मुहम्मद नजीब क़ासमी

मुहर्रम इस्लामी साल का पहला महीना है, यानी मुहर्रम से हिजरी साल का आग़ाज़ और ज़िलहिज्जा पर हिजरी साल इखतेताम होता है, नीज़ मुहर्रम उन चार महीनों में से एक है जिन्हें अल्लाह तआला ने हुरमत वाले महीने क़रार दिए हैं। इस माह को हुज़ूर अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने अल्लाह तआला का महीना क़रार दिया है। यूं तो सारे ही दिन और महीने अल्लाह तआला के हैं लेकिन अल्लाह तआला की तरफ निसबत करने से इसकी फज़ीलत ज़ाहिर होती है। मुहर्रम के महीने की एक खास फज़ीलत यह भी है कि इस महीने का रोज़ा रमज़ानुल मुबारक के बाद सबसे अफज़ल है। हज़रत अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि हुज़ूर अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया रमज़ान के बाद सबसे अफज़ल रोज़ा अल्लाह तआला के महीना मुहर्रम का रोज़ा है। (तिर्मिज़ी जिल्द 1 पेज 157) हुज़ूर अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने इरशाद फरमाया माहे रमज़ान के बाद अफज़ल तरीन रोज़े अल्लाह तआला के महीने माहे मुहर्रम के रोज़े हैं। (सही मुस्लिम)

हज़रत अली रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि मैं हुज़ूर अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के पास बैठा हुआ था, एक साहब ने आकर पूछा या रसूलुल्लाह! रमज़ान के महीने के बाद किस महीने के रोज़े रखने का आप मुझे हुकुम देते हैं तो हुज़ूर अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया कि अगर रमज़ान के महीने के बाद तुमको रोज़ा रखना हो तो मुहर्रम का रोज़ा रखो, इसलिए कि यह अल्लाह का महीना है। इसमें एक दिन है जिसमें अल्लाह तआला ने एक क़ौम की तौबा क़बूल की और दूसरे लोगों की तौबा भी क़बूल फरमाएंगे। (तिर्मिज़ी जिल्द 1 पेज 157) जिस क़ौम की तौबा क़बूल हुई वह क़ौम बनी इसराइल है जैसा कि इसकी वज़ाहत हदीस में है कि आशूरा के दिन अल्लाह तआला ने हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम और बनी इसराइल को फिरऔन और उसके लश्कर से निजात दी थी।

आशूरा का रोज़ा

मुहर्रम की दसवीं तारीख को आशूरा कहा जाता है जिसके मानी हैं दसवां दिन। यह दिन अल्लाह तआला की खुसूसी रहमत और बरकत का हामिल है। इस दिन हुज़ूर अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने रोज़ा रखा था और मुसलमानों को रोज़ा रखने का हुकूम भी दिया था। पहले तो यह रोज़ा वाजिब था फिर जब रमज़ानुल मुबारक के रोज़े फर्ज़ हुए तो मुसलमानों को इख्तियार दिया गया कि चाहें यह रोज़ा रखें या न रखें अलबत्ता इसकी फज़ीलत बयान कर दी गई कि जो रोज़ा रखेगा उसके गुज़रे हुए साल के छोटे गुनाह माफ कर दिए जाएंगे। पहले यह रोज़ा एक दिन रखा जाता था लेकिन यहूदियों की मुखालफत के लिए आखिर में हुज़ूर अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया अगर मैं आइन्दा साल तक ज़िन्दा रहा तो इंशाअल्लाह नवीं मुहर्रम को भी रोज़ा रखूंगा, लेकिन इस ख्वाहिश पर अमल करने से पहले ही आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का विसाल हो गया।

आशूरा के रोज़े से मुतअल्लिक़ अहादीस

हज़रत आइशा रज़ियल्लाहु अन्हा फरमाती हैं कि रमज़ान के रोज़े फर्ज़ होने से पहले लोग आशूरा का रोज़ा रखते थे और आशूरा के दिन बैतुल्लाह को गिलाफ पहनाया जाता था। जब रमज़ान फर्ज़ हुआ तो हुज़ूर अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया कि जो चाहे रोज़ा रखे और जो चाहे न रखे। (सही बुखारी पेज 127) दूसरी रिवायत में है कि हज़रत आइशा रज़ियल्लाहु अन्हा फरमाती हैं कि कुरैश जाहिलियत में आशूरा के दिन रोज़ा रखते थे और हुज़ूर अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम भी उस वक़्त यह रोज़ा रखते थे। जब मदीना तशरीफ लाए तो यहां भी रोज़ा रखा और इस रोज़े का भी हुकुम दिया। जब रमज़ान फर्ज़ हुआ तो आशूरा (के रोज़े का हुकुम) छोड़ दिया गया, जो चाहे रोज़ा रखे और जो चाहे न रखे। (सही बुखारी पेज 154, 168)

