लेखक : आरिफ नक़वी, बर्लिन

arif naqvi

एक सुन्दर तगड़ा गधा सुंदरता के सारे चिन्ह लिए सामने खड़ा कुछ सोच रहा था। ऐसा लगता था जैसे किसी नोबल पुरस्कार प्राप्त कलाकार ने बड़ी एहतियात से तराश कर यह अनमोल नमूना सामने रख दिया है। मुझे याद आया , बचपन में हम शब्द गधा बहुत प्रयोग कराते थे। “तुम गधे हो। वह गधा है। फुलाँ गधा है। गधेपन की बातें मत करो। यार क्या गधेपन की बातें कर रहे हो। इत्यादि।

लखनऊ में हमारे घर में एक धोबन आया करती थी। सैकड़े के हिसाब से गिनकर अपने गधे की पीठ पर लाद कर कपडे ले जाती थी। गोमती नदी के पानी में धोने और घाट पर सुखाने के बाद गधे पर लाद कर वापस दे जाती थी। वह अपना गधा फाटक के पास पेड़ से बाँध देती थी। गधा बेचारा बहुत सीधा, अति नेक और शरीफ़ था। इतने कपड़ों का बोझ उठाने के बाद भी उसने कभी प्रोटेस्ट का नारा नहीं लगाया न विरोध किया। एक दिन हम चंद लड़कों ने उसकी दुम में एक खाली पीपा बाँध दिया और उसे छोड़ दिया। वह बेचारा सारे चमन में उछलता रहा।

इस समय इस शानदार गधे को देख कर मेरी बहुत सी पुरानी यादें ताज़ा हो गईं। मैंने उसे एकबार फिर ध्यान से देखा। जितना देखता था उसकी शान में वृद्धि होती जाती थी। ऐसा लगता था जैसे वह मिट्टी तथा ईंटों के मलबे की छोटी सी पहाड़ी पर खड़ा कुछ कहने वाला है।

मुझे याद आया। यह पार्क जो नगर के केंद्र में बहुत अरसे से क़ायम है झंडेवाला पार्क कहलाता है। यहाँ पहले किसी समय बड़े बड़े जलसे और समारोह होते थे। ऊँचे ऊँचे राजनैतिक नेता मंच से भाषण देते थे। मैंने स्वयं प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का एक भाषण सूना था। माइक की खराबी पर वह भड़क उठे थे। उनकी यह अदा नौजवानों को बहुत भाई थी। बाद में हम युवक् यहाँ इन्क़िलाब जिन्दाबाद के नारे लगाते थे। फिर नफरत और भेदभाव का ज़हर पिलाने वाले यहाँ मंच बनाने लगे थे।

मेरा जी चाहा कि किसी से पूछूँ कि अब वे दुकानें तथा दुकानदार यहाँ हैं या नहीं, जो हमारी राजनीति को नापसंद करने के बावजूद हमें चंदे देने से इनकार नहीं करते थे। पार्क की दाईं ओर की गैलरी में लखनऊ के सब से धनी धर्माता खुन खुन जी की सोने चांदी की दूकान थी। उसी गैलरी के पास एक सड़क पर प्रोफेसर आले अहमद सुरूर का घर था जहाँ अंजुमन तरक्की पसंद मुसनिफीन की गोष्ठियाँ होती थीं। उस के पास ही महिलाओं का ज़नाना पार्क था। झंडे वाले पार्क के प्रवेश स्थान के पास वाली एक गली में अमीनाबाद के नकट पंजाब जुवेलर्स की दूकान थी जो हमारे जलसों के लिए चंदा दे दिया करते थे। निकट ही किताबों की दुकानों का सिलसिला था। जहाँ से हमें पुरानी पुस्तकें तथा परीक्षाओं के संभव उत्तरों के परचे मिलते थे। बहुत से दुकानदारों से अच्छी जान पहचान हो गयी थी. निकट ही पार्क की एक और प्रसिद्द गंगा प्रसाद हाल था जहाँ किसी समय समारोह हुआ करते थे। मुझे याद आया इसी गंगाप्रसाद मेमोरियल हाल में 18 जून 1949 को एक पुलिस सुपरिंनटेंडेंट तथा उसके सिपाहियों ने विद्यार्थियों की पिटाई की थी और 12 छात्रों को गिरफ्तार किया था। 1957 में हमने प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन की ओर से उर्दू कवि मीर तक़ी मीर पर डाक्टर मुहम्मद हसन का लिखा नाटक खेला था। जिसमें मीर का मुख्य रोल मैंने अदा किया था। लोगों ने उसे बहुत पसंद किया था। 4 दिसम्बर 1955 को इसी हाल में प्रसिद्ध कवि मजाज़ ने हम छात्रों तथा लेखकों के साथ मिलकर ग्रुप फोटो खिंचवाया था। वहाँ से कुछ दूरी पर जगत सिनेमा , जौहर फाउंडेशन और उर्दू किताबों की एक प्रसिद्ध दूकान दानिश महल है। जहाँ मेरे यूनिवर्सिटी के अध्यापक एहतिशाम हुसैन तथा अन्य जानने वाले जाया करते थे और उसके मालिक नसीम साहब उन्हें नई नई पुस्तकें दिखाते थे। मैं भी कभी कभी वहाँ चला जाता था। उसके पास ही कुछ आगे पढ़कर जिन्नातों वाली मसजिद तथा उसके नीचे एक कवि वाली आसी और आबिद सुहैल की किताबों की दुकानें थीं। और उसके पास ही चौधरी हैदर हुसैन की कोठी थी। जहाँ 26 मई 1971 को मेरे सम्मान में होने वाली एक गोष्ठी में उत्तर प्रदेश के एक मंत्री बलराम सिंह यादव ने भाग लिया था. वहीं से कच्चे हाते की गली आरंभ हो जाती थी जहाँ मेरा एक मित्र प्रसिद्ध हास्यकार अहमद जमाल पाशा रहता था। उसके पिता जमाल के मित्रों से अति नाराज़ रहते थे और कभी कभी उन्हें डांटते थे।

मैंने एक बार फिर गधे की और देखा। वह अभी भी शान से उसी प्रकार खड़ा था जैसे भाषण सुनने वालों की प्रतीक्षा कर रहा हो। ऐसा लगा जैसे वह सोच रहा है, कि दर्शकों से कौन सी नई बात कही जाए? उनमें जोश कैसे पैदा किया जाए? क्या क्या वादे किये जाएं? सब्ज़ बाग़ दिखाए जाएं? उन्हें कैसे गधा बनाया जाए? गधे की पीठ के पीछे लड़कियों का पुराना कालेज महिला विद्यालय और उसके सामने अमीना बाद कालेज था जहाँ से मैंने इंटर किया था। वहाँ से मौलवीगंज की सड़क के साथ पुराने लखनऊ का क्षेत्र आरंभ हो जाता था.

मैंने गधे के पास जाकर उसका सिर से पैर तक जायज़ा लिया। उसे प्रणाम किया:

“यार तू इतनी देर से यहाँ खड़ा बोर हो रहा है, कुछ बोलता क्यों नहीं? “

उसने कोई जवाब नहीं दिया। जैसे वह सोच रहा था, कि यह नकटाई लगाए, बगैर धुला मैला कोट ओढ़े बाहर से आया हुआ इंसान नुमा अजनबी गधा मेरी बात क्या समझेगा। मैं तो अपने गधों की प्रतीक्षा कर रहा हूँ।