपीरियन ट्रैजिक नाटक की तरह मुख्य हीरो दिख रही सीबीआई ही विलेन बन गई। उसने अपनी ही चार्जशीट जिसमें अमित शाह को इन दोनों फर्जी मुठभेड़ों का मास्टरमाइंड के अलावा उन्हें गुजरात पुलिस के कुछ पुलिस अधिकारियों जिनमें से अधिकतर फर्जी मुठभेड़ों के आरोप में जेल में हैं के साथ अवैध धन वसूली के रैकेट के संचालन का दोषी बताया गया था, को ही खारिज करने में विरोधी वकील की मदद की।

लेकिन अब तक सत्ता के पक्ष में ढेरों क्लीनचिट इकठ्ठा कर चुकी सीबीआई के लिए यह क्लीनचिट उसकी लम्बी फेहरिस्त में सिर्फ एक और क्लीनचिट का जुड़ जाना भर नहीं है। यह राष्ट्रीय सुरक्षा, न्याय और लोकतंत्र की अब तक कि अवधारणा को नए सिरे से परिभाषित करने की कोशिश है जिसके दूरगामी परिणाम होने हैं। क्यांेकि इस ‘क्लीनचिट‘ ने साफ कर दिया है कि आप भगवा रंग का पट्टा डाले हुए किसी को भी, खासकर मुसलमान को आतंकवादी बता कर ‘राष्ट्रीय सुरक्षा’ के नाम पर मार सकते हैं और अदालत से क्लीनचिट पा सकते हैं। इसलिए यह सिर्फ किसी आपराधिक षडयंत्र से किसी व्यक्ति को ‘क्लीनचिट’ नहीं है बल्कि उस आपराधिक, साम्प्रदायिक और हत्यारी राजनीतिक संस्कृति को ‘क्लीनचिट’ है, जिसका वह हिस्सा है। उसे आगे बढ़ते रहने की हरी झंडी है। दूसरे शब्दों में यह इस तथ्य की तस्दीक है कि भारत के धर्मनिरपेक्ष देश होने, उसकी कानून के नजर में सभी के बराबर होने की घोषणाएं महज अफवाह हैं। जिसे पहले के किसी भी समय से ज्यादा आज लोग जान गए हैं। 

लेकिन उससे भी दुखद कि कानून के राज को मजाक बना देने वाले इस ‘क्लीनचिट घोटाले’ को लेकर सरकार द्वारा सीबीआई के दुरुपयोग पर विपक्ष खासकर कांग्रेस और सामाजिक न्याय के नाम पर राजनीति करने वाली सपा और बसपा जैसी पार्टियां न तो सवाल उठाने का नैतिक अधिकार रखती हैं और ना मंशा। क्योंकि जहां कांग्रेस ने खुद सत्ता में रहते हुए सीबीआई का भरपूर दुरुपयोग किया है, वहीं सपा और बसपा जैसी पार्टियों के नेतृत्व की सांसें सीबीआई की गिरफ्त में रहती हैं जो कभी भी भ्रष्टाचार और आय से अधिक सम्पत्ति की जांच का डर दिखा कर इन्हें चुप करा सकती है।  

इसीलिए हम देखते हैं कि लोकसभा चुनाव से काफी पहले ही एक प्रतिष्ठित अग्रेंजी पत्रिका में इसका खुलासा हो जाने के बाद भी कि सीबीआई प्रमुख रंजीत सिंन्हा अमित शाह को गिरफ्तारी से बचाने के बदले सम्भावित मोदी सरकार के महत्वर्पूण लोगों से अपने कार्यकाल के बढ़ाए जाने के वादे पर सहमत हो गए हैं और इसके लिए वे सोहराबुद्दीन और तुलसीराम प्रजापति हत्या कांड जो अलग-अलग हैं और जिन दोनों में शाह मुख्य अभियुक्त हैं को एक ही केस के बतौर सीबीआई कोर्ट में रख कर केस को कमजोर करने के फारमूले पर चलने वाले हंै, विपक्ष ने खामोशी बनाए रखी। जाहिर है ऐसा इसलिए भी था कि आतंकवाद के मसले पर मोदी या अमित शाह के संघी नजरिए से कोई अलग नजरिया कांग्रेस और दूसरी पार्टियों के पास नहीं है। 

