लेख

टीचर्स डे

मोहम्मद आरिफ नगरामी

यौमे असातजा यानि टीचर्स डे सारी दुनिया में अलग अलग तारीखों में मनाया जाता है, कहीं यह शिक्षा के स्तर को ऊंचा उठाने वाली पालिसियों को लागू करने की सालगिह के तौर पर मनाया जाता है तो कहीं उसको किसी प्रख्यात शिक्षाविद के नाम से अलंकृत किया गया है। हमारे मुल्क हिन्दुस्तान में यह दिन मुल्क के पुअर राष्ट्रपति राधाकृष्णन की सालगिरह के दिन मनाया जाता है, जबकि अफगानिस्तान में टीचर्स डे वहां स्थानीय कलण्डर के हिसाब से सूरमा की 23 तारीख को मनाया जाता है। ईरान में टीचर्स डे, उस्ताद शहीद मुर्तज़ा मजहरी के शहीद दिवस 2 मई को मनाया जाता है। इराक में पहली मार्च को मनाया जाता है, जबकि पाकिस्तान के लोग अपने गुरुजनों को पांच अक्तूबर को याद करते हैं। नेपाल मेें आषाढ़ महीने की पूर्णिमा को गुरू पूर्णिमा के बतौर टीचर्स डे मनाया जाता है। अंतर्राष्ट्रीय तौर पर यह दिन बनाये जाने के बावजूद उस्ताद और शागिर्द के दरमियान, जो रिश्ता होना चाहिये वह नहीं है और उसकी पवित्रता को ख़त्म करने की बराबर खबरें आती रहती हैं, असल में ज्ञान हासिल करना, और ज्ञान पहुंचाने वाले के दरमियान एक बड़ी खाई कायम हो गयी है।

उस्तादों को मोटी मोटी तन्ख्वाहों के बोझ मे दबा कर उनका सम्मान कम कर दिया गया है। आज उस्ताद और शागिर्द के दरमियान एक कारोबारी रिश्ता कायम हो गया है। शागिर्द को मालूम है कि वह एक मोटी रकम देकर उस्ताद की सेवाएं हासिल कर रहा है, जब कि बहुत से उस्तादों ने भी पठन पाठन को भी मुकम्मल तौर पर एक पेशा बना लिया है और यही वजह है कि उनको वह मरतबा और मकाम नहीं मिलता जिसके वह हक़दार हैं। हमारे मुल्क हिन्दुस्तान में 5 सितम्बर का दिन टीचर्स डे के तौर पर मनाया जाता है जो इस बात की दलील है कि इस मुल्क में गुरुओं का स्थान सबसे ऊपर और सर्वश्रेष्ठ है, उस दिन पूरे मुल्क में गुरुओं का सम्मान करके उनकी सेवाओं को सराहा जाता है और यही उनका हिस्सा है। इसकी वजह यह है कि शिक्षण का पेशा तमाम पेशों का सरदार है। दुनिया का कोई पेशा, कोई हुनर, कोई फन, कोई तालीम और कोई तरबियत ऐसी नहीं जो शिक्षक की सेवाओं की मोहताज न हो और इसके बेगैर ही अपने चरम को पहुंच जाती हो, यही वजह है कि स्टूडेंट ज्ञान प्राप्ति में कौशल प्राप्त करता हुआ चाहे जितने ऊंचे स्थान पर पहुच जाये, किसी पद पर विराजमान हो जाये और खुद अपने उस्ताद से चाहे जितना आगे निकल जाये, जीवन भर अपने उस्ताद को सम्मान और एहसान के साथ देखता है, अगर उस्ताद ने बुनियाद को मजबूत न किया होता तो जीवन को ईमारत को बुलंदी तक पहुँचाना मुमकिन न होता । माँ -बाप बच्चों की परवरिश करते हैं, लेकिन उनके जहनों को संवारने का काम उस्ताद ही अन्जाम देता है, अगर उस्ताद न हो तो पैरेंट्स बच्चों को पाल पोस कर बडा तो कर देंगेें लेकिन उनकी मानसिक मज़बूती का कोई इन्तेजाम नहीं हो सकेगा। एक शिक्षित और अशिक्षित व्यक्ति मेें जो फर्क है, वह असल में उस्ताद के होने और न होने का फर्क है। शिक्षित व्यक्ति इसलिये शिक्षित कहलाता है कि उसने उस्ताद से ज्ञान प्राप्त किया, अहिक्षित व्यक्ति इसलिये अशिक्षित है कि उसे उस्ताद का प्रेम और मार्गदर्शन नहीं मिल सका , मगर अफसोस कि आज कल के जमाने में न तो गुरु की म्हणता को महसूस किया जाता है और न उनकी सेवाओं का सम्मान किया जाता है। भौतिकवाद में डूबा यह समाज शायद यह समझता है कि साड़ी चीज़ों की तरह शिक्षा भी एक वस्तु है, जिसकों प्राप्त करने के लिए इसकी कीमत अदा की जाती है, उसमें किसी का एहसान कहां हुआ? उसे यह नहीं मालूम कि दौलत से दुनिया खरीदी जा सकती है , तालीम नहीं । वर्तमान में शैक्षिक खर्चों में बेपनाह इजाफे के बावजूद वह यह कहने की जुर्रत नहीं कर सकता कि तालीम खरीदी गयी है, अगर तालीम खरीदने वाली वस्तु होती तो दुनिया का हर गरीब अनपढ़ होता और हर अमीर शिक्षित । तालीम दौलत से नहीं, उस्ताद की मोहताज होती है।

इस जमाने मेें लाख शिकायतों के बावजूद हर शख्स यह स्वीकार करेगा कि छात्र पर माँ-बाप के बाद या उनके के साथ या उनसे ज्यादा असर उसके उस्ताद का होता है और यह सूरते हाल आज भी है। आज किसी भी स्टूडेंट से पूछें कि उसके नजदीक एक मिसाली शख्सियत कौन है, तो वह या तो माँ-बाप के साथ उस्ताद का नाम लेगा या सिर्फ उस्ताद का। इससे अन्दाजा लगाया जा सकता है कि शिष्य के मन मस्तिष्क पर गुरु का व्यक्तित्व क्या असर छोड़ता है। जहां तक उस शख्स और उसकी अहमियत को समझने का सवाल है, हालात न सिर्फ बदले हैं बल्कि खराब से और खराब हुये हैं, खराबी के इस माहौल मेें अगर गुरु महत्व और सम्मान व स्थान में कमी आयी है तो उसकी कोई एक वजह नहीं है, इसका जिम्मेदार कोई एक शख्स भी नही है बल्कि इसके लिये माँ-बाप भी जिम्मेदार हैं,समाज भी और खुद टीचर्स भी। अपने आस पास का जायेजा लेकर देख लीजिये तो मालूम होगा कि पैरेंट्स ने बच्चों को उस्ताद के अदब की बात करना छोड दिया है, यही हाल समाज का हैै। कल उस्ताद को देखकर रास्ता चलते लोग रूक जाया करते थे, यह मन्जरनामा बच्चों को कुछ सिखाता था, अब ऐसा नहीं होता, इसलिये बच्चे सीखते नहीं हैं। रहा सवाल खुद टीचर्स का तो समस्या यह है कि उनमें इतनी काली भेड़ें शामिल हो गयी हैं कि निश्छल गुरु और लालची मुलाजिम में फर्क करना मुशकिल हो गया है।

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