• एस आर दारापुरी , राष्ट्रीय प्रवक्ता, आल इंडिया पीपुल्स फ्रन्ट

उत्तर प्रदेश में आदिवासियों (अनुसूचित जनजाति) की आबादी 11.35 लाख है जिनमें से 80% भूमिहीन हैं। इसी लिए आदिवासियों के सशक्तिकरण हेतु वनाधिकार कानून- 2006 तथा नियमावली 2008 में लागू हुई थी. इस कानून के अंतर्गत सुरक्षित जंगल क्षेत्र में रहने वाले आदिवासियों तथा गैर आदिवासियों को उनके कब्ज़े की आवासीय तथा कृषि भूमि का पट्टा दिया जाना था. इस सम्बन्ध में आदिवासियों द्वारा अपने दावे प्रस्तुत किए जाने थे. उस समय उत्तर प्रदेश में मायावती की सरकार थी परन्तु उसकी सरकार ने इस दिशा में कोई भी प्रभावी कार्रवाही नहीं की जिस का नतीजा यह हुआ कि 30.1.2012 को उत्तर प्रदेश में आदिवासियों द्वारा प्रस्तुत कुल 92,406 दावों में से 74,701 दावे अर्थात 81% दावे रद्द कर दिए गए और केवल 17,705 अर्थात केवल 19% दावे स्वीकार किए गए तथा कुल 1,39,777 एकड़ भूमि आवंटित की गयी.

मायावती सरकार की आदिवासियों को भूमि आवंटन में लापरवाही और दलित/आदिवासी विरोधी मानसिकता को देख कर आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में जनहित याचिका दाखिल की थी जिस पर उच्च न्यायालय ने अगस्त, 2013 में राज्य सरकार को वनाधिकार कानून के अंतर्गत दावों को पुनः सुन कर तेज़ी से निस्तारित करने के आदेश दिए थे परन्तु उस समय मायावती की सरकार के बाद आई अखिलेश सरकार ने भी 5 वर्ष तक इस पर कोई कार्रवाही नहीं की।

अब जरा वनाधिकार कानून को लागू करने के बारे में भाजपा की योगी सरकार की भूमिका को भी देख लिया जाए. यह सर्विदित है कि भाजपा ने उत्तर प्रदेश के 2017 विधान सभा चुनाव में अपने संकल्प पत्र में लिखा था कि यदि उसकी सरकार बनेगी तो ज़मीन के सभी अवैध कब्जे (ग्राम सभा तथा वनभूमि) खाली कराए जायेंगे. मार्च 2017 में सरकार बनने पर योगी सरकार ने इस पर तुरंत कार्रवाही शुरू कर दी और इसके अनुपालन में ग्राम समाज की भूमि तथा जंगल की ज़मीन से उन लोगों को बेदखल किया जाने लगा जिन का ज़मीन पर कब्ज़ा तो था परन्तु उनका पट्टा उनके नाम नहीं था. इस आदेश के अनुसार वनाधिकार के ख़ारिज हुए 74,701 दावेदारों को भी बेदखल किया जाना था. योगी सरकार की बेदखली की इस कार्रवाही के खिलाफ आइपीएफ को फिर इलाहाबाद हाई कोर्ट की शरण में जाना पड़ा. आइपीएफ ने बेदखली की कार्रवाही को रोकने तथा सभी दावों के पुनर परीक्षण का अनुरोध किया. इलाहाबाद हाई कोर्ट ने इस अनुरोध पर बेदखली की कार्रवाही पर रोक लगाने, सभी दावेदारों को छुटा हुआ दावा दाखिल करने तथा पुराने दावों पर अपील करने के लिए एक महीने का समय दिया तथा सरकार को तीन महीने में सभी दावों की पुनः सुनवाई करके निस्तारण करने का आदेश दिया परंतु योगी सरकार द्वारा इस संबंध में आज तक कोई भी कार्रवाही नहीं की गयी है.

इसी बीच 28 फरवरी, 2019 को सुप्रीम कोर्ट द्वारा वाइल्ड लाइफ ट्रस्ट आफ इंडिया संस्था द्वारा वनाधिकार कानून की वैधता को चुनौती देने वाली रिट याचिका जिसमें वनाधिकार के अंतर्गत निरस्त किए गये दावों से जुड़ी ज़मीन को खाली करवाने हेतु सभी राज्य सरकारों को आदेशित करने का अनुरोध भी किया गया था, में अपना निर्णय सुनाया. मोदी सरकार ने इसमें आदिवासियों/वनवासियों का पक्ष नहीं रखा. परिणामस्वरूप सुप्रीम कोर्ट ने वनाधिकार के ख़ारिज हुए सभी दावों की ज़मीन 24 जुलाई, 2019 तक खाली कराने का आदेश पारित कर दिया. इससे देश में प्रभावित होने वाले परिवारों की संख्या 20 लाख है जिसमें उत्तर प्रदेश के 74,701 परिवार हैं. इस आदेश के विरुद्ध हम लोगों ने आदिवासी वनवासी महासभा के माध्यम से सुप्रीम कोर्ट में फिर गुहार लगाई जिसमें हम लोगों ने बेदखली पर अपने आदेश पर रोक लगाने तथा सभी राज्यों को सभी दावों का पुनर्परीक्षण करने का अनुरोध किया. इस पर सुप्रीम कोर्ट ने हमारे अनुरोध को स्वीकार करते हुए 10 जुलाई, 2019 तक बेदखली पर रोक लगाने तथा सभी राज्यों को सभी दावों की पुन: सुनवाई का आदेश दिया था परंतु लगभग 2 वर्ष बीत जाने पर भी योगी सरकार ने एक भी दावे का निस्तारण नहीं किया है जिसके फलस्वरूप एक भी आदिवासी को एक इंच जमीन भी नहीं मिली है।

