हुसैन नाम है इंसानियत शराफ़त का,
हुसैन नाम है दीने ख़ुदा की ज़ीनत का।

माहे ग़म, मुहर्रम के दिलख़राश रातो दिन की इब्तेदा हो चुकी है। मुहर्रम में मजलिसों का दौर पूरी दुनियां में चलता है, माजलिस में इस्लामी हक़ीक़त को बयान किया जाता है। जो जानता है उसको यादहानी के लिए कराया जाता जो नहीं जानता उसे बताया जाता है। इस तरह इस्लाम की सही तस्वीर दुनियां के सामने पेश करने की कोशिश होती है। आज मुसलमान फ़िरक़ों में बंट कर ख़ुद आगे आ गया और इस्लामी तालीम कहीं पीछे छूट गई है। पूरी मुसलमान बिरादरी फ़िरक़ों में बंट कर रह गई है ।

अल्लाह ने फ़िरक़ा परसती की क़ुरआन में मज़म्मत ( निंदा ) ही नहीं की बल्कि इसे गुनाहे अज़ीम क़रार दिया। रसूले अकरम मोहम्मद मुस्ताफ़ा (स अ) ने कबीलों में बंटे हुए अरबों को एक उसूल पर क़ायम कर एक मुत्तहिद क़ौम बना कर दुनियां को सच पर इत्तेहाद ( एक जुटता ) का पैग़ाम दिया। इस्लाम रंग व रूप में फ़र्क़ नहीं करता और न ही छोटे बड़े में कोई फ़र्क़ समझता है। दौलत और ताक़त की बिना पर कोई हाकिम तो बन सकता है पर मुस्लमान या इंसान नहीं बन सकता। दरअसल इस्लाम का पैग़ाम इंसानियत का पैग़ाम है और इंसानियत सिर्फ़ किरदार की पाकीज़गी से ही आती है। रसूल अल्लाह का सारा ज़ोर इसी पर था, उनकी सारी तालीम सारा अमल इंसानियत बचाने के लिए था। इसी लिए इस्लामी नुक़्तये नज़र में दुनियावी मंसब और ताक़त का फ़लसफ़ा नहीं है, बल्कि इंसानियत के उसूलों का नाम इस्लाम है। और इंसानी उसूल की ताक़त इंसानों की एकजुटता से ही उभर कर सामने आती है।
मगर ऐसा हो न सका, रसूल ने अपनी रिसालत के ज़रिये लोगों को एक साथ खड़ा किया तो बाद में मुसलमान दुनियां की लालच में आ कर फ़िरको में बटता चला गया और आज भी यह सिलसिला जारी है। लोग अपने फ़िरको को ले कर फ़ख्र करते हैं जबकि यह अफ़सोस का मुक़ाम है, हम फ़िरक़ों में बंट कर अल्लाह और रसूल के ख़िलाफ़ खड़े होते हैं न की उनकी पैरवी करते हैं। हो सकता है कुछ लोग मेरी इस बात से इत्तेफ़ाक़ न करें या मुझे भला बुरा कहें मगर सच तो यही है और सच की रौशनी को तारीकी के परदे से नहीं ढका जा सकता।

इस्लाम ज़ाती और नस्ल को महत्व नहीं देता बल्कि इल्म और परहेज़गारी को महत्त्व देता है। अगर कोई अपने अच्छे किरदार की बिना पर बुराइयों और गुनाहों से अपने को बचा ले तो वही अल्लाह की नज़र में बेहतर बंदा होता है।

इस्लामी क़द्रों को मुसलमान इतना भूल चुका था कि वह यज़ीद इब्ने मुआविया, (जो हर वक़्त शराब के नशे में डूबा रहता था, जुए में जिसका ज़्यादा तर वक़्त गुज़रता था, जो बंदरों और कुत्तों से खेलता रहता था और उसी आलम में रसूल, रिसालत, क़ुरआन और अल्लाह का मज़ाक उडाता रहता था) को अपना ख़लीफ़ा बना लिया। मुसलमानों का उस वक़्त ख़्याल था कि हम ने जिसे ख़लीफ़ा चुन लिया वही अल्लाह का नुमाईंदा है, उसे दीन और दुनियां के सारे इंतिज़ाम पर फ़ैसला देने का हक़ है। अब वह जो भी करे सब अल्लाह की मर्ज़ी हो जाती थी। चाहे वह बेगुनाहों का क़त्ल करे या उन्हें क़ैद कर के उनपर मुसीबतें ढाए। गोया उन्होंने अपनी अक़्लों पर ताला जड़ लिया था जिसके नतीजे में मक्कारों की मक्कारी और ज़ुल्म इस्लाम बना दिया गया था।

