-एस.आर. दारापुरी राष्ट्रीय अध्यक्ष, आल इंडिया पीपुल्स फ्रन्ट

2015 में संसद में संविधान दिवस पर बोलते हुए भाजपा के प्रतिनिधि राजनाथ सिंह ने फिर दोहराया था कि संविधान में सेक्युलर शब्द का समावेश अनावश्यक है और इस का बहुत दुरूपयोग हुआ है. उन्होंने आगे सेक्युलरिज्म को परिभाषित करते हुए कहा था कि इस का अर्थ धर्म-निरपेक्षता नहीं बल्कि पंथ-निरपेक्षता है. इस से पहले भी भाजपा और उस के सहयोगी इस शब्द पर इसी प्रकार की आपत्ति करते रहे हैं.

यह ज्ञातव्य है कि संविधान की उद्देशिका में सेक्युलर और सोशलिस्ट शब्द का समावेश 42वें संविधान संशोधन द्वारा 1976 में किया गया था. यह भी उल्लेखनीय है कि संविधान की धारा 14 में समानता के अधिकार के अंतर्गत राज्य द्वारा किसी भी नागरिक के साथ धर्म के आधार पर भेदभाव की मनाही है. इस के अतिरिक्त संविधान की धारा 25 में धर्म की स्वतंत्रता के अधिकार के अनुसार प्रत्येक नागरिक को अपने धर्म को मानने और उसका प्रचार करने का मौलिक अधिकार है. संविधान के इन प्रावधानों से स्पष्ट है कि हमारा राज्य पूरी तरह से धर्म निरपेक्ष है. यह प्रावधान इतने स्पष्ट हैं कि इन में किसी भी तरह के शक की गुंजाइश नहीं है फिर भाजपा इन्हें परिभाषा में उलझाये रखना चाहती है.

एक धर्म निरपेक्ष राज्य होने के कारण सभी राजनीतिक पार्टियों से अपेक्षित है कि वे राजनीति में धर्म का इस्तेमाल नहीं कर सकतीं जिस की मनाही पीपुल्स रिप्रेजेंटेशान एक्ट में भी है. इसी प्रकार सरकार के मंत्रियों एवं अधिकारियों का भी यह संवैधानिक कर्तव्य है कि वे अपने कर्तव्य निर्वहन में पूरी तरह से धर्म निरपेक्ष आचरण करें. परन्तु यह दुर्भाग्य है कि आज़ादी से लेकर अब तक न तो हमारी राजनीति धर्म निरपेक्ष हो सकी और न ही संवैधानिक पदों पर बैठे लोग और प्रशासनिक अधिकारी ही पूरी तरह से धर्म निरपेक्ष हो सके हैं. इस की सब से बड़ी मिसाल हमारे प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद थे. राष्ट्रपति का पद सँभालने पर सब से पहला काम यह किया था कि उन्होंने राष्ट्रपति भवन में कार्यरत सभी मुस्लिम खानसामें (बावर्ची) बदल कर हिन्दू बावर्ची रख लिए थे. उनका दूसरा काम जिस से नेहरु बहुत नाराज़ हुए थे यह था कि राष्ट्रपति बनने के बाद वह काशी तीर्थ यात्रा पर गए और उन्होंने वहां पर 200 ब्राह्मणों के चरण धोये और उन्हें दक्षिणा दी. उन्होंने ऐसा शायद इसी लिए किया था क्योंकि वह जाति से कायस्थ थे जो बिहार में शूद्र माने जाते हैं. अतः उन्होंने काशी की विद्वतजन सभा से अपनी स्वीकृति हेतु आशीर्वाद लेना ज़रूरी समझा. उनका एक अन्य कृत्य जीर्णोद्धार उपरांत सोमनाथ मंदिर में शिवलिंग की स्थापना के लिए जाना था जिस से नेहरु बहुत नाराज़ थे. नेहरु के निजी सचिव जॉन मथाई ने अपने संस्मरण में लिखा है कि सोमनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार उस पैसे से किया गया था जो तत्कालीन कृषि मंत्री के. ऍम. मुंशी द्वारा सरदार पटेल के साथ सांठगांठ करके चीनी मिल संघ को चीनी के दाम बढ़ा कर उस का एक हिस्सा रिश्वत के तौर पर प्राप्त किया गया था. इसकी सूचना नेहरु को तब प्राप्त हुई थी जब वह कुछ नहीं कर सकते थे.