योगी राज में ही वर्ष 2019 में सोनभद्र जिले के उभा गाँव में ज़मीन के कब्जे को लेकर राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित नरसंहार हुआ था, जिसमें 10 आदिवासी मारे गए थे तथा तीन दर्जन के करीब घायल हुए थे। इसमें यद्यपि दोषियों के विरुद्ध कार्रवाही तो की गई परंतु आदिवासियों को उनके कब्जे की जमीन न देकर दूसरी जमीन दी गई।

केवल इतना ही नहीं भाजपा सरकार ने तो पिछड़ी जाति पाल गड़रिया की धनगर गोत्र वाली उपजाति को धनगर का अनुसूचित जाति का प्रमाण पत्र देने के चक्कर में सोनभद्र की धाँगर जाति को अनुसूचित जाति का प्रमाण पत्र जारी करने पर रोक लगा दी थी जो आदिवासी वनवासी संस्था के लंबे संघर्ष के बाद ही हट सकी। योगी सरकार आज भी पाल गड़रिया की धनगर गोत्र वाली उपजाति को धनगर के नाम से अनुसूचित जाति का प्रमाण पत्र जारी करके आरक्षित सीट पर चुनाव लड़वा रही है जिसकी सबसे बड़ी उदाहरण एस पी सिंह बघेल हैं जो पहले विधायक थे और अब सांसद बने हुए हैं।

कुछ समय पूर्व वाराणसी तथा सोनभद्र जिले से काट कर बनाए गए चंदौली जिले के आदिवासियों को आदिवासी के तौर पर चिन्हित नहीं किया गया था जिसके फलस्वरूप वे अनुसूचित जनजाति के लाभ से वंचित हैं। यद्यपि हमारे द्वारा इस संबंध में योगी सरकार को बार बार लिखा जा रहा है परंतु इस पर आज तक कोई भी कार्रवाही नहीं की गई है। इसी प्रकार इस क्षेत्र में लगभग 4 लाख की आबादी वाली कोल जाति जो वर्तमान में अनुसूचित जाति में है, को अनुसूचित जनजाति की सूची में डालने का मामला काफी दिनों से चल रहा है परंतु योगी सरकार ने इसमें कोई भी दिलचस्पी नहीं दिखाई है।

यद्यपि योगी सरकार ने अपनी चार साल की उपलब्धियों में वनटाँगिया/मुसहर/कोल एवं थारू समूह के 38 गांवों को राजस्व गांवों का दर्जा एवं बुनियादी सुविधाएं देने की बात कही है परंतु इन लोगों को आज तक उनके कब्जे की जमीन का अधिकार नहीं दिया गया है।

यह सर्वविदित है कि सोनभद्र, मिर्जापुर तथा चंदौली जिले का नौगढ़ क्षेत्र आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र है और यह उत्तर प्रदेश का सबसे अधिक पिछड़ा क्षेत्र है। इस क्षेत्र में पीने का सुरक्षित पानी तक उपलब्ध नहीं है और आदिवासी गंदे कुओं तथा चुआड़ का गंदा पानी पीने के लिए विवश हैं। कुछ गाँवों में तो पानी में अधिक फ्लोरेसिस होने के कारण आदिवासी बड़ी संख्या में विक्षिप्त हैं। योगी सरकार ने पिछले चार वर्ष में इसके लिए कुछ भी न करके अब इस तथा बुंदेलखंड क्षेत्र में टूटी का पानी उपलब्ध कराने की योजना की घोषणा की है क्योंकि अगले वर्ष विधान सभा का चुनाव होने वाला है। सोनभद्र जिले के काफी गाँव आज भी सड़क से नहीं जुड़े हैं तथा इस क्षेत्र में आने जाने के साधन बहुत सीमित हैं।

उपरोक्त संक्षिप्त विवरण से स्पष्ट है कि उत्तर प्रदेश में योगी सरकार ने आदिवासियों के उत्थान तथा सशक्तिकरण के लिए कोई भी प्रयास नहीं किया है जिस कारण वे गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी, बीमारी, अशिक्षा एवं भयानक पिछड़ापन का शिकार हैं। मायावती तथा अखिलेश यादव की सरकार की तरह योगी सरकार ने भी उच्च न्यायालय एवं सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद आदिवासियों/ वनवासियों को वनाधिकार कानून के अंतर्गत एक इंच जमीन भी नहीं दी है जो कि उनका अधिकार बनता है। अतः यह निस्संकोच कहा जा सकता है कि योगी राज के चार साल में आदिवासी बदहाल हैं।