एस. आर. दारापुरी आई.पी.एस. (से. नि. एवं संयोजक जन मंच)

2007 के विधान सभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में, खास करके दलित वर्ग ने मायावती की बहुजन समाज पार्टी को भारी बहुमत से इस लिए जिताया था कि वह इस बार स्थाई सरकार बना कर उ.प्र. के पिछड़ेपन के मक्कड़ जाल से निकालने के लिए विकास का एजेंडा लागू करेंगी. इस से पहले के तीन बार के मुख्यमंत्री काल के दौरान कोई भी विकास न कर सकने के पीछे मायावती का यह बहाना था कि उस समय वह सरकार चलाने के लिए दूसरी पार्टियों पर निर्भर थी और स्वतंत्र तौर पर काम करने के लिए उसे बहुमत की सरकार चाहिए थी. इसीलिए इस चुनाव में उ.प्र. की जनता ने उसे भारी बहुमत से जिताकर कर काम करने का मौका दिया था. परन्तु इस बार भी मायावती जनता की इस अपेक्षा पर पूरी नहीं उतरीं. न तो विकास का कोई एजेंडा ही बना और न ही मायावाती द्वारा मूर्तियों और समारकों पर व्यय की जाने वाली फ़िज़ूल खर्ची में ही कोई कमी आई.

देखा जाये तो उ.प्र. आज भी विकास की दौड़ में देश के अति पिछड़े राज्यों में से एक है. आबादी की दृष्टि से 2001 की जनगणना के अनुसार उ.प्र. प्रदेश, देश में सबसे अधिक आबादी 16.61 करोड़ वाला प्रदेश है जो कि देश की कुल आबादी का 16.16 % है. विकास के मानकों के अनुसार उ.प्र. में साक्षरता दर 56.3 % (पुरुष 68.8 तथा महिलाएं 42.2 %) है जबकि राष्ट्रीय स्तर पर यह दर 64.84% (पुरुष 75.26 तथा महिलाएं 53.67%) है. उ.प्र. में महिला और पुरुष का अनुपात 898 है जब कि राष्ट्रीय स्तर प़र यह अनुपात 933 है. उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2005-06 के दौरान उ.प्र. में प्रति व्यक्ति आय 1,336 रुपए थी जो कि बिहार ( 787 रूपए ) को छोड़ कर पूरे देश (25716 रुपए) की अपेक्षा सब से कम थी. इसी अवधि में प्रति व्यक्ति विद्युत् उत्पादन 113 कि.वाट तथा उपभोग 167 कि.वाट. था जबकि पूरे देश में यह 563 तथा 372 था. इस वर्ष उ.प्र. में विद्युतीकरण ग्रामों का प्रतिशत 68.30 प्रतिशत था जबकि राष्ट्रीय स्तर पर यह 77.4% था. सार्वजानिक स्वास्थ्य की दृष्टि से उ.प्र. में जन्म दर 30.4 %, मृत्यु दर 8.7%तथा शिशु मृत्यु दर 73 प्रति हज़ार थी जबकि राष्ट्रीय स्तर पर यह दर क्रमश: 23.8%, 7.6 % तथा 58 प्रति हज़ार थी. रोज़गार की दृष्टि से उ.प्र. में कुल जनसँख्या के केवल 23.78% व्यक्ति मुख्य कर्मकार थे और कुल कर्मकारों में से 66 % व्यक्ति कृषि में लगे हुए थे. वर्ष 2005 में उ.प्र. में 25.5 % व्यक्ति गरीबी की रेखा से नीचे थे जबकि राष्ट्रीय स्तर पर यह दर केवल 21.8% थी.

उपरोक्त संक्षिप्त विवरण से स्पष्ट है की भारत के अन्य प्रदेशों की अपेक्षा उ.प्र. विकास की दृष्टि से एक अति पिछड़ा प्रदेश है. ऐसी परिस्थिति में मायावती ही नहीं बल्कि किसी भी सरकार से यह अपेक्षा की जाती है कि वह विकास का एजेंडा बनाकर प्रदेश के सभी संसाधनों का इस्तेमाल उ.प्र. को पिछड़ेपन से बाहर निकलने के लिए करे, परन्तु पिछले कई वर्षों से ऐसा नहीं हुआ है.
1993-94 और वर्ष 1999-2001 के दौरान प्रतिव्यक्ति खर्च में कमी आई थी. इस समय भी उ.प्र. में प्रति व्यक्ति आय राष्ट्रीय प्रति व्यक्ति आय रुपए 46,500 से लगभग आधी है. कम आय का असर लोगों के जीवन स्तर पर पड़ता है. इस दशक में बसपा ने भाजपा से मिल कर दो बार सरकार बनाई परन्तु दशम पंचम वर्षीय योजना के मसौदे के अनुसार दलितों के जीवन स्तर में कोई सुधार नहीं हुआ. बसपा सरकार ने न तो दलितों और न ही प्रदेश के विकास का कोई एजेंडा बनाया. इसी प्रकार वर्ष 2003 और 2007 में भी सत्तासीन होने पर भी विकास का कोई एजेंडा नहीं बनाया बल्कि मायावती मूर्तियों और समार्कों के प्रतीकों की राजनीति ही करती रहीं