लालच और डर सदा से हुकूमतों का अचूक असलहा रहा है क्योंकि इब्ने आदम इन में बहुत जल्दी फंस जाता है। यज़ीद ने भी वही हरबा चला मगर उसका रुख़ उधर हो गया जो न लालच के जाल में फंसने वाले थे और न ही किसी बात से डरने वाले थे। उस वक़्त के सारे मुसलमान इस्लाम के नाम पर रसूल के इस्लाम को मिटाने पर तुले थे तो कुछ ऐसे भी थे जो इमाम हुसैन की क़यादत में इस्लाम को बचाने के लिए अपनी जाने क़ुर्बान करने वाले थे। जब रसूल के इस्लाम पर उमवी क़यादत में हर क़बीला इस्लाम दुश्मनी में कमर कस कर इस्लाम और रिसालत पर हमलावर हुआ तो रसूल की गोद में पले इमाम हुसैन ने किरदार की बुलंदी के ज़ेवर से आरास्ता ऐसे जवाहर पारों को इकठ्ठा किया जो देखने में बूढ़े थे मगर अज़्म और ईमान की जवानी से लबरेज़ थे। ऐसा नहीं है कि इमाम हुसैन अपने साथ एक बड़ी फ़ौज नहीं ला सकते थे, जब वह मक्का से चले तो हजारों लोग उनके साथ थे, मगर इमाम हुसैन ने हर मंज़िल पर उन्हें आगाह किया कि, मैं किसी हुकूमत के लिए नहीं जा रहा हूँ मैं इस्लाम की हिफ़ाज़त में अपनी जान देने जा रहा हूँ, जो इसके लिए अपनी गर्दन कटा सकता है वह मेरे साथ चले। किसी अच्छे मक़सद के लिए जान देना आसान बात नहीं होती, तो लोग कटते गये और कर्बला में इस्लाम को बचाने के लिए सिर्फ़ बहत्तर लोग ही नज़र आये। आज ज़रुरत है इस बात को समझने और उसपर अमल करने की कि हम क्या कर रहे हैं, क्या हम सच के साथ खड़े हैं या बातिल के लिए जंगो जदाल कर रहे हैं।

इमाम हुसैन ने हर क़बीले से इस्लामी मुजाहिदों को मुंतखिब किया, यहां तक वहबे कलबी जैसे ईसाई ने भी इस्लाम की बक़ा के लिए इमाम और इस्लाम की नुसरत में शहादत दी जिनकी 18 दिन पहले शादी हुई थी। इमाम हुसैन सफ़र में थे, एक मंज़िल पर दोनो क़ाफ़िले इकठ्ठा हुए, वहबे कलबी की माँ ने दरयाफ़्त किया तो पता चला की निवासए रसूल इमाम हुसैन का कारवां है। उसने अपने बेटे से कहा कि यह वह बड़ी और अज़ीम शख़्सियत हैं जिन्होंने बचपन में मैदाने मुबाहिला में बिना बोले अपनी सच्चाई का कलमा ईसाइयों से पढ़ा लिया था, यह सच्चे हैं और इनका हर क़दम सच्चाई की राह पर ही उठता है, बेटा जाओ और दरख़्वास्त करो हम भी उनके हमराह जाएँ गे, और इस तरह वह भी कर्बला में आये और अपनी शहादत दी। मुसलमानों ने वहब को जब शहीद किया तो उनका सर ला कर उनकी माँ के आगे डाल दिया तो उस मोमिना ने उसे दोबारा दुश्मने इस्लाम के सामने फ़ेंक कर कहा, हम जो अल्लाह की राह में क़ुर्बान कर देते हैं उसे वापस नहीं लेते। ऐसे ही लोग लायाके सलाम हैं जो इस्लाम को बचाने के लिए इस तरह की कुर्बानी देते हैं। बेशक कर्बला से हमे दर्स मिलता है कि हक़ और इंसानियत के लिए जान की परवाह नहीं करनी चाहिए क्योंकि यह जान अल्लाह ने हमें एक मक़सद के लिए दी है और हमें इसका इस्तेमाल उसी मक़सद के लिए करना चाहिए। और वह मक़सद है इंसानियत के लिए जीना और उसी की हिफाज़त के लिए मरना। क्योंकि जो सच के लिए मरते है वह शहीद होते हैं और शहीद कभी मरते नहीं।

मेहदी अब्बास रिज़्वी