जब तक मामला इसराइल बनाम अरब था तो पाकिस्तान जैसे देशों को दोस्त दुश्मन का भेद बहुत आसान था। एक मानक नीति अपना ली गई थी कि अरबों का हर मंच पर साथ देना है और इस्राएल का हर मंच पर विरोध करना है। मगर विदेश नीति की यह आसानी 1989 में समाप्त हो गयी जब ईरान में क्रांति आ गयी और जमी जमाई बिसात उथल पुथल हो गई। पाकिस्तान सहित कोई नहीं जानता था कि ईरानी क्रांति का ऊंट किस करवट बैठेगा। इसलिए अनिश्चित स्थिति के कारण पाकिस्तान और सऊदी अरब सहित खाड़ी देश सामरिक दृष्टि से एक दूसरे के करीब आते चले गए।

लेकिन ईरान की चूंकि पाकिस्तानी बलूचिस्तान के साथ नौ सौ किलोमीटर लंबी सीमा लगती है और ईरान और पाकिस्तान के संयुक्त पड़ोसी अफगानिस्तान में भी क्रांति आ चुकी थी। इसलिए पाकिस्तान के लिए अरब और अजम मामलों में एक संतुलन बनाए रखना क्षेत्रीय, वैचारिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और आर्थिक मजबूरी बन गई थी।

जब सितंबर 1980 में इराक ने ईरान पर हमला किया और सऊदी अरब और कुवैत समेत खाड़ी देशों ने खुल के सद्दाम हुसैन का साथ देने का ऐलान किया तो पाकिस्तान के लिए  बड़ी चुनौती थी कि वह कहां जाए और क्या करे। पाकिस्तान की पूर्वी सीमा पर भारत की सैन्य उपस्थिति लगातार थी। पश्चिमी सीमा पर अफगानिस्तान में सोवियत संघ सीमा पर बैठा था. दक्षिण पश्चिम में पाकिस्तान की पीठ से लगा ईरान इराक से उलझा हुआ था और लाखों पाकिस्तानी खाड़ी देशों में रोजगार के लिए बसे थे. स्वयं पाकिस्तान में शिया मुसलमानों की एक अच्छी खासी तादाद बसती है।

इराक ईरान युद्ध शुरू होते ही न्यूयॉर्क में संयुक्त राष्ट्र महासभा की वार्षिक बैठक के मौके पर इस्लामी शिखर सम्मेलन के सदस्य देशों के विदेश मंत्रियों की आपात बैठक बुलाई गई और पाकिस्तानी विदेश मंत्रालय ने सुझाव दिया कि राष्ट्रपति जिया उल हक दो मुस्लिम देशों के बीच युद्ध बंद करने के लिए ‘स्वैच्छिक’ सद्भावना शांति मिशन लेकर तेहरान और बगदाद जाने को तैयार हैं। इस प्रस्ताव को सराहा गया और पीएलओ प्रमुख यासिर अराफात भी सद्भावना मिशन में शामिल होगए.गोया पाकिस्तान ने अपने लिए एक रचनात्मक काम निकाल लिया।

जब जनवरी 1981 में ताइफ़ में तीसरी इस्लामी प्रमुख सम्मेलन आयोजित हुई तो ईरान ने बहिष्कार किया। पाकिस्तान ने पेशकश की कि वह ईरान को सुलह को तैयार करने के लिए अपने प्रभाव का उपयोग करेगा. इसीलिए गिनी के राष्ट्रपति अहमद सिको्ोरे के नेतृत्व में छह सदस्यीय इस्लामी उम्मा शांति समिति गठित हुई जिसमें जाम्बिया, तुर्की, पीएलओ, बांग्लादेश और पाकिस्तान के प्रमुख शामिल हुए। इस समिति ने आठ साल के दौरान तेहरान और बगदाद के कई चक्कर लगाए और बाकी मुस्लिम देशों ने दो भाइयों के बीच शांति को प्रेरणा शांति समिति की नेक इरादे प्रयासों को बार-बार सराहा। आखिरकार 1988 में संयुक्त राष्ट्र के प्रयासों से संघर्ष विराम हुई और पाकिस्तान ने चैन की सांस ली।

मगर दो साल बाद पाकिस्तान फिर मुश्किल में फंस गया जब अगस्त 1990 में इराक ने कुवैत पर कब्जा कर लिया। सऊदी अरब की बहुत इच्छा थी कि पूर्वी क्षेत्र में 1979  से स्थित पाकिस्तानी सेना को अमेरिकी नेतृत्व में बनने वाले सद्दाम दुश्मन गठबंधन का हिस्सा बनाया जाए। लेकिन पाकिस्तानी सेना के प्रमुख जनरल असलम बेग के मुंह से सद्दाम हुसैन की प्रशंसा शब्द गलत समय पर निकल गए। इसलिए खाड़ी देशों और पाकिस्तान के बीच झगड़ा पैदा हो गया। इस कूटनीतिक नुकसान के निवारण के लिए  नवाज शरीफ सरकार ने फरवरी 1991 में कुछ दस्ते प्रतीकात्मक सहयोग और एकता की खातिर सऊदी अरब भेजे ताकि अरब सहयोगियों का दिल अधिक मैला न हो।

