1898 को अलीगढ़ में जन्मे ख़्वाजा अब्दुल हमीद देश के उन गिन-चुने शिक्षित मुस्लिमों में थे, जिन्हें विभाजन के बाद मोहम्मद अली जिन्ना अपने साथ पाकिस्तान ले जाना चाहते थे, पर वे पाकिस्तान नही गए ।

ख़्वाजा अब्दुल हमीद के वालिद का नाम ख़्वाजा अब्दुल अली और वालिदा का नाम मसुद जहाँ बेगम था। ख़्वाजा अब्दुल हमीद अली मोहम्मडन एंगलो ओरिँटल कालेज सबसे पहले पढ़ कर निकलने वाले लोगो मे थे। वकालत के बाद जब ख़्वाजा अब्दुल हमीद के पिता जब अंग्रेज़ी हुकुमत के यहाँ अच्छे ओहदे पर नौकरी करने लगे तो ख़्वाजा अब्दुल हमीद ने उनका विरोध किया था ।

ख़्वाजा अब्दुल हमीद ने 1908 मे पढाई मेंटो सर्किल से की फिर इस्लामिया हाई स्कुल इटावा मे एडमिशन लिया फिर यहां से पास करने के बाद आगरा कालेज मे दाख़िला लिया जहां उन्होने साईंस की पढाई की शुरु की, इसी बीच ख़्वाजा अबदुल हमीद के पिता ने उन्हे मद्रास के लेदर ट्रेनिंग स्कूल भेज दिया जहां उन्होने एक साल रह कर पढ़ाई की फिर ऐलहाबाद घुमने गए जहां हमीद के भाई म्योर सेँट्रल कालेज मे पढ़ रहे थे । हमीद ने मद्रास को छोड़ 1918 मे म्योर सेँट्रल कालेज मे बीएससी मे दाख़िला ले लिया फिर यहीं से 1920 मे एमएससी करने को सोचा । इसी बीच जब महात्मा गांधी और अली बंधुओं ने ख़िलाफ़त और असहयोग आंदोलन के समय सरकारी संस्थनों के बहिष्कार का एलान किया गया तो ख़्वाजा अब्दुल हमीद ने ख़्वाजा अब्दुल हमीद ने म्योर सेँट्रल कालेज मे हड़ताल कर दी । जिसकी वजह से उन्हे यूनिवर्सिटी से निकाल दिया गया, और फिर ग्रैजुएशन समारोह मे ख़लल डालने के जुर्म मे गिरफ़्तार कर लिया गया। यहां से ख़्वाजा अब्दुल हमीद वापस अलीगढ़ आ गए , इसी बीच मुस्लिम राष्ट्रवादियोँ ने अलीगढ़ मे इदारह खोला जो के ग़ैर राजनैतिक और शैक्षिक संस्था थी इसी मे ख़्वाजा अब्दुल हमीद केमेस्ट्री पढ़ाने लगे, इस इदारे को दुनिया आज “जामिया मिलिया इस्लामिया ” के नाम से जानती है। यही उन्होने अपने देख रेख मे खादी के कपड़े बनवाए और बिकवाये । अलीगढ़ मे ही अपने चाचा के घर पर महात्मा गांधी , मोती लाल नेहरु और जवाहर लाल नेहरु से मिले।“जामिया मिलिया इस्लामिया ” मे पढ़ाते वक़्त ही डा ज़ाकिर हुसैन से ख़्वाजा अब्दुल हमीद की दोस्ती काफ़ी गहरी हो गई थी फिर 1923-24 तक यहां पढाने के बाद दोनो ही आगे की पढ़ाई करने के लिए जर्मनी चले गए । बेटे को पढ़ाने के लिए ख़्वाजा अब्दुल हमीद की मां ने अपने दो मकान बेच दिए थे ।

जर्मनी में ख़्वाजा अब्दुल हमीद ने बेरियम कम्पाउंड्स पर रिसर्च करके डॉक्टरेट प्राप्त की। तीन वर्ष के बर्लिन प्रवास में उनकी क्रांतिकारी यहूदी युवती से मुलाकात हुई । दोनों ने प्रेम विवाह कर लिया। जर्मनी पर नाजियों की गिरफ्त बढ़ रही थी। इस प्रेमी युगल को इस उथल पुथल के दौरान जर्मन से रातोंरात पलायन करना पड़ा। 1928 मे ही ख़्वाजा अब्दुल हमीद अपने साथीयों के साथ बर्लिन जर्मनी मे जंगे आज़ादी और ख़िलाफ़त तहरीक के क़द्दावर नेता मौलाना मोहम्मद अली जौहर से मिले थे। यूरोप या इंग्लैंड में डॉ. ख्वाजा अब्दुल हमीद को उच्च शिक्षा के कारण अच्छी नौकरी मिल सकती थी, पर वे पत्नी के साथ 1928 में स्वदेश लौट आए।

यूरोप मे रहने के दौरान ख्वाजा अब्दुल हमीद ने तकनीक व शोध अनुसंधान आधारित उद्योग देखे थे। गुलाम भारत में भी ऐसे उद्योग हों, इस संकल्प के साथ डॉ. ख्वाजा अब्दुल हमीद ने 1935 में अहमदाबाद में 6 लाख रुपए की सीड केपिटल से द केमिकल इंडस्ट्रियल एंड फार्मास्युटिकल लेबोरेटरीज ( सिप्ला) की स्थापना की।

1937 में सिप्ला का पहला उत्पाद मार्केट में पहुंचा तो मीडिया ने लिखा- भारतीय उद्योगपति भी शोध अनुसंधान व तकनीक पर दांव लगाने लगे हैं। 1941 में द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान सिप्ला ने लोगों को जीवन रक्षक दवाएं उपलब्ध करवाने के साथ फाइन केमिकल्स भी बनाना शुरू किए। 1944 में सिप्ला ने बॉम्बे सेंट्रल में फार्मा मेन्यूफेक्चरिंग सुविधा जुटाई और हायपर टेंशन के उपचार के लिए सेफिनाइड लांच की। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अमेरिका में लोगों को तनाव तोडऩे लगा था। अमेरिका ने सिप्ला से यह ड्रग्स बड़ी मात्रा में खरीदी।

सिप्ला ने स्विस फर्म के लिए फोरोमाइसिन भी बनाई। 1968 में सिप्ला ने देश में पहली बार एम्पीसिलिन लांच की। 1972 में टेक्नोप्रिनर डॉ. ख्वाजा अब्दुल हमीद का निधन हुआ, पर इसके पहले उन्होंने अपने देश को एक और सौगात दी। सिप्ला ने वैज्ञानिक खेती के लिए मेडिको प्लांट्स विकसित करने के लिए बैंगलूरू में एग्रीकल्चर रिसर्च डिवीजन स्थापित किया।