हज़रत रूबै बिन्त मुअव्विज़ रज़ियल्लाहु अन्हा फरमाती है कि हुज़ूर अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने आशूरा की सुबह अंसार के गांव में एलान करवाया कि जिसने सुबह को खा पी लिया हो वह बक़िया दिन पूरा करे (यानी रुका रहे) और जिसने अभी तक खाया पिया नहीं है वह रोज़ा रखे। फरमाती हैं कि वह भी यह रोज़ा रखती थीं और अपने बच्चों को भी रोज़ा रखवाती थीं और उनके लिए ऊन का खिलौना बनाती थीं। जब कोई बच्चा खाने के लिए रोता तो यह खिलौना उसको दे देतीं यहां तक कि इफतार का वक़्त होता। (सही बुखारी जिल्द 1 पेज 263, सही मुस्लिम जिल्द 1 पेज 360)

हज़रत सलमा बिन अकवा रज़ियल्लाहु अन्हु फरमाते हैं कि हुज़ूर अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने आशूरा के दिन एक आदमी को भेजा जो लोगों में यह एलान कर रहा था कि जिसने खा लिया वह पूरा करे या फरमाया बक़िया दिन खाने पीने से रुका रहे और जिसने नहीं खाया वह न खाए (यानी रोज़ा रखे)। (बुखारी जिल्द 1 पेज 257)

हज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हु फरमाते हैं हुज़ूर अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम मदीना तशरीफ लाए तो यहूदियों को देखा कि आशूरा के दिन रोज़ा रखते हैं। आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने पूछा यह क्या है? यहूदियों ने कहा यह अच्छा दिन है, इस दिन अल्लाह तआला ने बनी इसराइल को उनके दुशमन से निजात दी। हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम और बनी इसराइल को गल्बा और कामयाबी अता फरमाई, हम इस दिन की ताज़ीम के लिए रोज़ा रखते हैं। हुज़ूर अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया कि हम तुमसे ज़्यादा मूसा अलैहिस्सलाम के करीब हैं, फिर आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने भी रोज़ा रखा और लोगों को भी रोज़ा रखने का हुकुम दिया। (बुखारी जिल्द 1 पेज 268)

हज़रत अबू मूसा अशअरी रज़ियल्लाहु अन्हु फरमाते हैं कि हुज़ूर अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम मदीना में दाखिल हुए तो देखा कि कुछ यहूदी आशूरा की ताज़ीम कर रहे हैं और इस दिन रोज़ा रखते हैं, इसको ईद बना रहे हैं। आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया हम उस रोज़ा के ज़्यादा हक़दार हैं। फिर आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने मुसलमानों को रोज़ा रखने का हुकुम दिया। (बुखारी जिल्द 1 पेज 268, 562)

हज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हु फरमाते हैं कि मैंने हुज़ूर अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को किसी दिन के रोज़ा का एहतेमाम और कसद करते हुए नहीं देखा सिवाए आशूरा का रोज़ा और रमज़ान के महीने का। (बुखारी जिल्द 1 पेज 268) यानी उन रोजों का आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम बहुत ज़्यादा एहतेमाम फरमाते थे। हज़रत मआविया रज़ियल्लाहु अन्हु हज के लिए तशरीफ लाए तो हुज़ूर अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के मिम्बर पर आशूरा के दिन (खड़े हो कर) फरमाया ऐ अहले मदीना कहां हैं तुम्हारे उलमा, मैंने हुज़ूर अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को फरमाते हुए सुना था कि यह आशूरा का दिन है और अल्लाह तआला ने तुम पर इसका रोज़ा फर्ज़ नहीं किया है, मैं रोज़े से हूं जो चाहे रोज़ा रखे और जो चाहे रोज़ा न रखे। (सही बुखारी जिल्द 1 पेज 262)

आशूरा के रोज़े का सवाब
रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने इरशाद फरमाया मुझे अल्लाह तआला की रहमत से उम्मीद है कि जो शख्स आशूरा के दिन रोज़ा रखेगा तो उसके पिछले एक साल के गुनाह का कफ्फारा हो जाएगा। (सही मुस्लिम) हज़रत अबू क़तादा रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि हुज़ूर अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने इरशाद फरमाया कि आशूरा के रोज़े के बारे में मुझे अल्लाह तआला से उम्मीद है कि साले गुज़श्ता के गुनाह माफ फरमा देंगे। (तिर्मिज़ी जिल्द 1 पेज 151) इन अहादीस में गुनाह से छोटे गुनाह मुराद हैं, बड़े गुनाह के लिए तौबा की ज़रूरत होती है।

