(आलेख : शांतनु डे, अनुवाद : संजय पराते)

बांग्लादेश अशांति की स्थिति में है। यह नफ़रत की आग में जल रहा है। हिंसक, कट्टरपंथी, उन्मादी उग्रवादियों द्वारा एक के बाद एक भयानक घटनाओं को अंजाम दिया जा रहा हैं। भारत विरोधी बयानबाजी खतरनाक गति से बढ़ रही है और पूरे बांग्लादेश में भारत विरोधी नारे लगाए जा रहे हैं।

मैमनसिंह में, दीपू दास नाम के एक युवा कपड़ा मजदूर को इस्लाम के खिलाफ़ अपमानजनक टिप्पणी करने के आरोप में एक भीड़ ने बेरहमी से उत्पीड़ित किया और मार डाला। फिर उसकी लाश को एक पेड़ से लटकाकर आग लगा दी गई – यह सब लोगों के सामने, बर्बर जश्न के माहौल में हुआ। मीडिया संस्थान ‘प्रोथोम आलो’ और एक और बड़े अख़बार, ‘द डेली स्टार’ – जो देश के दो सबसे जाने-माने अख़बार हैं – के दफ़्तरों में भी तोड़फोड़ की गई और आग लगा दी गई। पत्रकारों को जान का खतरा था। दोनों अख़बारों ने पिछले साल के जुलाई आंदोलन का समर्थन करते हुए मज़बूत रुख अपनाया था, फिर भी उन्हें सुरक्षा नहीं मिली। इतिहास हमें बताता है कि उग्रवाद किसी दोस्त को भी नहीं बख्शता। आज के साथी कल के शिकार हो सकते हैं। आधी रात को, न्यू एज के संपादक और एडिटर्स काउंसिल के अध्यक्ष नूरुल कबीर पर हमला किया गया। खुलना में एक पत्रकार की गोली मारकर हत्या कर दी गई। वह खुलना प्रेस क्लब के अध्यक्ष थे।

सांस्कृतिक संस्थानों पर हमला

यहां तक कि राष्ट्रकवि को भी नहीं बख्शा गया। रवींद्रनाथ टैगोर और काजी नज़रुल इस्लाम की यादों से जुड़ा, ऐतिहासिक रूप से प्रसिद्ध सांस्कृतिक संस्थान, छायानाट को भी आग के हवाले कर दिया गया। छायानाट नज़रुल के प्रसिद्ध कविता संग्रहों में से एक का शीर्षक भी है – ‘छाया’ (परछाई) और ‘नाट’ (नाट्य यानी प्रदर्शन कला)। पाकिस्तान के शासन के दौरान, खासकर अयूब खान के समय में, टैगोर के काम की आधिकारिक तौर पर उपेक्षा की गई और प्रतिबंधित कर दिया गया था। 1961 में, पाकिस्तानी शासन की धमकियों की परवाह न करते हुए, टैगोर की जन्म शताब्दी मनाई गई थी, और उसी वक्त छायानाट का जन्म हुआ था। यह सिर्फ़ बांग्लादेश का एक सांस्कृतिक संस्थान नहीं है ; यह बंगाली सांस्कृतिक विरासत को आगे बढ़ाता है और बंगालियों के लिए पहचान का प्रतीक है – उनके साझा इतिहास और लचीलेपन की एक जीवित याद। अपनी स्थापना के बाद से, इसे कभी चुप नहीं कराया जा सका। इसने टैगोर-नज़रुल, बाउल-भटियाली की धुनें बंगाल की धरती पर फैलाई हैं। छायानाट के नए साल के उत्सव को अब यूनेस्को की मान्यता प्राप्त है – फिर भी ऐसा प्रतिष्ठित संस्थान गुंडों से बच नहीं पाया। रवींद्रनाथ टैगोर की तस्वीरें और किताबें जला दी गईं हैं, और ज़्यादातर उपकरण नष्ट कर दिए गए हैं। उन्मादी भीड़ ने हारमोनियम तोड़ दिए, सात मंज़िला इमारत के हर कमरे में घुस गए, और कुर्सियाँ, मेजें, बेंचें – जो कुछ भी उन्हें मिला, सब तोड़ दिया। फिर उन्होंने सब कुछ जला दिया ; यहाँ तक कि लालन के चित्र भी फाड़ दिए गए। सांस्कृतिक संगठन उदिची पर भी हमला किया गया। छायानाट की स्थापना के आठ साल बाद, क्रांतिकारी लेखक सत्येन सेन और रणेश दासगुप्ता ने उदिची शिल्पीगोष्ठी के गठन का नेतृत्व किया था। इसकी स्थापना के बाद, समाजवादी सिद्धांतों में प्रशिक्षित मजदूरों और कार्यकर्ताओं ने गाँवों, खेतों और नदी-किनारों पर बंगाली जनगीतों का तूफान ला दिया। मुक्ति संग्राम के दौरान, छायानाट और उदिची के कलाकारों ने स्वर-लड़ाकों के रूप में काम किया और अपनी आवाज़ का हथियार के रूप में इस्तेमाल किया। आज़ादी के बाद भी, उन कलाकारों पर कट्टरपंथी ताकतों द्वारा बार-बार हमले किए गए। 1999 में, जेसोर टाउन हॉल में उदिची द्वारा आयोजित एक बाउल-गीत संगीत कार्यक्रम में, कट्टरपंथियों द्वारा किए गए बम विस्फोट में सांस्कृतिक कार्यकर्ताओं और दर्शकों सहित दस लोग मारे गए थे। 2001 में, रमना बटामूल में छायानाट के नए साल के जश्न के दौरान, एक उग्रवादी बम धमाके में सांस्कृतिक कार्यकर्ताओं और दर्शकों सहित दस लोगों की जान चली गई। फिर भी उनका हौसला और मनोबल कभी कम नहीं हुआ। नफरत की आग ने एक बीएनपी नेता की सात साल की बेटी को भी लील लिया। इस बीएनपी नेता और उनकी दो बेटियों का फिलहाल अस्पताल में इलाज चल रहा है।