दरअसल नजरिए के इसी समानता के कारण देखा गया कि इशरत जहां फर्जी मुठभेड़ मामले में दोषी पुलिस अधिकारियों द्वारा अदालत में दिए गए हलफनामे कि उन्होंने यह फर्जी मुठभेड़ ‘सफेद दाढ़ी’ और ‘काली दाढ़ी’ के कहने पर किया था जिसमें खुफिया विभाग के अधिकारी राजेंद्र कुमार भी शामिल थे, में सीबीआई ने ‘सफेद दाढ़ी’ और ‘काली दाढ़ी’ के संदर्भ में कह दिया कि उसे नहीं मालूम कि सफेद और काली दाढ़ी कौन हैं। जबकि जांच एजेंसी होने के नाते उसका काम ही ऐसे कोड को डिकोड करना है। लेकिन देश के शीर्ष जांच एजंेसी ने सुविधा के अनुसार अपने को यहां ‘बुद्धू’ घोषित करवा लिया। जबकि पूरा देश जानता है कि यह मोदी और अमित शाह के लिए इस्तेमाल होने वाले कोड हैं। लेकिन सरकार चला रही कांग्रेस ने इस मसले पर कोई सक्रीयता नहीं दिखाई। उल्टे एक अभूतपूर्व घटनाक्रम में तत्कालीन गृहसचिव आरके सिंह ने आईबी और सीबीआई के बीच समझौता कराया कि इस मामले के अहम आरोपी खुफिया अधिकारी राजेंद्र कुमार जो मोदी के उस समय के दोस्त हैं जब वे हरियाणा के भाजपा प्रभारी हुआ करते थे और जिनके ‘इनपुट्स’ के आधार पर ही मोदी को कथित तौर पर मारने आने वाले करीब आधा दर्जन ‘आतंकवादियों’ को पुलिस अधिकारी बंजारा की टीम ने फर्जी मुठभेड़ों में मार गिराया था को गिरफ्तार करना तो दूर उनसे पूछताछ भी नहीं की जानी है। यहां गौरतलब है कि कांग्रेस सरकार के नजदीकी माने जाने वाले आरके सिंह अब भाजपा से लोकसभा सदस्य हैं। 

यानी हम देख सकते हैं कि ब्यूरोक्रेसी के लालची तत्वों, पक्ष और विपक्ष के दलों के बीच आतंकवाद के नाम पर मुसलमानों को फर्जी मुठभेड़ों में मारने और दोषियों को बचाने का एक खतरनाक और घृणित गठजोड़ खुलेआम काम कर रहा है। जो निश्चित तौर पर अजित डोभाल और पीके मिश्रा जैसे लोगों के जो इन फर्जी मुठभेड़ों को ‘राष्ट्रहित’ में सही ठहराते रहे हैं के पीएमओ में आ जाने के बाद और मजबूत हुआ है। जो सुप्रीम कोर्ट के शब्दों में 2002 में अक्षरधाम मंदिर पर हुए कथित आतंकी हमले के आरोप में 11 साल तक जेल में बंद रहे निर्दोषों पर पोटा आयद करते समय बतौर राज्य के गृहमंत्री अपने ‘दिमाग का इस्तेमाल न करने’ वाले नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बन जाने के बाद अपनी ताकत का और भी एहसास कराएगा। 

यानी अमित शाह को क्लीनचिट तो सिर्फ टेªलर है, पूरी फिल्म अभी बाकी है। जिसके अगले दृष्यों में शायद हम देखें कि गुरजात के पूर्व गृहमंत्री हरेन पंड्या की हत्या की दुबारा जांच कराने की उनकी पत्नी जागृति बेन पंड्या की मांग को गैरजरूरी बताते हुए खारिज कर दिया जाए। जिसके बारे में जागृति पंडया का हमेशा से कहना रहा है कि उनकी हत्या नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने करवाई थी।  

शाहनवाज आलम

लाटूश रोड, नया गांव ईस्ट