एस आर दारापुरी, राष्ट्रीय प्रवक्ता, आल इंडिया पीपुल्स फ्रन्ट

एक समाचार पत्र में छपी खबर के अनुसार योगी सरकार इस बार उत्तर प्रदेश में बड़े स्तर पर वाल्मीकि जयंती मनाएगी। मुख्य सचिव के स्तर से सभी जिलाधिकारियों को जारी आदेश में कहा गया है कि इसका आयोजन सभी जिलों में बड़े स्तर पर किया जाना चाहिए। इस में सभी जिलों में वाल्मीकि से जुड़े स्थानों, मंदिरों और वाल्मीकि रामायण पथ पर दीप प्रज्वलित किए जाएँ तथा राम और हनुमान के मंदिरों में भजन आदि का आयोजन किया जाए। जिला प्रशासन स्थानीय सांस्कृतिक मंडलियों एवं कलाकारों को चिन्हित कर आयोजन करेगा तथा उसमें जनता की भागीदारी सुनिश्चित करेगा। उक्त आदेश में आगे इतना ज़रूर कहा गया है कि इस दौरान कोविड से संबंधित सावधानियों का ख्याल रखा जाए।

उपरोक्त आयोजन के संबंध में सब से पहला प्रश्न तो यह पैदा होता कि क्या यह राज्य सरकार का कर्तव्य है कि वह एक धर्म विशेष से जुड़े किसी महापुरुष की जयंती का आयोजन सरकारी स्तर पर करे, वह भी सरकारी खर्चे पर। क्या हमारे संविधान में राज्य की धर्म निरपेक्ष अवधारणा को खत्म कर दिया गया है? क्या हमारा राज्य धर्म निरपेक्ष राज्य की बजाय एक हिन्दू धर्म शासित राज्य (हिन्दू राष्ट्र) बन गया है। यदि हाँ तो यह सभी धर्मनिरपेक्ष नागरिकों के लिए एक बड़ी चुनौती और चिंता की बात होनी चाहिए। ऐसे में हमारे संविधान में राष्ट्र के धर्म निरपेक्ष होने का क्या मतलब रह जाता है? वैसे तो इससे पहले अयोध्या में नरेंद्र मोदीजी द्वारा प्रधान मंत्री के रूप में सरकारी तौर पर 5 अगस्त को राम मंदिर का शिलान्यास किया जाना भी आरएसएस/भाजपा द्वारा इसी दिशा में उठाया गया बड़ा कदम है। अतः हमारे देश के संविधान और धर्म निरपेक्ष मूल्यों में विश्वास रखने वाले नागरिकों को इस बात पर गंभीरता से विचार करना चाहिए कि वह आरएसएस/भाजपा के भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाने के एजंडे से कितना सहमत हैं? यदि नहीं तो फिर उन्हें धर्मभीरु न होकर संविधान आदेशित धर्मनिरपेक्षता के पक्ष में खड़े होकर आरएसएस/भाजपा के देश को हिन्दू राष्ट्र बनाने के एजंडे का विरोध करना होगा।

अब दूसरा प्रश्न यह उठता है कि योगी सरकार इस बार पहली बार वाल्मीकि जयंती का आयोजन क्यों कर रही है? क्या यह हाल में हाथरस में जिला प्रशासन द्वारा बाल्मीकि जाति की लड़की के बलात्कार एवं हत्या तथा अमानवीय तरीके से जलाने की घटना से बाल्मीकि समुदाय में देशव्यापी उपजे आक्रोश को ठंडा करने के इरादे से तो नहीं है? यह सर्वविदित है कि हाथरस में सरकारी स्तर पर किस तरह बलात्कार को नकारने की बेहया कोशिश की गई और पीड़िता का चरित्र हनन किया गया। मृतक के घर वालों को बयान बदलने के लिए किस तरह डराया धमकाया गया तथा आरोपी पक्ष द्वारा आतंकित करने दिया गया। इससे न केवल मृतक का परिवार बल्कि पूरे देश में बाल्मीकि समुदाय आक्रोशित हुआ है। इसकी एक प्रतिक्रिया आगरा में बाल्मीकि समुदाय द्वारा सफाई के काम का बहिष्कार तथा प्रदर्शन भी है। इस घटना तथा सरकार के दलित विरोधी रवैये को लेकर पूरे देश/विदेशों में भी इसके विरुद्ध प्रदर्शन हुए हैं। यह आक्रोश तब और भी बढ़ जाता है जब प्रशासन हाथरस की घटना की प्रतिक्रिया में गाजियाबाद में बाल्मीकि समुदाय के 250 लोगों द्वारा हिन्दू धर्म त्याग कर बौद्ध धम्म अपनाने पर दमनात्मक कार्रवाही शुरू कर देता है।