अशुरा के रोज़े रखने का तरीक़ा

हज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हु फरमाते हैं कि हुज़ूर अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने आशूरा का रोज़ा रखा और लोगों को इसका हुकुम दिया। लोगों ने बताया कि यहूद व नसारा इस दिन की ताज़ीम करते हैं तो आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया कि अगर आइन्दा साल ज़िन्दा रहा तो इंशाअल्लाह नवीं को (भी) रोज़ा रखूंगा, लेकिन आईन्दा साल आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का विसाल हो गया। (मुस्लिम जिल्द 1 पेज 359)

हज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि हुज़ूर अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने इरशाद फरमाया कि आशूरा को रोज़ा रखो और इसमें यहूद की मुखालफत करो, एक दिन पहले रोज़ा रखो या एक दिन बाद।(मुसनद अहमद जिल्द 1 पेज 241) यह हदीस बाज़ नुसखों में “औ” की जगह “वाव” की के साथ आई है, अगर “वाव” (और) के साथ रिवायत साबित मान ली जाए तो फिर तीन रोज़ा रखना साबित होगा। इस तरह आशूरा के रोज़े रखने की 4 शकलें बनती हैं। 9, 10 और 11 तीनों दिन रोज़े रख लें। 9 और 10 दो दिन रोज़े रख लें। 10 और 11 दो दिन रोज़े रख लें। अगर किसी वजह से 2 रोज़े नहीं रख सकते तो सिर्फ एक रोज़ा आशूरा के दिन रख लें।

खुलासए कलाम

हुज़ूर अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की हयाते तय्यिबा में जब भी आशूरा का दिन आता आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम रोज़ा रखते लेकिन वफात से पहले जो आशूरा का दिन आया तो आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने आशूरा का रोज़ा रखा और साथ ही यह भी फरमाया कि 10 मुहर्रम को हम भी रोज़ा रखते हैं और यहूद भी रोज़ा रखते हैं जिसकी वजह से उनके साथ हल्की सी मुशाबहत पैदा हो जाती है, इसलिए अगर मैं आईन्दा साल ज़िन्दा रहा तो सिर्फ आशूरा का रोज़ा नहीं रखूंगा बल्कि उसके साथ एक और रोज़ा 9 या 11 मुहर्रम को रखूंगा ताकि यहूदियों के साथ मुशाबहत खत्म हो जाए। लेकिन अगले साल आशूरा का दिन आने से पहले ही हुज़ूर अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का विसाल हो गया और आपको इस पर अमल करने को मौक़ा नहीं मिला। हुज़ूर अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के इस इरशाद की रौशनी में सहाबए किराम ने आशूरा के रोज़े के साथ 9 या 11 मुहर्रम का एक रोज़ा मिला कर रखने का एहतेमाम फरमाया और इसी को मुस्तहब क़रार दिया और सिर्फ आशूरा का रोज़ा रखना खिलाफे औला क़रार दिया, यानी अगर कोई शख्स सिर्फ आशूरा का रोज़ा रख ले तो वह गुनाहगार नहीं होगा बल्कि उसको आशूरा का सवाब मिलेगा लेकिन चूंकि आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की ख्वाहिश 2 रोज़े रखने की थी, इसलिए इस ख्वाहिश के तकमील में बेहतर यही है कि एक रोज़ा मिला कर दो रोज़े रखे जाएं।

(वज़ाहत) बाज़ हज़रात यह समझते हैं कि आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की वफात के तक़रीबन 50 साल बाद 61 हिजरी में नवासाए रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम हज़रत हुसैन रज़ियल्लाहु अन्हु की शहादत की वजह से उस दिन की अहमियत हुई है हालांकि उसकी दिन की फज़ीलत व अहमियत नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के अक़वाल व अफआल की रौशनी में पहले ही से साबित है जैसा कि नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के अक़वाल व अफआल की रौशनी में ज़िक्र किया गया, हां हज़रत हुसैन रज़ियल्लाहु अन्हु की अज़ीम शहादत के लिए अल्लाह तआला ने इस बाबरकत दिन का इंतिखाब किया जिससे हज़रत हुसैन रज़ियल्लाहु अन्हु की क़ुर्बानी की मज़ीद अहमियत बढ़ जाती है।