यह सर्वविदित है कि मायावाती ने कभी विकास को अपना मुद्दा नहीं बनाया. बसपा ने चुनाव में एक बार को छोड़ क़र कभी भी घोषणा पत्र जारी नहीं किया. ऐसा जान बूझ कर किया गया क्योंकि घोषणा पत्र जारी करने से बाद में उसे लागू करने की वाध्यता हो जाती है और लागू न करने पर जनता की नाराजगी झेलनी पड़ती है. इसी प्रकार जब कांशी राम ने बाबा साहेब का मिशन पूरा कारने का नारा दिया था तो उस मिशन को लिखित रूप में कभी परिभाषित नहीं किया. पहले सत्ता और बाद में कोई काम के वायदे से दलितों को समर्थन करने के लिए कहा गया. शुरू में दलितों को सवर्णों के खिलाफ गैर राजनीतिक मुद्दों पर भड़काकर लामबंद किया गया परन्तु बाद में उनसे ही गैर सैद्धांतिक और अवसरवादी समझौते कर लिए गए. अम्बेडकरवाद के सभी सिद्धांतों को तिलांजलि दे क़र सत्ता प्राप्त करने हेतु अवसरवाद को महिमामंडित किया गया. दलित मुद्दों को न उठकर उनका जाति और सवर्ण विरोध के नाम पर भावनात्मक शोषण किया गया और सत्ता प्राप्त कर व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा पूरी की गई. इस मुद्दाविहीन, विकासविहीन , भ्रष्ट और अवसरवादी राजनीति का परिणाम यह हुआ कि आज न केवल दलित बल्कि पूरा प्रदेश गरीबी, बेरोज़गारी, पिछड़ापन एवं विकासहीनता के गड्डे में गिरा हुआ है.

अब यह विचारणीय है कि इस दौरान सरकार के बजट का खर्च किन मदों पर किया गया. जो पैसा कल्याणकारी योजनाओं पर खर्च भी हुआ वह व्यापक भ्रष्टाचार के कारण गरीबों तक नहीं पहुंचा. इसका सब से बड़ा कारण मायावती का व्यक्तिगत भ्रष्टाचार है जिस के लिए उन्हें निकट भविष्य में जेल भी जाना पड़ सकता है. उसके विरुद्ध ताज कोरिडोर का मामला हाई कोर्ट में और 30 करोड़ की अवैध संपत्ति में आरोप पत्तर दाखिल होने का मामला सुप्रीम कोर्ट में है जिस में अगले साल की प्रथम फरबरी की तारीख निश्चित है.मायावती के कई मंत्री भी भ्रष्टाचार में पकडे गए हैं और कितनों के विरुद्ध लोकायुक्त द्वारा जाँच की जा रही है. मायावती ने बजट का बड़ा हिस्सा लखनऊ और गाजिआबाद में मूर्तियाँ लगवाने, समारक बनवाने और शहर के सुन्दरीकरण पर खर्च किया है. उन्होंने डॉ. आंबेडकर और कुछ अन्य दलित महापुरुषों के साथ साथ अपनी और कांशी राम की मूर्तियाँ भी लगवाईं हैं जो कि किसी जीवित व्यक्ति द्वारा अपनी मूर्तियाँ लगवाने की पहली मिसाल है. उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार मायावती ने अब तक मुर्तिओं, पार्कों और समारकों पर लगभग 6000 करोड़ रुपए खर्च किये हैं. ये मूर्तियाँ और समारक इतने भव्य हैं कि शायद राजे महाराजे भी इन्हें न बनवा पाते. एक जर्मन विद्वान् के अनुसार मायावती ने अपमा रोम बनवाया है. एक अन्य विद्वान् के अनुसार यह जनता के पैसे का अपराधिक दुरूपयोग है.

