मोहम्मद आरिफ़ नगरामी


माहे रमज़ान अपनी तमामतर रहमतों, बाबरकात, अनवार व फुयूज़ात, नेक साआत और लम्हात, बाबरकात लैल व नहार, इबादत के मौसम बहार, क़रया क़रया मस्जिद मस्जिद और घर घर तिलावत कुरआनी की आवाज़ों, ज़ौक़े इबादत और शौके़ सियाम की दिल फरेब रानाईयों और फिज़ा में हर तरफ फैली हुई रूहानी कैफिय्यात के साथ अब रूख्सत होने को है।


मुबारक हैं, वह लोग जिन्होंने इस माहे मुबारक के लैल व नहार को ग़नीमत जाना और इस माहे मुकद्दस की क़ीमती साआत की क़दर की, उनका हक़ अदा किया, उसके अय्याम को रोज़े की हालत में गुज़ारा और उसकी रातों में अपने कुलूब को तिलावत कुरआनी से मुनव्वर किया, रोज़ों और कुरआन के मक़ासिद और मुनाफे को अपने अन्दर जज़्ब किया। अल्लाह तबारक व तआला का ये वादा है कि वह बन्दा मोमिन जिसने रमज़ान में रोज़े रखे और तिलावत कलाम पाक का एहतिमाम किया, इसके हक़ में रोज़ों और कुरआन की शिफाअत क़बूल की जाएगी। अल्लाह तआला हमें उन दोनों की शिफाअत से महरूम न करे और हमें हर उस अमल और ज़ात की शिफाअत नसीब फरमाए जिसको अल्लाह ने शिफाअत का हक़ दिया है। खुश नसीब हैं, वह लोग जिन्होंने रमज़ान के आखिरी अशरे को (जो कि अशरे निजात है) अपने लिए ग़नीमत जाना और उनको वह रात नसीब हुई, जिसकी इबादत हज़ार महीनों से बेहतर है और वह इस आखि़री अशरे निजात में अल्लाह से जन्नत के तालिब रहे। उन्होंने जहन्नुम से निजात व पनाह मांगी और उन रातों में आइन्दा ज़िन्दगी में इन आमाल का बजा लाने का अज़म किया, जो जन्नत का हक़दार बनाते हैं और उन बुरे आमाल से तौबा की, जो कि बाइसे वबाल हैं और उनका नतीजा जहन्नुम है। खुश क़िस्मत हैं वह लोग जिन को अल्लाह तआला ने एतिक़ाफ जैसी इबादत करने का मौक़ा फराहम किया और उन्होंने इस इबादत का हक़ अदा किया। रोज़ेदारों, शबबेदारी करने वालों, एतिक़ाफ करने वालों, कुरआन करीम की तिलावत करने वालों और सुनने वालों और अपने गुनाहों से तौबा करने वालों को अल्लाह की ज़ात से मायूस नहीं होना चाहिए। इरशाद रब्बानी है, जिसका मफहूम हैः ‘‘ऐ मेरे वह बन्दों, जिन्होंने अपने नफ़्सों पर जुल्म किया, अल्लाह की रहमत से मायूस न हों, बेशक अल्लाह तआला तमाम गुनाहों को माफ कर देगा और बदनसीबी है उन लोगों के लिए, जिन्होंने इस माहे रमज़ान के लैल व नहार और इसके साआत व लम्हात को यूं ही गुज़ार दिया‘‘। आंहज़रत स. का इरशाद हैः‘‘अल्लाह की रहमत से दूर है वह शख्स कि जिसने रमज़ानुल मुबारक का बाबरकत महीना पाया और फिर भी अपनी मगफिरत नहीं करवाई, ऐसे लोगों को अल्लाह के अज़ाब से बेखौफ़ और मुतमईन नहीं होना चाहिए‘‘।


