3 अप्रैल पुण्यतिथि पर विशेष

हिंदुस्तान के दिल्ली शहर में कई पीरों, फकीरों और मज़हबी आलमी की आमद हुई, जिन्होंने हिंदुस्तान के लोगों को खुदा की इबादत के साथ साथ नेकी और आपसी रवादारी बनाए रखने के शिक्षा दी।

यही वजह है कि दिल्ली में कई ऐसे ही रूहानी शख्सियतों की मज़ार और दरगाहें मौजूद हैं, जहाँ सैकड़ों अक़दमंद लोग हर रोज़ हाज़िरी देने आते हैं। दिल्ली में दूसरे मुजाहिद से ताल्लुक रखने वाली भी कई ऐसे हस्तियाँ मौजूद हैं, जिनके लिए लोगों के दिलों में सदियों से एहतराम और मोहब्बत बरकरार है और आगे भी रहेगा।

ऐसा ही एक मुकद्दद मुकाम है, हज़रत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह। यहाँ हाज़िरी देने के लिए रोज़ सैकड़ों की तादात में बाबा के मुरीद आते हैं, जिनमें से ज्यादातर दिल्ली के बाहर के होते हैं। बाबा की मुरीदों में ना सिर्फ हिंदुस्तान के बल्कि विदेशों में रहने वाले हजारों लोग भी शामिल होते हैं।

नेहरु अपनी किताब ‘ग्लिम्प्सेस ऑफ़ वर्ल्ड हिस्ट्री’ में लिखते हैं – ’इस्लाम एक नयी ताक़त थी, नया विचार था जिसने अरबवासियों में, जो एक तरह से सुप्त्वास्था में थे, एक नया विश्वास और जोश भर दिया.’ शायद यही कारण है कि इस्लाम बाक़ी मजहबों के मुकाबले दुनिया में सबसे तेज़ी से फैला. इस्लाम में से ही सूफीवाद की धारा फूटकर निकली जो वेदांत के रहस्यवाद से काफी मेल खाती थी. इसका भी आधार ‘रहस्य’ यानी ‘तसव्वुफ़’ था.

‘सूफ़ी’ लफ्ज़ की उत्पत्ति भी बड़ी रहस्यमयी है. अपनी किताब ‘कंटेम्परेरी वर्ल्ड ऑफ़ सूफीइज्म’ में सईद मनल शाह अलकादरी लिखते हैं कि सूफी लफ्ज़ अरबी और फ़ारसी के कुल आठ लफ़्ज़ों में से किसी एक से बना है:

1- ‘सफ़ा’ – मतलब दिल की सफ़ाई. 2- ‘सफ़ा अव्वल’ – पहली पंक्ति में बैठने वाले भक्त. 3- ‘बनू सफ़ा’ – अरब की एक घुमंतू जाति ‘बेडॉइन’. 4- ‘अहल-ए-सफ़ा’ – पैगंबर के समय जो लोग मस्जिदों में भक्ति कार्य करते थे. 5- ‘सुफ़ना’ – एक विशेष प्रकार की सब्ज़ी 6- ’सफ़ावत-अल-किफ़ा’ – गर्दन तक आती हुई जुल्फों की लट. 7- ‘सोफ़िया’ – यूनानी लफ्ज़ जिससे ‘फ़लसफ़ा’ बना और 8- ‘सुफ़’ – माने ऊन. बाद में सूफ़ी-अल-रुधाबरी ने कहा – ‘जो ऊन पहने और दिल साफ़ रखे वह सूफ़ी है.’

सूफ़ीवाद की बुनियाद इश्क़ है. इसलिए इस्लाम तार्किक मज़हब है और सूफीवाद रूहानी. सूफ़ीवाद के अनुयाइयों को सूफ़ी संत या औलिया कहा जाता है. औलिया शब्द का अर्थ हैं ‘अल्लाह वाला’ यानी ‘अल्लाह का दोस्त’. सूफ़ीवाद की कई धाराएं हुई हैं जिन्हें ‘सिलसिलाह’ भी कहते हैं. जैसे चिश्तिया, सुहावर्दी, नक्श्बंदिया, कादरिया. इनमें से हिंदुस्तान में चिश्तिया और सुहारवर्दी काफी मशहूर हुए.

हज़रत निजामुद्दीन औलिया चिश्तिया सिलसिलाह के सूफ़ी हुए जिन्हें ‘महबूब-ए-इलाही’ भी कहा गया. बदायूं में पैदा हुए और बाबा फरीद की सरपरस्ती में अजोधन (पाकिस्तान) रहे और बाद में दिल्ली चले आये. औलिया ने अपने 60 साल के जीवन में दिल्ली की रियासत को तीन सल्तनतों के हाथों में देखा – ग़ुलाम, खिलज़ी और तुग़लक वंश. औलिया कभी किसी के दरबार में नहीं गए पर उनका प्रभाव किसी सुल्तान से कम नहीं था.