वैसे तो अगर देखा जाए महाऋषी वाल्मीकि का वर्तमान बाल्मीकि समुदाय से कोई संबंध नहीं है क्योंकि वह न तो शूद्र थे न अछूत। वह तो ब्राह्मण थे जैसाकि उन्होंने वाल्मीकि रामायण में अपना परिचय प्रचेता ऋषि (ब्राह्मण) के बेटे के रूप में स्वयं दिया है। वाल्मीकि ऋषि का नाम बाल्मीकि समुदाय से जोड़े जाने की भी दिलचस्प कहानी है। यह कहानी पंजाब से शुरू होती है। बीस के दशक में जब पंजाब में सफाई का काम करने वाले चूहड़ा जाति के लोग बड़ी संख्या में ईसाई बन रहे थे तो इससे हिंदुओं की जनसंख्या बराबर कम हो रही थी। इसको रोकने के लिए पंजाब में अमीचन्द शर्मा नाम के एक ब्राह्मण ने बाल्मीकि प्रकाश नाम का एक छोटा ग्रंथ लिख कर यह प्रचारित किया कि वाल्मीकि चूहड़ा जाति के लोगों के धर्म गुरु है और रामायण उनका धार्मिक ग्रंथ है। उसने यह भी कहा कि चूहड़ा नाम घृणात्मक है और उन्हें अपने नाम के साथ बाल्मीकि लगाना चाहिए। उसने चालाकी से वाल्मीकि को उनका आदि पुरुष नहीं कहा बल्कि उनका धर्मगुरु कहा अन्यथा बाल्मीकि ब्राह्मण होने का दावा कर सकते थे क्योंकि वाल्मीकि ब्राह्मण था। इस प्रकार हिंदुओं की वाल्मीकि के नाम पर जाल बट्टा करके पंजाब की चूहड़ा जाति को बाल्मीकि बना कर उनके हिन्दू धर्म से पलायन को रोकने की साजिश सफल रही और वे उन्हें सफाई के गंदे धंधे में फँसाये रखने में सफल रहे।

जैसाकि सर्वविदित है कि बाल्मीकि समुदाय के अधिकतर लोग सफाई के काम में लगे हुए हैं जिसे सबसे घृणित काम माना जाता है। ये लोग नगरों, कस्बों, नगरपालिकाओं तथा महानगर -पालिकाओं में सफाई का काम करते हैं। इसी पेशे के कारण इनसे घृणा भी की जाती है। हाथ से मैला उठाना, सिर पर उसे ढोना तथा शुष्क टट्टीयां साफ करना सबसे कठिन एवं गंदा काम है। यद्यपि इसको रोकने के लिए कानून बना हुआ है परंतु उसे लागू करने में कोई भी सरकार दिलचस्पी नहीं दिखाती। इस पर मोदी जी उन्हें अध्यात्मक सुख की अनुभूति होने की बात कहते हैं। शहरों कस्बों में गटर सफाई में हरेक तीसरे दिन एक कर्मचारी की मौत होती है। गटर में उतरने के लिए उन्हें सुरक्षा उपकरण तक उपलब्ध नहीं कराए जाते। हरेक नगर पालिका/ नगर महापालिका के हेल्थ मैनुअल में काम के अनुसार कर्मचारियों की संख्या निर्धारित है पर शायद ही कहीं पर वह संख्या पूरी हो। बहुत जगह पर सफाई कर्मचारियों को कई कई महीने तक वेतन नहीं दिया जाता जिस कारण वे कर्जे के बोझ तले दबे रहते हैं। अब तो नियमित नियुक्तियों के स्थान पर ठेकेदारी प्रथा लागू कर दी गई है जिसमें सफाई कर्मचारियों का बुरी तरह से शोषण होता है।