इरशादे रब्बानी है, जिस का मफहूम है किः‘‘बेशक मेरा अज़ाब निहायत सख्त है‘‘। अल्लाह तआला हमारा खुश नसीब लोगों में फरमाये और इस तरह से कि वह नेक आमाल जो हम रमज़ान में करते रहे, इस पर हमें इस्तिक़ामत और दवाम नसीब हो। माहे रमज़ान बस अब क़रीब है कि हम से रूख्सत हो जाये हमें नफ्स का मुहासिबा करना चाहिए। अगर इस माहे रमज़ान से कुछ हासिल करना बाक़ी रह गया है तो उसके हुसूल के लिए हमें कोशिश करनी चाहिए, रमज।़ान की जो साआत रह गयी हैं, उनमें हमें अपने बारे में ग़ौर करना चाहिए कि किया हमने माहे रमज़ान में अल्लाह तआला के हुकूक़ अदा किये? क्या हमने अपने कुलूब को सियाम व क़याम और तिलावते कुरआन पाक से मुनव्वर किया? रोज़े रखने से हमारे दिल में जज़्बए हमदर्दी पैदा हुआ? और हमने बे सहारा यतीमों पर दस्ते शफक़त रखा? क्या हमने अपने नफ्स का हसद, ग़ीबत, कीना और बुग़्ज़ से पाक रखा? क्या हमने कुरआन करीम की तिलावत और रूकूअ व सुजूद से अपने कुलूब को मुनव्वर किया?


माहे रमज़ानुल मुबारक के ये आखिरी अय्याम हम से ये सवाल करते हैं कि हमने रमज़ानुल मुबारक में हलाल व हराम का ख्याल रखा? क्या हमने खलके़ खुदा के हुकूक़ को अदा किया? क्या हमारे कारोबार में, हमारी तिजारत में नाजाइज़ मुनाफे खोरी, ज़खीरा अंदोज़ी, मिलावट धोखेबाज़ी और जालसाज़ी तो शामिल न थी? क्या हमारे अख्राजात में इसराफ व तब्ज़ीर और फुजूल खर्ची तो न थी? क्या हमने अपने खुशियों में गुम होकर गुरबा, फुक़रा और मसाकीन के हुकूक़ तो फरामोश नहीं कर दिये? क्या हमने माहे रमज़ानुल मुबारक में कुरआन और दीन को ज़रिया मआश तो नहीं बनाया? क्या हमने माहे रमज़ानुल मुबारक में मुसलमानों में फिरक़ा वारियत, तअस्सुब और मुनाफिरत फैलाने की कोशिश तो नहीं की? क्या हमने अपने दीन, मिल्लत और वतन के ह़क़ में कोई ऐसा अमल तो नहीं किया जो उसके मुफाद के खि़लाफ हो? क्या हमने अपने हम वतनों के दरमियान नसली और मुनाफिरत फैलाने की कोशिश तो नहीं की? क्या हम इस माहे मुबारक में सादा लौह अवाम के लिए एज़ा रसानी का बाइस तो नहीं बने? क्या हमने अपनी इबादत के औक़ात और माहे रमज़ान की मुबारक साआत को बिदआत और रूसूम की नज़र तो नहीं किया? क्या हमने इस माहे मुकद्दस में कुरआन करीम और अहादीस नबवी स. की तालीमात और सुन्नतों को तर्क करके अपनी खुवाहिशात नफ्सानी और अपनी मनमानी तश्रीहात और मर्ज़ीय्यात की इत्तिबा तो नहीं की? क्या हमने इस माहे मुद्दस में कुरआन और साहिबे कुरआन स.अ. की अज़मत व नामूस के तहफ्फुज़ के लिए अपने जज़्बात को टटोला? और क्या इस मुकद्दस मिशन के लिए इख्लास नियत के साथ पेश किया? क्या हमने दहरियत, यहूदियत, ईसाईयत के नापाक अज़ाएम को कुचलने के लिए अपने अंदर जज़्बए जिहाद पैदा किया? और माहे रमज़ानुल मुबारक में पेश आने वाले ग़ज़वए बदर को सामने रखते हुए अपने गर्द वे पेश फिज़ाए बदर पैदा करने का अज़्म किया?