अपनी स्थापना के बाद 27 सालों में पहली बार, बांग्लादेश के सबसे ज़्यादा पढ़े जाने वाले अख़बार ‘प्रोथोम आलो’ का 19 दिसंबर को प्रकाशन नहीं हुआ। इसका ऑनलाइन संस्करण भी बंद कर दिया गया था। रात में हुई हिंसा के बाद ढाका के कारवां बाज़ार में स्थित अख़बार के दफ़्तर में अंधेरा छा गया। शहर के बाहर, कुश्तिया, खुलना और सिलहट में अख़बार के दफ़्तरों पर हमला किया गया और तोड़फोड़ की गई, और चटगाँव, बोगुरा और बारिसल में भी दफ़्तरों पर हमला करने की कई कोशिशें की गईं। अपने 33 साल के इतिहास में पहली बार, ‘द डेली स्टार’ भी प्रकाशित नहीं हो सका, और इसका ऑनलाइन संस्करण भी लंबे समय के लिए बंद कर दिया गया।

18 दिसंबर को जब जुलाई आंदोलन के एक मुख्य ग्रुप इंकलाब मंच के संयोजक उस्मान हादी की मौत की खबर ढाका पहुंची, तो तनाव बढ़ गया। दक्षिणपंथी इस्लामी कट्टरपंथियों, ऑनलाइन कार्यकर्ताओं और पाकिस्तान समर्थक तत्वों ने भीड़ को भड़काना और इकट्ठा करना शुरू कर दिया। ये हमले साफ़ तौर पर योजनाबद्ध थे, जैसा कि जमात की छात्र शाखा इस्लामी छात्र शिविर के महासचिव मुस्तफ़िज़ुर रहमान ने जहांगीरनगर विश्वविद्यालय में रात की हिंसा के दौरान कहा था – “हमें वामपंथियों, शाहबागी, छायानाट और उदिची को खत्म करना होगा।”

बांग्लादेश में राजनीतिक हिंसा कोई नई बात नहीं है। देश पिछले साल जुलाई-अगस्त की उथल-पुथल को नहीं भूला है, जिसका नतीजा हसीना के तानाशाह शासन के पतन के रूप में निकला था। मुहम्मद यूनुस के नेतृत्व में एक अंतरिम प्रशासन ने इन उम्मीदों के बीच कार्यभार संभाला था कि शांति, स्थिरता और सुरक्षा सुनिश्चित की जाएगी, जिससे भय मुक्त माहौल में स्वतंत्र, निष्पक्ष और बिना किसी भेदभाव के चुनाव कराने का रास्ता साफ होगा। इसके बजाय, गड़बड़ी करने वाली, नफरत की एक संस्कृति हावी हो गई है। कट्टरपंथी तत्वों ने सूफी दरगाहों और बाउल सभाओं पर हमले करवाए हैं ; कब्रों को अपवित्र किया गया है, लाशों को घसीटकर सबके सामने जलाया गया है ; लड़कियों के फुटबॉल मैचों को रोकने की कोशिशें की गई हैं ; और पूरे देश में सांस्कृतिक जगहों को सीमित कर दिया गया है। समाज का एक कट्टरपंथी तबका अब खुद को मुख्यधारा मानता है, और एक ऐसे बांग्लादेश की कल्पना करता है, जो बहुलतावाद और असहमति वाले विचारों से रहित हो।