निजामुद्दीन औलिया बड़े ही खुले दिल के विचारक और हर मज़हब को एक ही नज़र से देखने वाले थे. उनकी इस बात से उस दौर के ‘मुल्ला’ खासे नाराज़ थे. पर उनके ख़यालात लोगों तक पंहुच रहे थे, उनके दिलों में जगह बना रहे थे. दरअस्ल, सूफ़ीवाद का सिर्फ एक ही सिद्धांत है – इंसान चाहे किसी भी मज़हब, जाति या रंग का हो, सभी की सेवा करना. सूफ़ी एक बात मानते हैं – ‘अल खल्क-औ-अयालुल्लाह.’ माने सब खुदा के बंदे हैं और ख़ुदा से इश्क तभी है जब उसके अयल यानी बंदों से है.

निज़ामुद्दीन औलिया कहते थे – ‘इबादत से ज़्यादा सवाब(पुण्य) ज़रूरतमंदों की मदद से मिलता है’. इसे उन्होंने कुछ इस तरह से समझाया है; ‘ख़ुदा की इबादत के दो तरीके हैं – ‘लाज़िमी’ और ‘मुत्ताद्दी’. पहले में ख़ुदा का सजदा, हज और रोज़े रखना. इसका सवाब सिर्फ उसको है जो ये करता है. ‘मुताद्दी’ है दूसरों की मदद, लोगों से मोहब्बत, ख़ुलूस और ईमानदारी से काम करने वाला. मुताद्दी के सवाब कभी ख़त्म नहीं होते.

‘फ़वैद अल फुआद’ में उन्होंने बयान किया है कि पैगंबर इब्राहिम ने एक बार किसी काफ़िर के साथ खाना बांटने में परहेज़ किया तब अल्लाह की आवाज़ आई- ‘मुझे इसे ज़िंदगी देने में गुरेज़ नहीं था, तुम्हें खाना बांटने में क्यूं है.’

वे अक्सर बग़दाद के शेख़ जुनैद का बयान लोगों के बीच रखते थे, जिन्होंने कहा था – ‘मदीना की गलियों में मुझे ख़ुदा ग़रीबों के बीच ही मिला है.’

एक बार किसी ने उनसे पुछा कि ख़ुदा तक जाने का रास्ता कौन सा है. तो उन्होंने शेख अबू सैद अबुल-खैर की बात दोहरा दी – ‘ जितने रेशों से ये जिस्म बना है, ख़ुदा तक जाने के उतने रास्ते हैं. पर सबसे छोटा रास्ता वो है जो इंसान के दिलों को ख़ुशी देता है. मैंने अब तक यही किया है और मेरी सलाह है तुम भी ऐसा करो.’

एक बड़ा दिलचस्प किस्सा है जो उनके ख़यालातों की गवाही देता है; एक बार जब वो अपने खानकाह (निवास स्थान) की छत पर अमीर ख़ुसरो के साथ टहल रहे थे. उसी समय कुछ नागा साधुओं वहां से गाते-बजाते हुए यमुना नदी की तरफ जा रहे थे. उन्हें देखकर औलिया इतने अभिभूत हुए कि तुरंत ही एक शेर पढ़ दिया:

‘हर कौम रास्त राहे, दीन-औ क़िबला गाहे

(हर मज़हब का अपने-अपने मक्का जाने का रास्ता साफ़ है)

अमीर ख़ुसरो ने उस शेर को कुछ इस तरह पूरा किया:

मन क़िबला रास्त करदम बार सिम्त कजकुलाहे

(मैं तो अपना सारा ध्यान उस तिरछी टोपीवाले (निज़ामुद्दीन औलिया) में ही लगाता हूं.

अल बरानी ने लिखा है कि निज़ामुद्दीन औलिया का समाज पर इतना असर था कि उनके कहने से दिल्ली में अपराध कम हो गए थे. उन्होंने हमेशा माना कि क़यामत के दिन यह हिसाब ज़रूर होगा कि तुमने अपनी रोज़ी कैसे कमाई. अगरचे ग़लत रास्ते का इख्तियार किया है, तो ख़ुदा सज़ा ज़रूर देगा.

हज़रत निज़ामुद्दीन को अमीर ख़ुसरो से बेहद लगाव था और उन दोनों का मिलना भी एक कमाल का किस्सा है. यूं हुआ कि जब ख़ुसरो औलिया की खानकाह पर आये तो अंदर आने से पहले एक शेर लिखकर उन्होंने औलिया तक भिजवाया:

‘तो या आन शाहे के बुर एवान-ए- क़सरत \ कबूतर गर नशीनद बाज़ गरदद \ ग़रीब –ए-मुस्तमंदे-बुर दर आमद \ बेयायद अंदरुन या बाज़ गरदद.’

