नई दिल्ली

आज संसद में “वंदे मातरम्” पर हुई बहस के संदर्भ में जमीयत उलमा-ए-हिंद के अध्यक्ष मौलाना अरशद मदनी ने कहा कि हमें किसी के वंदे मातरम् पढ़ने या गाने पर कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन हम यह बात फिर से स्पष्ट करना चाहते हैं कि मुसलमान केवल एक अल्लाह की इबादत करता है और अपनी इस इबादत में किसी दूसरे को शरीक नहीं कर सकता।

उन्होंने आगे कहा कि वंदे मातरम् की कविता की कुछ पंक्तियाँ ऐसे धार्मिक विचारों पर आधारित हैं जो इस्लामी आस्था के खिलाफ हैं। विशेष रूप से इसके चार अंतरों में देश को “दुर्गा माता” जैसे देवी के रूप में प्रस्तुत किया गया है और उसकी पूजा के शब्द प्रयोग किए गए हैं, जो किसी मुसलमान की बुनियादी आस्था के विरुद्ध हैं।

उन्होंने यह भी कहा कि भारतीय संविधान हर नागरिक को धार्मिक स्वतंत्रता (अनुच्छेद 25) और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता (अनुच्छेद 19) देता है। इन अधिकारों के अनुसार किसी भी नागरिक को उसके धार्मिक विश्वास के विरुद्ध किसी नारे, गीत या विचार को अपनाने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता।

मौलाना मदनी ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट का भी यह स्पष्ट फैसला है कि किसी भी नागरिक को राष्ट्रगान या ऐसा कोई गीत गाने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता जो उसके धार्मिक विश्वास के खिलाफ हो।

उन्होंने कहा कि वतन से मोहब्बत करना अलग बात है और उसकी पूजा करना अलग बात है। मुसलमानों को इस देश से कितनी मोहब्बत है इसके लिए उन्हें किसी प्रमाण-पत्र की जरूरत नहीं है। आज़ादी की लड़ाई में मुसलमानों और जमीयत उलमा-ए-हिंद के बुजुर्गों की कुर्बानियाँ और विशेष रूप से देश के बंटवारे के खिलाफ जमीयत उलमा-ए-हिंद की कोशिशें दिन की रोशनी की तरह स्पष्ट हैं। आज़ादी के बाद भी देश की एकता और अखंडता के लिए उनकी कोशिशें भुलाई नहीं जा सकतीं।

हम हमेशा कहते आए हैं कि देशभक्ति का संबंध दिल की सच्चाई और अमल से है, न कि नारेबाज़ी से।

मौलाना मदनी ने वंदे मातरम् के बारे में कहा कि ऐतिहासिक रिकॉर्ड साफ तौर पर बताता है कि 26 अक्टूबर 1937 को रवींद्रनाथ टैगोर ने पंडित जवाहरलाल नेहरू को एक पत्र लिखकर सलाह दी थी कि वंदे मातरम् के केवल पहले दो बंदों को ही राष्ट्रीय गीत के रूप में स्वीकार किया जाए, क्योंकि बाकी के बंद एकेश्वरवादी धर्मों के विश्वास के विरुद्ध हैं।

इसी आधार पर 29 अक्टूबर 1937 को कांग्रेस वर्किंग कमेटी ने यह फैसला किया था कि केवल दो बंदों को ही राष्ट्रीय गीत के रूप में स्वीकार किया जाएगा। इसलिए आज टैगोर के नाम का गलत इस्तेमाल करके पूरे गीत को जबरन गवाने की कोशिश करना न सिर्फ ऐतिहासिक तथ्यों को नकारने की कोशिश है, बल्कि देश की एकता की भावना का भी अपमान है।

यह भी दुर्भाग्यपूर्ण है कि कुछ लोग इस मुद्दे को देश के बंटवारे से जोड़ते हैं, जबकि टैगोर की सलाह राष्ट्रीय एकता के लिए थी।

मौलाना मदनी ने ज़ोर देते हुए कहा कि वंदे मातरम् से जुड़ी बहस धार्मिक आस्थाओं के सम्मान और संवैधानिक अधिकारों के दायरे में होनी चाहिए, न कि राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप के रूप में।

जमीयत उलमा-ए-हिंद सभी राष्ट्रीय नेताओं से अपील करती है कि वे ऐसे संवेदनशील धार्मिक और ऐतिहासिक मुद्दों को राजनीतिक लाभ के लिए इस्तेमाल न करें, बल्कि देश में आपसी सम्मान, सहिष्णुता और एकता को बढ़ावा देने की अपनी संवैधानिक जिम्मेदारी निभाएं।

“वंदे मातरम्” बंकिम चंद्र चटर्जी के उपन्यास “आनंद मठ” से लिया गया एक अंश है। इसकी कई पंक्तियाँ इस्लाम के धार्मिक सिद्धांतों के खिलाफ हैं, इसलिए मुसलमान इस गीत को गाने से परहेज करते हैं।

“वंदे मातरम्” का पूरा अर्थ है –
“माँ, मैं तेरी पूजा करता हूँ।”
यह शब्द स्पष्ट रूप से दर्शाते हैं कि यह गीत हिंदू देवी दुर्गा की प्रशंसा में लिखा गया था, न कि भारत माता के लिए।

इस्लाम एकेश्वरवाद पर आधारित धर्म है, जो एक ऐसे ईश्वर की पूजा करता है जिसका कोई साझीदार नहीं है। किसी देश या माँ की पूजा करना इस सिद्धांत के खिलाफ है।

वंदे मातरम् गीत माँ के सामने झुकने और उसकी पूजा करने की बात करता है, जबकि इस्लाम अल्लाह के अलावा किसी के सामने झुकने और पूजा करने की अनुमति नहीं देता। हम एक ईश्वर को मानने वाले हैं, हम उसके अलावा किसी को भी न अपना पूज्य मानते हैं और न ही किसी के सामने सजदा करते हैं। इसलिए हम इसे किसी भी हाल में स्वीकार नहीं कर सकते। मर जाना स्वीकार है, लेकिन शिर्क (अल्लाह के साथ किसी साझी) स्वीकार नहीं है। मरेंगे तो इस्लाम पर और जिएँगे तो इस्लाम पर, इंशा अल्लाह।

मौलाना मदनी ने सवाल उठाया कि क्या देश में इतने विवादित मुद्दों के अलावा कोई ऐसा मुद्दा नहीं है जिस पर संसद में बहस हो, जो देश और जनता के हित में हो? उन्होंने कहा कि देश की आर्थिक और वित्तीय स्थिति से संबंधित जो रिपोर्टें सामने आ रही हैं, वे बेहद चिंताजनक हैं। अगर इस पर तुरंत ध्यान नहीं दिया गया तो देश एक बड़े आर्थिक संकट का शिकार हो सकता है।

लेकिन दुर्भाग्य से इस पर कोई चर्चा नहीं होती, क्योंकि इस तरह की बहसों से वोट नहीं मिलते और न ही समाज को धार्मिक आधार पर बांटा जा सकता। आजकल चुनाव जीतने का यह एक आज़माया हुआ तरीका बन गया है।