सरकार ने बार-बार इन ग्रुपों को सिर्फ़ ‘प्रेशर ग्रुप’ बताया है — यह एक ऐसी व्याख्या है, जो खतरे की गंभीरता को कम करके आंकती है।

कट्टरपंथ का खतरा

बांग्लादेश में फरवरी में राष्ट्रीय चुनाव होने वाले हैं, लेकिन मौजूदा माहौल बिल्कुल भी भरोसेमंद नहीं है। देश तेज़ी से बदल रहा है, और कट्टरपंथियों के समर्थन से और नेताओं की भड़काऊ बयानबाजी से, एक पारंपरिक रूप से मित्र देश में भारत-विरोधी भावना तेज़ी से बढ़ रही है। मुक्ति संग्राम की भावना कमज़ोर हो रही है, और बंगाली भाषा पर आधारित संस्कृति को किनारे किया जा रहा है। एक इस्लामिक राज्य बनाने की खुली कोशिशें हो रही हैं – बांग्लादेश को ‘बंगाली पाकिस्तान’ के रूप में फिर से बनाने की कोशिश की जा रही है।

पिछले दो महीनों में ही, पाकिस्तान की सेना के पांच प्रतिनिधिमंडल खास मिशन पर आए हैं, और हाफिज सईद का करीबी सहयोगी भी चक्कर लगा चुका है। जमात को अब पहली बार लग रहा है कि वह राज्य की सत्ता पर कब्ज़ा कर सकती है, हालांकि पाकिस्तान के समय में भी वोटों में उसकी हिस्सेदारी सिर्फ 8-10 प्रतिशत ही रही है। ढाका विश्वविद्यालय के चुनावों में, इस्लामी छात्र शिविर एक भी सीट जीतने में नाकाम रहा है। नतीजतन, निष्पक्ष चुनाव की संभावना पर संदेह बना हुआ है, जो कि स्वाभाविक चिंता है।

ढाका विश्वविद्यालय द्वारा पिछले सितंबर में किए गए एक सर्वे से पता चला है कि बांग्लादेश में अभी लगभग 400,000 अवैध हथियार घूम रहे हैं। हर तरफ पसरी हुई कानून-व्यवस्था की कमी के बीच, यह शक बना हुआ है कि फरवरी में निष्पक्ष और स्वतंत्र चुनाव हो पाएंगे या नहीं। उसी रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि अगस्त और सितंबर के बीच राजनीतिक हिंसा में 281 लोग मारे गए थे और 7,689 घायल हुए थे।

लोकतांत्रिक चुनावों की एक अहम बुनियाद – प्रेस की आज़ादी – है, जिस पर बहुत ज़्यादा दबाव है। इसी दौरान 1,126 पत्रकारों को गिरफ्तार किया गया है, उन पर कानूनी मुकदमे दायर किए गए हैं, या उन पर हमले हुए हैं। स्वीडन के फोजो मीडिया इंस्टीट्यूट की 7 दिसंबर की एक रिपोर्ट में यह पाया गया है कि 89 प्रतिशत पत्रकारों को 26 फरवरी के चुनाव के दौरान हमलों का डर है। यह डर दो अखबारों के दफ्तरों में हाल ही में हुई आगजनी की घटना से और बढ़ गया है। संस्थागत नियंत्रण कम होने के साथ, बांग्लादेश की स्थिति बिगड़ती जा रही है।