(हे! शाह तेरे घर की छत पर बैठते ही कबूतर भी बाज़ बन जाते हैं. मैं गरीब आया हूं. भीतर आने की इज़ाज़त है कि चला जाऊं?)

इस पर औलिया ने तुरंत लिखकर भेजा:

‘बेयायद अंदरुन मर्द-ए-हकीक़त \ के बा मा याक नफस हमराज़ गरदद \अगर अबलय बुवाद आन मर्द-ए-नादां \ अज़ान राहे के आमद बाज़ गरदद.’

(अंदर तभी आना जब हम एक दुसरे के हमराज बन जाएं. अगर तुम गंवार हो तो भीतर न आना.)

इसके बाद दोनों का मिलन इतिहास में मिसाल बन गया. उन्होंने ने एक बार कहा भी था कि ‘मैं कभी-कभी सबसे उकता जाता हूं, यहां तक कि ख़ुद से भी. पर इस तुर्क (अमीर ख़ुसरो) से कभी नहीं.’ ख़ुसरो को उन्होंने ‘तुर्कुल्लाह’ की पदवी से नवाज़ा था.

निज़ामुद्दीन औलिया गयाथपुर में बसने से पहले कुछ समय के लिए ख़ुसरो के नाना इमादअल-मुल्क रावत की हवेली में रहे और एक समय पर वे पटियाला में भी इसलिए बसना चाहते थे कि वहां ख़ुसरो की हवेली भी थी. यहीं से ख़ुसरो का काव्यात्मक जीवन शुरू हुआ. वे कुछ भी लिखते पहले औलिया से दुरुस्त करवाते. ख़ुसरो ने अपने तीन संकलन; ‘घुररत अल-कमाल’ , ‘वसत अल-हयात’ और ‘निहायत अल-कमाल’ औलिया की नज़र किये और इन सबमें उन्होंने ख़ुदा और पैगंबर के बाद औलिया की शान में कसीदे पढे हैं. ख़ुसरो ने अपनी क़िताब ‘लैला मजनू’ में उनकी शान में लिखा है – ‘…औलिया अपने खानकाह में किसी राजा से कम हसियत नहीं रखते. वे इस ज़मीं पर मोहब्बत का आस्मां हैं. एक ऐसा सुल्तान जिसके सर पर न ताज है, न कोई राज पर सुलतान भी जिसके पैरों की धूल अपने ज़बीं (माथे) पर लगाते हैं. ख़ुदा करे कि उन्हें जन्नत में सबसे ऊंची जगह मिले और ख़ुसरो उनका नौकर बना रहे.

एक बार औलिया ने अमीर ख़ुसरो के कलाम सुनकर उनसे कुछ मांगने को कहा तो ख़ुसरो ने अपने कलाम में शक्कर जैसी मिठास की चाह रखी. औलिया ने उन्हें कमरे में से शक्कर लाने को कहा और कुछ दाने ख़ुद (ख़ुसरो) पर डालने को और कुछ खाने को कहा. इसके बाद ऐसा माना जाता है कि ख़ुसरो की शायरी एक नयी मिठास के साथ दुनिया के सामने आई. भारतीय शास्त्रीय संगीत में ख़याल गायन ख़ुसरो की ही देन माना जाता है लेकिन ख़ुसरो इसे औलिया की देन मानते थे. यह भी इत्तेफाक है कि ख़ुसरो की मज़ार पर ‘तूती-ए-मिकल(मिश्री की डली)’ लिखा गया है.

ख़ुसरो के कितने ही कलाम हैं जिनमे औलिया का ज़िक्र होता है:

1.‘ख़ुसरो निजाम के बल बल जाये हों

मोहे सुहागन की नी रे मोसेयके.’

2.’आज रंग हैं मोरे ख्वाज़ा के घर आज रंग है.’

3.‘मोरा जोबना नवेलरा भयो है गुलाल

कैसे घर दीन्ही बकस मोरी लाल

निजामुद्दीन औलिया को कोई समझाए

ज्यों ज्यों मनाऊं वो तो रूसो ही जाए.’

तीन, अप्रैल सन 1325 को निजामुद्दीन औलिया का इंतकाल हो गया. उस वक़्त ख़ुसरो बंगाल में थे. वे बदहवास से दिल्ली पंहुचे और शेख़ की मज़ार से लिपटकर रोये और कहा – ’ मैं इस राजा के मरने का ग़म करूं या अब ख़ुद का दुनिया से जाने का ग़म मनाऊं क्यूंकि अब मैं भी जिंदा नहीं रह पाऊंगा.