लखनऊ। उत्कर्ष साहित्यिकी के अंतर्गत हिंदी दिवस पर आयोजित वेबीनार में साहित्यकारों ने माना कि ,आंचलिक उपन्यासों के साहित्यकारों ने नारी चरित्र की दशा और दिशा को सही माइनों में परिभाषित कर पाठकों के समक्ष रखने में पूर्ण रूप से सफलता पायी। आंचलिक उपन्यासों में आधी आबादी की संवेदनशीलता, सूक्ष्म चेतनाओं कोे उपन्यासकारों ने ख़ूब पहचाना और उसके अस्तित्व बोध के प्रति विशेष जागरूकता दिखाई। सामाजिक और राजनैतिक विसंगतियों एवं प्रवृत्तियों के चित्रण में सिद्धहस्त गोपाल उपाध्याय के उपन्यासों के पात्र काल्पनिकता से परे और उनका चित्रण सजीव हैं जिनको पढ़ने से ऐसा प्रतीत होता है कि ये हमारे आसपास के ही चित परिचित लोग हैं। उनकी भाषा सहज और प्रवाहमान है ।प्रगतिशील लेखक संघ लखनऊ के अध्यक्ष रहे गोपाल जी एक महत्वपूर्ण कड़ी के रूप में अपनी पक्षधरता रेखांकित करते चले गए। समाज का दबा, पिछड़ा वर्ग विशेष तौर से महिलाएं उनके लेखन का विषय रहे। राष्ट्रीय वेबीनार में उपस्थित वरिष्ठ साहित्यकारों में अवधी लेखन की मर्मग्य व कार्यक्रम अध्यक्षा डॉ विद्या विन्दु सिंह जी, पांडिचेरी से कन्नड़ लेखिका व मुख्य अतिथि स्वर्ण ज्योति जी, नागपुर से पूर्णिमा पाटिल, गोरखपुर से जगदीश लाल श्रीवास्तव व दिल्ली से वरिष्ठ साहित्यकार राम किशोर उपाध्याय जी तथा लखनऊ से वरिष्ठ पत्रकार एवं साहित्यकार नवीन जोशी जी और शकील सिद्दीकी जी शामिल हुए।कार्यक्रम का आयोजन अखिल भारतीय उत्तराखंड युवा प्रतिनिधि मंच एवं राष्ट्रीय सर्वभाषी संगठन ने किया । कार्यक्रम की शुरुआत संस्था की उपाध्यक्षा तनु खुल्बे द्वारा की गयी तथा संचालन नागपुर की कवियत्री रति चौबे व धन्यवाद ज्ञापन संस्था के अध्यक्ष वरिष्ठ पत्रकार व कलमकार हरीश उपाध्याय द्वारा व्यक्त किया गया।

कार्यक्रम की शुरुआत कथक की मशहूर नृत्यांगना विभा नौटियाल ने सरस्वती वंदना से की। वेबीनार विषय आंचलिक उपन्यासों में आधी आबादी साहित्यकार गोपाल उपाध्याय के साहित्यिक अनुशीलन में पर बोलते हुए पाण्डुचेरी की साहित्यकार व हिंदी भाषा प्रचारक मुख्य अतिथि स्वर्ण ज्योति का कहना था कि हिंदी उपन्यास के क्षेत्र में आंचलिक प्रवृति आधुनिकतम प्रवृति के रूप में मान्य है। सभी राष्ट्रो के साहित्य में इसके दर्शन हो जाते हैं। उपन्यासों मे जो नारी चरित्र उभर कर आते हैं उन्हें आर्थिक दृष्टि से उच्च, मध्यम और निम्न वर्गों में बाँटा जा सकता है जिनमें आंचलिक उपन्यासों की आधी आबादी अन्य वर्गों की अपेक्षा अधिक चेतनशील और सशक्त है। विद्रोह और रूढ़ियों को खुलकर चुनौति दे रहा है तथा समाज के बंधनों और मर्यादा की परवाह न करके अपने आत्मा और स्वाभिमान की रक्षा करता है। साहित्यकार गोपाल उपाध्याय का उपन्यास एक टुकड़ा इतिहास, डोले पर बैठी लड़की और मन के मैले उपन्यासों में यह दृष्टिगोचर होता है। उनकी रचनाएं सामाजिक धार्मिक व सांस्कृतिक चेतना जगाने में सक्रिय रही हैं। दिल्ली में रेलवे के वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी और साहित्यकार रामकिशोर उपाध्याय जी ने कहागोपाल उपाध्याय अपने समय की सामाजिक और राजनैतिक विसंगतियों एवं प्रवृत्तियों के चित्रण में सिद्धहस्त है। उनके उपन्यासों के पात्र काल्पनिकता से परे और उनका चित्रण सजीव हैं जिनको पढ़ने से ऐसा प्रतीत होता है कि ये हमारे आसपास के ही चित परिचित लोग हैं। उनकी भाषा सहज और प्रवाहमान है ।इस अर्थ में प्रगतिशील विचारों के वाहक गोपाल उपाध्याय समकालीन शीर्षस्थ उपन्यासकारों की श्रेणी में खड़े दिखाई देते हैं। अमर उजाला गोरखपुर के पूर्व ब्यूरो प्रमुख जगदीश लाल श्रीवास्तव जी ने कहास्वर्गीय गोपाल दत्त उपाध्याय जीवन पर्यंत समाज की बेहतरी के लिए संघर्षरत रहे । लेखन उनका कर्म ही नहीं उनका धर्म था। वह उच्च पदस्थ अधिकारी होते हुए भी कभी भी शासन सत्ता के दबाव में नहीं रहे और अपना स्वतंत्र चिंतन लेखन जारी रखा। समाजवादी पृष्ठभूमि उनकी राजनीतिक जमीन रही। प्रगतिशील लेखक संघ की एक महत्वपूर्ण कड़ी के रूप में अपनी पक्षधरता रेखांकित करते चले गए। समाज का दबा, पिछड़ा वर्ग विशेष तौर से महिलाएं उनके लेखन का विषय रहे।

आंचलिक उपन्यासों में आधी आबादी के चेतना के स्वर मुखरित हुए। नागपुर की उपन्यासकार पूर्णिमा पाटिल ने विषय पर बोलते हुए कहा ,आंचलिक उपन्यासों में आधी आबादी की संवेदनशीलता, सूक्ष्म चेतनाओं कोे उपन्यासकारों ने ख़ूब पहचाना और उसके अस्तित्व बोध के प्रति विशेष जागरूकता दिखाई। मूर्धन्य साहित्यकार श्री गोपाल उपाध्याय जी ने उत्तराखंड की आंचलिकता को समेटते हुए “डोले पर बैठी लड़की “और “मन के मेले ” उपन्यासों के माध्यम से अनेकानेक महिलाओं के लिए नया मार्ग खोल, प्रगतिशील समाज रचना में कदम रखा। गोपाल उपाध्याय जी को एक टुकड़ा इतिहास ऐसा आंचलिक उपन्यास है, जो सही मायने में ग्रामीण स्त्री के सशक्तिकरण को दर्शाता है। हम कह सकते हैं कि इन आंचलिक उपन्यासों में आधी आबादी के चेतना के स्वर बुलंद रूप में मुखरित हुए हैं और आधी आबादी केे पात्र ग्रामीण सामाजिक व्यवस्था के पुनर्निर्माण में किसी आलोक स्तंभ से कम नहीं हैं।