वर्ष 2001 की जनगणना के अनुसार उ.प्र. में दलितों की आबादी 3.51 करोड़ है जो कि उ.प्र. की कुल आबादी का 21.1 प्रतिशत है. सामान्यतया यह अपेक्षा की जाती है कि जिस प्रदेश में एक दलित मुख्य मंत्री चौथी बार गद्दी पर आसीन हुआ हो वहां पर दलितों का बहुत विकास हुआ होगा.परन्तु ज़मीनी सच्चाई इस के बिलकुल विपरीत है. वर्तमान में दलित पूरे प्रदेश की तरह विकास की दृष्टि से अति पिछड़े हुए हैं.विकास के मापदंडों पर देखने से यह पाया जाता है कि उ.प्र. के दलित उड़ीसा, और बिहार के दलितों को छोड़ कर देश के सभी राज्यों के दलितों से पिछड़े हुए हैं. 2001की जनगणना के अनुसार उ.प्र. में दलितों का स्त्री-पुरुष अनुपात 900 है जबकि राष्ट्रीय स्तर प़र दलितों का यह अनुपात 936 है. इसी तरह उ.प्र. के दलितों का साक्षरता दर 46.3% है जबकि राष्ट्रीय स्तर पर यह 54.7 % है.पुरुषों और महिलायों का शिक्षा दर क्रमश: 60.3तथा 30.5% है जबकि राष्ट्रीय स्तर पर दलितों का यह अनुपात क्रमश: 66.6 तथा 41.9% है. इसी जनगणना के अनुसार उ.प्र. में 5-16 वर्ष आयु के 1.33 कारोड़ बच्चों में से केवल 58.3 लाख (56.4%) बच्चे ही स्कूल जा रहे थे.

जनगणना के अनुसार उ.प्र. के कुल दलितों का मात्र 42.5% ही कृषि मजदूरों का है जबकि पूरे भारत में दलितों की यह दर 45.1 % है. अन्य मजदूरों की श्रेणी में यह औसत 22.2 % है जबकि राष्ट्रीय स्तर प़र यह औसत 30.5 % है. उ.प्र. में दलितों का लगभग 60% हिस्सा गरीबी क़ी रेखा से नीचे है. उ.प्र. में 87.7 प्रतिशत दलित कृषि मजदूर हैं जबकि सिंचाई के साधनों के अभाव में यहाँ कृषि अति पिछड़ी हुई है. वर्ष 1991-2001 के दशक में 12% दलित काश्तकार की श्रेणी से गिर क़र भूमिहीन की श्रेणी में आ गए हैं. ग्रामीण क्षेत्र में भूमि के स्वामित्व का बहुत महत्व है परन्तु उ.प्र. में भूमिसुधारों को सही ढंग से लागू नहीं किया गया. आज भी लाखों हेक्टेयर ज़मीन भूमि विवादों में फंसी हुई है जिन्हें सरकार द्वारा समाप्त कराके भूमिहीनों में आवंटित किया जा सकता था परन्तु इस दिशा कोई भी प्रभावी कार्रवाही नहीं की गई. आज भी जो भूमि दलितों और अन्य भूमिहीनों को आवंटित की गई थी वह भी पट्टे धारकों के कब्जे में नहीं है . मायावती ने सर्वजन के सवर्णों को खुश रखने के लिए इस दिशा में कब्जेदारों को हटाने की कोई भी कार्रवाही नहीं की.

