तपते सहरा पर लहू से नक़्श होती प्यास की।

दास्तां है ये हुसैन असग़र अली अब्बास की।

उस जगह से कर रहा हूँ दर्द का क़िस्सा शुरू

ख़त्म होती हैं जहां सारी हदें एहसास की।

इक तरफ़ ज़ुल्मत के हामी ,इक तरफ़ इब्न ए अली

कोयलों के बीच में जैसे कनी अलमास की।

गूंजती थी दश्त में हर सू सदा ए या हुसैन

और लहर उठती थी खूँ में एक रंग ए ख़ास की।

बढ़ता जाता था फ़लक पर पाक रूहों का हुजूम

कटती जाती थीं तनाबें ख़ाक पर अनफ़ास की।

किस क़दर ग़म से भरा है ये शहादत का बयां

आंख भर आये न आख़िर क्यूं दिल ए हस्सास की।

ता अज़ल यकसां रहा है हक़ परस्तों का नसीब

कर्बला पर ख़त्म होती है कथा बनवास की।

—–मनीष शुक्ला—–