नेहरू के निजी सचिव एम ओ मथाई ने अपने संस्मरण में यह भी लिखा है कि जब डा. राजेन्द्र प्रसाद राष्ट्रपति भवन में पहुंचे थे तो उन्होंने वहाँ पर कई लंगूर मँगवाए थे क्योंकि वह हनुमान भक्त थे। डा. राजेन्द्र प्रसाद लंगूरों को अपने हाथ से खिलाते थे। वे लंगूर राष्ट्रपति भवन के पास नर्ह तथा साउथ ब्लाक में भी चले जाते थे और व्हॅनकर्मचारियों के टिफिन उठा ली थे और फाइलें फाड़ देते थे। जब उनकी आबादी काफी बाढ़ गई तो वे निकट के आवासों में भी पहुँच जाते थे और नुकसान करते थे परंतु शिकायत नहीं कर सकता था क्योंकि वे राष्ट्रपति के लंगूर थे। बाद में डा. राजेन्द्र प्रसाद टर्म पूरी होने पर राष्ट्रपति भवन छोड़ कर गए तो सभी लंगूरों को पकड़ कर दिल्ली चिड़िया गर पहुंचाया गया।

इसी प्रकार बाबू राजेन्द्र प्रसाद ने नेहरु और आंबेडकर द्वारा हिन्दू महिलाओं को अधिकार देने के लिए लाये गए हिन्दू कोड बिल को मंज़ूरी न देने की धमकी भी दे दी थी क्योंकि वह एक सनातनी हिन्दू होने के नाते इस के विरुद्ध थे. यह भी कहा जाता है कि सरदार पटेल चाहते थे कि सोमनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार सरकारी पैसे से किया जाये परन्तु नेहरु ने ऐसा नहीं करने दिया. सरदार पटेल ने तो नेहरु की अनुपस्थिति में कांग्रेस वर्किंग कमेटी से यह प्रस्ताव भी पारित करवा दिया था कि कांग्रेस के लोग आर.एस.एस के सदस्य बन सकते हैं परन्तु विदेश से लौटने पर नेहरु ने इसे रद्द करवा दिया था.

इसी प्रकार मदन मोहन मालवीय जो एक कट्टर हिन्दू थे जब भी इंगलैंड जाते थे तो अपने साथ गंगाजल ले कर जाते थे। जब कोई अंग्रेज उनसे मिलने आता था तो उसके जाने पर गंगा जल छिड़क कर अपने कमरे को पवित्र करते थे।

उच्च पदों पर आसीन रहे उपरोक्त कुछ व्यक्तियों के आचरण से स्पष्ट है भारत के राजनेता कभी भी पूरी तरह से धर्म निरपेक्ष नहीं रहे. हमारे पूर्व उप राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा जी तो पूरे सरकारी तामझाम के साथ तीर्थ करने गए थे. इतना ही नहीं हमारे सभी सरकारी कार्यक्रम हिन्दू धार्मिक अनुष्ठान और देवी देवताओं की वंदना से ही संपन्न होते हैं. भाजपा जब जब भी और जहाँ जहाँ भी सत्ता में आई है उसने सरकारी कर्मचारियों के लिए आर.एस.एस. की सदस्यता के दरवाजे खोले हैं. इस से आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि हमारी सरकारें और प्रशासन व्यवहार में कितना धर्म निरपेक्ष रहा है या वर्तमान में है. वैसे तो कांग्रेस भी अधिकतर धर्म निरपेक्षता का दिखावा ही करती रही है. उसका आचरण भी अधिकतर साम्प्रदायिक ही रहा है. यह सभी जानते हैं कि अयोध्या की बाबरी मस्जिद में 1949 में मूर्तियाँ कांग्रेस शासन में ही रखी गयी थीं. कांग्रेस सरकार ने ही अयोध्या में बाबरी मस्जिद का ताला खुलवाया था और उस ने ही वहां पर राम मंदिर का शिलान्यास किया था. राजीव गाँधी ने अपने चुनाव अभियान की शुरुआत अयोध्या से ही राम का आशीर्वाद लेकर ही की थी. दरअसल कांग्रेस वास्तव में हमेशा ही नर्म हिंदुत्व का कार्ड खेलती रही है जिस में बाद में भाजपा ने उसे पिछाड़ दिया क्योंकि भाजपा हमेशा से उग्र हिंदुत्व की राजनीति करती आई है. राम मंदिर के मुद्दे पर भी वह कांग्रेस से आगे निकल गयी और उस ने बाबरी मस्जिद का विध्वंस करवा कर बाजी मार ली.

कुछ समय पहले संसद में भाजपा ने सेक्युलर शब्द की व्याख्या धर्म निरपेक्षता की बजाये पंथ निरपेक्षता करके पुनः यह सन्देश दिया है कि वह भारत को धर्म निरपेक्ष राष्ट्र मानने को तैयार नहीं है क्योंकि वह अब तक धर्म की राजनीति करती आई है और भारत को एक हिन्दू राष्ट्र बनाना उस का राजनीतिक लक्ष्य है. यदि भाजपा की परिभाषा को मान भी लिया जाये कि हमारा संविधान केवल पंथ निरपेक्ष है परन्तु धर्म निरपेक्ष नहीं है तो इसका अर्थ यह है कि भारत एक धार्मिक राष्ट्र है. अब क्योंकि हिंदुत्व ही सब से बड़ा पंथ है तो हिन्दू धर्म ही राष्ट्र का धर्म हो सकता है. अतः सेक्युलर शब्द को धर्म निरपेक्ष के रूप में मानने में भाजपा को बहुत डर लगता है क्योंकि उस को मान लेने से उसकी हिंदुत्व की राजनीति खतरे में पड़ जाएगी और उस का भारत को एक हिन्दू राष्ट्र बनाने का संकल्प अधूरा रह जायेगा.