एक तरफ मोदी जी ने राष्ट्रीय स्वच्छता अभियान चला रखा है जिसके विज्ञापनों पर करोड़ों रुपये खर्च किए जा रहे हैं परंतु इसमें सफाई कर्मचारियों की कार्यस्थिति को बेहतर बनाने तथा उन्हें जीवित रहने लायक वेतन आदि देने का कोई प्रावधान नहीं है। इसके साथ ही सफाई कार्य के आधुनिकीकरण एवं मशीनीकरण का कोई एजंडा नहीं है। स्वच्छता अभियान के नाम पर करदाताओं से जो करोड़ों रूपये कर के रूप में लिए जा रहे हैं उन्हें कहाँ खर्च किया जा रहा है इसका कोई हिसाब किताब नहीं है। दुनिया के सभी सभ्य देशों में गटर सफाई का काम मशीनों द्वारा किया जाता है जैसाकि कुछ हद तक दिल्ली में भी शुरू किया गया है। परंतु देश के अन्य शहरों में इस प्रकार की कोई व्यवस्था नहीं की गई है जिसके फलस्वरूप आए दिन गटर में मौतें होती रहती हैं। अतः अगर मोदी सरकार सफाई कर्मचारियों के कल्याण में रत्ती भर भी दिलचस्पी रखती है तो उसे वाल्मीकि जयंती मनाने के झुनझुने की जगह उन की कार्यस्थिति को बेहतर बनाने की दिशा में कार्य करना चाहिए। इसके साथ ही सफाई कर्मचारियों को भी एकताबद हो कर अपनी जायज मांगों को मनवाने के लिए आंदोलन/ हड़ताल आदि का सहारा लेना चाहिए।

यह बात भी सही है कि बाल्मीकि समुदाय के बहुत सारे लोग वाल्मीकि के नाम पर उन के साथ किए गए छल को जान कर उससे मुक्त हो चुके हैं और उन्होंने डा. अंबेडकर को अपना आदर्श मान कर हिन्दू धर्म से मुक्त हो कर बौद्ध धम्म अपना लिया है। उन्होनें सफाई का गंदा पेश छोड़ कर नए पेशों को अपनाया है। गाजियाबाद में बाल्मीकि समुदाय का हिन्दू धर्म छोड़ कर बौद्ध धम्म अपनाना हिन्दू धर्म से केवल विद्रोह ही नहीं बल्कि अपनी मुक्ति का भी एक उपाय है।
यह देखा गया है अब तक अधिकतर बाल्मीकि समुदाय राजनीतिक तौर पर भाजपा से जुड़ा रहा है जिस का इस्तेमाल मुसलमानों के खिलाफ दंगों में भी किया जाता रहा है। मुरादाबाद का दंगा इसकी ज्वलंत उदाहरण है। यह समुदाय कट्टर हिंदुवादी माना जाता है। बाल्मीकि समुदाय बाल्मीकि के बारे में किसी भी प्रकार की टिप्पणी को लेकर आक्रोशित हो जाता है। यह समुदाय संख्या में काफी बड़ा है। अब अगर हाथरस के मामले को लेकर यह समुदाय भाजपा से नाराज हो कर उससे राजनीतिक तौर पर अलग हो जाता है तो यह भाजपा के सामाजिक समरसता के फार्मूले के लिए बड़ा झटका होगा। अतः योगी सरकार का अचानक जगा वाल्मीकि प्रेम अकारण नहीं बल्कि इसका निहित राजनीतिक स्वार्थ है। अतः यह देखना है कि बाल्मीकि समुदाय वाल्मीकि के नाम पर पूर्व में किए गए फरेब को समझ कर अपनी मुक्ति के लिए डा. अंबेडकर द्वारा दिखाए गए मार्ग का अनुसरण करता है या पूर्व की तरह वाल्मीकि जयंती के नाम पर फिर ठगा जाने के लिए तैयार है।