सौभाग्य से 2003 में इराक पर अमेरिकी गठबंधन के हमले के दौरान पाकिस्तान अरब दबाव से सुरक्षित रहा क्योंकि पाकिस्तान का कहना था कि वह तो खुद आतंकवाद के खिलाफ वैश्विक लड़ाई में उलझा पड़ा है।

मगर पिछले साल मार्च में जब सऊदी अरब और उसके सहयोगियों ने यमन पर हमला किया तो पाकिस्तान पर इस लड़ाई में शामिल होने के लिए सीधे दबाव डाला गया। पाकिस्तान का नाम सऊदी अरब ने एकतरफा रूप में अपने सहयोगियों की सूची में शामिल कर दिया। लेकिन पाकिस्तानी प्रतिष्ठान ने बदले हुए क्षेत्रीय और सामरिक स्थिति में सीधे इनकार करके खाड़ी दोस्तों की निगाहों में बुरा बनने के बजाय अपनी बला नेशनल असेंबली के सिर पर डाल दी और नेशनल असेंबली ने यमन संकट में निष्पक्षता बरतने का फैसला किया। कुछ ऐसी ही रणनीति से पाकिस्तान ने अब तक सीरिया के संकट में भी काम किया है।

अलबत्ता नवंबर में जब सऊदी अरब ने अचानक एक चौंतीस सदस्यीय महागठबंधन में पाकिस्तान का नाम अपनी तरफ से जोड़ा तो पाकिस्तानी विदेश मंत्रालय ने पहले तो हैरत जताई लेकिन फिर हां कर दी ताकि यमन के मामले में जन्मी राजनयिक कड़वाहट किसी हद तक दूर हो सके।

अब एक प्रमुख सऊदी मौलवी शेख नम्र अलनमीर की मौत के बाद ईरान और सऊदी अरब के विवाद ने जो खतरनाक रुख अख्तियार किया है इसके बाद सऊदी अरब और ईरान एक बार फिर ‘इस्लामिक परमाणु दुर्ग ‘ पाकिस्तान की ओर देख रहे हैं। रिपोर्टों के अनुसार सऊदी विदेश मंत्री आदिल अलजबीर शुक्रवार को इस्लामाबाद पहुंच रहे हैं। इसके बाद ईरानी विदेश मंत्री जवाद ज़रीफ़ भी आना चाहेंगे।

पाकिस्तान ने हालांकि अरब और अजम विवाद में किसी पक्ष का आज तक खुल के साथ नहीं दिया लेकिन पाकिस्तान को अपनी इस्लामी व क्षेत्रीय मुरव्वत की यह कीमत चुकानी पड़ी कि अरब और अजम पिछले तीस पैंतीस साल से अपनी प्रॉक्सी लड़ाई पाकिस्तान में लड़ते आ रहे हैं । आज पाकिस्तान में उग्रवाद और सांप्रदायिकता का जो एसिड फैला पड़ा है उसमें पाकिस्तान दोनों पारंपरिक हमदर्द भी बराबर के भागीदार हैं।

अब फिर पाकिस्तान को अरब और अजम के तने रस्से पर चलना पड़ रहा है। लड़खड़ाने के मामले में खुद पाकिस्तान की आंतरिक सांप्रदायिक स्थिति खराब होने से राष्ट्रीय कार्य योजना का मुँह टेढ़ा हो सकता है।

इसलिए पाकिस्तान  के सामने दो त्वरित चुनौती रहेंगी। पहला यह कि सऊदी अरब और ईरान से संबंधों के संभावित गिरावट को कम से कम रखना और प्रॉक्सी वार का जो संभावित अगला दौर पाकिस्तान में शुरू होने वाला है इसे रोकने के लिए गंभीर और कठोर उपाय करना ताकि किराए पर सेवाएं देने के आदी धार्मिक समूहों को वित्तीय सहायता और प्रोत्साहन के आकर्षक के कारण एक बार फिर स्थानीय दानव बनने से हर कीमत पर रोका जा सके। अन्यथा ईरान और सऊदी अरब में भले सीधे टकराव हो न हो पाकिस्तान में ईरानियों से अधिक ईरानी और सऊदियों से ज्यादा सऊदी बनने वाले तत्व ज़रूर सामाजिक सांप्रदायिक आतिशबाजी रचाने की कोशिश करेंगे।