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अज़ान तो एक बहाना है, मकसद तो साम्प्रदायिक सौहार्द मिटाना है

तौक़ीर सिद्दीक़ी

कर्नाटक राज्य इन दिनों सांप्रदायिक ध्रूवीकरण की प्रयोगशाला बन गया है, एक स्कूल में हिजाब से शुरू हुआ यह सिलसिला हलाल, दुकान और अब अज़ान पर आ पहुंचा है. कर्नाटक की राजधानी बंगलुरु में एक आदेश जारी किया गया हैं जिसमें मस्जिदों से पांच वक्त की होने वाली अज़ानों की ध्वनि को नापने के लिए डेसीबल मीटर लगाने की बात कही गयी है. प्रशासन का मानना है कि मस्जिदों से होने वाली अज़ाने ध्वनि प्रदूषण के मानक से कहीं ज़्यादा हैं इसलिए इनकी निगरानी करना आवश्यक है.

कर्नाटक से निकले इस गैरज़रूरी मुद्दे को अब महाराष्ट्र में हवा दी जा रही है, बल्कि वहां तो अज़ान के टाइम पर तेज़ आवाज़ में लाउडस्पीकर के ज़रिये हनुमान चालीसा पढ़ने की चेतावनी दी गयी है. कभी बाल ठाकरे के राजनीतिक वारिस कहे जाने वाले राज ठाकरे की ओर से दी गयी इस वार्निंग पर अमल भी शुरू हो गया है और ऐसी वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हैं जिनमें अज़ान के समय हनुमान चालीसा की आवाज़ सुनाई पड़ रही है. भाजपा से जुड़े एक व्यापारी ने तो इस काम के लिए फ्री लाउडस्पीकर देने का ऑफर भी दे डाला है.

अज़ान की आवाज़ को कंट्रोल करने की मुहीम महाराष्ट्र में भी शुरू हो चुकी है, शिवसेना प्रवक्ता संजय राउत ने भी कहा है कि राज्य के गृहमंत्री ने इस बारे में नोटिस जारी किये हैं. प्रदूषण किसी भी तरह का हो, चाहे वायु का हो या ध्वनि का इसका बढ़ना हानिकारक होता है यह सभी को मालूम है और इसे कण्ट्रोल में करना चाहिए, इस बात से सभी लोग सहमत होंगे। गंदगी या शोरशराबा किसी को भी नहीं पसंद होता है. मगर यहाँ पर सवाल नीयत का उठता है, अज़ान पर ऐतराज़ क्यों? इस्लाम में पांच वक़्त की नमाज़ फ़र्ज़ है और हर नमाज़ से पहले अज़ान का होना भी ज़रूरी है. एक वक़्त की अज़ान में दो मिनट या ज़्यादा से ज़्यादा तीन मिनट लगते हैं, इस लिहाज़ से देखा जाय तो 24 घंटे में कुल 10 से 15 मिनट की अज़ान होती है. यहाँ सवाल यही आता है क्या कि इन 15 मिनटों में ध्वनि प्रदूषण इतना बढ़ जाता है कि लोगों को तकलीफ होने लगती है. (वैसे फज़र की अज़ान से गैर मुस्लिमों की नींद डिस्टर्ब होने की बात मानी जा सकती है)

देश में अगर धार्मिक ध्वनि प्रदूषण की बात करें तो बात बहुत आगे बढ़ जाएगी मगर ट्रैफिक का शोर, उत्सवों में बजता हाई साउंड डीजे, बैंड बाजों के साथ निकलती बारातें, क्या इनमें से फुसफुसाहट निकलती है, क्या इनसे निकली कानफोड़ू आवाज़ें लोगों के दिल और दिमाग़ को डिस्टर्ब नहीं करतीं? दरअसल अज़ान तो एक बहाना है मकसद तो राजनीति को चमकाना और साम्प्रदायिक ध्रूवीकरण को ज़्यादा से ज़्यादा हवा देना है. मस्जिदों में डेसीबल मीटर भी लग जायेंगे, अज़ान की आवाज़ और धीमी भी हो जाएगी मगर क्या सिलसिला यहीं पर ख़त्म हो जायेगा। मेरा ख्याल से तो कभी नहीं, क्योंकि देश में हर बात को अब चुनावी चश्मे से देखा जाने लगा है, 24*7 और साल के 365 दिन देश के अधिकांश लोग चुनावी मोड में ही रहते हैं, इसलिए हिजाब का हल हुआ तो हलाल और हराम शुरू हो गया, आर्थिक बहिष्कार का मुद्दा उछाला गया और अब अज़ान पर ऐतराज़। अज़ान की आवाज़ पर कंट्रोल होगा तो आगे कोई और मुद्दा उभारा जायेगा। देश का युवा अब इन्ही सब गैरज़रूरी मुद्दों में उलझा रहेगा, उसे इस बात से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि उसे नौकरी मिल रही है या नहीं, उसका रोज़गार चल रहा या नहीं, मंहगाई ने कमर तोड़ी है या नहीं क्योंकि उसे अब यही सब पसंद आता है और उसे जो पसंद आ रहा है वह उसे मिल रहा है. आखिर में मैं यही कहूंगा कि ध्वनि प्रदूषण पर नियंत्रण बेहद ज़रूरी है फिर वो चाहे मस्जिद निकल रहा हो या मंदिर से , मंदिर से निकल रहा हो या गुरूद्वारे से, बारातों से निकल रहा हो या जलसों-जुलूसों से.

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