धार्मिक कट्टरपंथ का उभार सीमा पार भी गंभीर नुकसान पहुंचा रहा है, जो न सिर्फ़ बांग्लादेश, बल्कि पड़ोसी भारत को भी झुलसा रहा है। सीमा के दोनों ओर सांप्रदायिक ताकतें एक-दूसरे को बढ़ावा दे रही हैं, जिससे नफ़रत, दुश्मनी और गहरी फूट का माहौल बन रहा है। अंतरिम सरकार को निर्णायक कार्रवाई करनी चाहिए, इन उग्रवादी तत्वों पर लगाम लगानी चाहिए और हिंसा करने वाले हर अपराधी को त्वरित न्याय के दायरे में लाया जाना चाहिए।

जवाबी कार्रवाई करने का संकल्प

साथ ही, अगर बांग्लादेश सच में लोकतंत्र के रास्ते पर लौटना चाहता है, तो चुनाव ही एकमात्र सही रास्ता है। अगर आंदोलनकारी, उनके हथियारबंद समर्थक और राजनीतिक संरक्षक चुनाव को रोकने या टालने में कामयाब हो जाते हैं, तो देश में अराजकता फैल जाएगी, जिसके नतीजे समझना मुश्किल होगा। जब कोई भीड़ – एक उन्मादी भीड़ – यह तय करती है कि कौन लिख सकता है, गा सकता है या छाप सकता है, तो एक क्रियाशील राज्य का पूरा विचार ही ध्वस्त हो जाता है।

ज़िम्मेदारी अब सिर्फ़ सरकार की नहीं है, बल्कि उन लोगों की भी है, जो अब भी एक बहुलवादी बांग्लादेश का सपना देखते हैं। नागरिकों को इस हिंसा के प्रतिरोध में उठ खड़ा होना चाहिए, और बेहिचक कई-कई पार्टियों और अलग-अलग विचारों के अस्तित्व, मज़बूत विरोध और प्रेस की आज़ादी, और पत्रकारों, कलाकारों, सांस्कृतिक कार्यकर्ताओं और उनके संस्थानों और मंचों की सुरक्षा की अपनी मांगों को साफ़ तौर पर रखना चाहिए। कम से कम, सरकार को हिंसा की पूरी जांच करनी चाहिए, वीडियो में कैद लोगों की पहचान करनी चाहिए, और उन्हें अदालत के सामने पेश करना चाहिए।

बांग्लादेश अब विरोध में खड़ा हो गया है। राख से प्रोथोम आलो और द डेली स्टार फिर से उभरे हैं, उनकी प्रतियां एक बार फिर पाठकों तक पहुंच रही हैं। 20 दिसंबर को, यह घोषणा करते हुए कि हम अपना सिर नहीं झुकाएंगे, द डेली स्टार ने एक बैनर हेडलाइन चलाई : हम झुकेंगे नहीं! इसके पहले पन्ने के संपादकीय में, जो बोल्ड और साहसी था, शीर्षक था : ‘स्वतंत्र पत्रकारिता के लिए एक काला दिन’, जिसके बाद एक प्रतिज्ञा थी : ‘वे हमारे दफ्तर को जला सकते हैं, लेकिन वे हमारे संकल्प को नहीं जला सकते।’ ढाका की सड़कों पर, रैलियों और सभाओं में एक जोरदार संदेश गूंज रहा है : हम बांग्लादेश के लिए अपनी पूरी ताकत से विरोध करेंगे। रैली में नारे लग रहे थे — ‘बांस की लाठियां तैयार करो / कट्टरपंथ को सबक सिखाओ।’ ये नारे उग्रवाद को पीछे धकेलने के सामूहिक दृढ़ संकल्प को रेखांकित करते हैं।

बहुत पहले, कवि शम्सुर रहमान ने चेतावनी दी थी, कृष्णपक्ष कोरेछे घेराओ अमादेर (अंधेरे पखवाड़े ने हमें घेर लिया है) और विनती की थी, कोबे शेष होबे कृष्णपक्ष! (यह अंधेरा पखवाड़ा कब खत्म होगा!) – यह एक ऐसी पुकार है, जो आज भी सच लगती है। कवि नाज़िम हिकमत के शब्द भी उतने ही प्रासंगिक हैं : अगर मैं नहीं जलूंगा/ अगर तुम नहीं जलोगे/ अगर हम नहीं जलेंगे/ तो रोशनी/ अंधेरे को कैसे हराएगी?

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। अनुवादक अखिल भारतीय किसान सभा से संबद्ध छत्तीसगढ़ किसान सभा के उपाध्यक्ष हैं। संपर्क : 94242-31650)