उ.प्र. में सामंती व्यवस्था के कारण जातिभेद और छुआछुत के प्रचलन के फलस्वरूप दलितों पर उच्च जातिओं द्वारा अत्याचार किये जाते हैं जो कि पूरे भारत में सबसे अधिक हैं. एक दलित मुख्यमंत्री होने के कारण इन अपराधों में कमी होने और प्रभावी कार्रवाही किये जाने कि अपेक्षा की जाती है, परन्तु ज़मीनी सच्चाई इस के बिलकुल उल्ट है. मायावती ने अपने पूर्व कार्यकाल में दलित उत्पीड़न के आंकड़े कम रखने के उद्देश्य से वर्ष 2001 में दलित उत्पीड़न को रोकने और उन पर प्रभावी कार्रवाही करने के उद्द्देश्य से बनाए गए अनुसूचित जाति/जन जाति अत्याचार निवारण अधिनियम -1989 को लिखित आदेश दे कर निष्प्रभावी कर दिया था जिसे बाद में कड़ा विरोध होने तथा मामला कोर्ट में पहुँच जाने पर 2003 में वापस लेना पड़ा था. परन्तु अपरोक्ष रूप से यह आदेश आज भी लागू है. परिणाम स्वरूप दलित उत्पीड़न की घटनाएँ तो बराबर हो रही हैं परन्तु उनकी रिपोर्ट थाने पर नहीं लिखी जाती है. इस के अतिरिक्त अन्य संस्थानों जैसे प्राइमरी स्कूलों में मध्यान्ह भोजन तथा हस्पतालों में छुआछूत का व्यवहार खुले आम हो रहा है परन्तु उस पर कोई ठोस कार्रवाही नहीं की जाती. उत्पादन के साधनों के अभाव तथा बेरोज़गारी के कारण उत्तर प्रदेश के दलित गाँव छोड़ कर बाहर जा रहे हैं.

अब यदि मूर्तिकरण के पीछे मायावती द्वारा दलित महापुरुषों को सम्मान देने के तर्क को देखा जाये तो यह काफी हद तक उनकी विचारधारा के विपरीत है. यदि डॉ. आंबेडकर को ही लें तो उन्होंने स्वयं कहा था " मैं मूर्ती पूजक नहीं, मैं मूर्ती भंजक हूँ. ' वे राजनीति में भक्ति के विरुद्ध थे. वे व्यक्ति पूजा और किसी व्यक्ति को देवता बनाने के खिलाफ थे. परन्तु आज मायावती स्वयं को दलितों की देवी कह रही है.

28 मार्च, 1916 को डॉ. आंबेडकर ने फिरोजशाह मेहता की मूर्ती लगाने की आलोचना की थी तथा गोपाल कृषण गोखले की समृति में उनके सर्वन्ट्स ऑफ़ इंडिया संस्था की शाखाएँ पूरे भारत में खोलने की प्रशंसा की थी. उन्होंने इस सम्बन्ध में बम्बई क्रोनिकल में छपे अपने पत्र में कहा था कि मेहता तो बम्बई म्युनिस्पल कार्यालय के सामने बुत्त के रूप में खड़े हो जायेंगे. उन्होंने उनकी मूर्ती लगाने पर दुःख व्यक्त करते हुए लिखा था की क्या उनका समारक ऐसा नहीं बन सकता जो आगे आने वाली पीढ़ियों के काम आ सके. उन्होंने सुझाव दिया था कि मेहता का स्मारक एक पुस्कालय के रूप में बनाया जाये. डॉ आंबेडकर ने अमेरिका के सबसे बड़े विश्व विद्यालय के पुस्तकालय से सबक लेते हुए चिंता व्यक्त की थी कि हम लोगों ने समाज और व्यक्ति क़ी प्रगति में पुस्तकालयों के योगदान को नहीं समझा है. बाद में इन्हीं सिद्धांतों पर चलते हुए उन्होंने दलितों के विकास में शिक्षा के महत्त्व को समझाते हुए 1944 में पीपुल्स एजुकेशन सोसाइटी की स्थापना की. वर्ष 1944 में सिद्धार्थ कालेज और वर्ष 1950 में मिलिंद महाविद्यालय की स्थापना की. इसके लिए उन्होंने बम्बई और अति पिछड़े इलाके मराठवाडा को चुना. उन्होंने अपने शिक्षा संस्थानों के नाम की प्रेरणा तक्षिला, नालंदा, विक्रिमशिला, सोमापुरा और ओदंतपुरी बौद्ध विद्यालयों से ली थी. काश! मायावती ने डॉ. अम्बेडकर के जीवन से कोई प्रेरणा ले कर विश्व विद्यालय, महा विद्यालय और पुस्तकालयों की स्थापना की होती जिस से न केवल दलित बल्कि समाज के सभी वर्गों के बच्चे सदियों तक लाभान्वित होते.

लोगों का कहना है कि महापुरुषों की मूर्तियाँ लोगों के लिए प्रेरणा का श्रोत होती हैं, परन्तु यह बात केवल कुछ हद तक ही सही है क्योंकि मूर्तियों से मिलने वाली प्रेरणा की एक सीमा होती है और मूर्तियाँ लगाने की भी. महापुरुषों के जीवन से स्थाई प्रेरणा उनके जीवन के आदर्शों और उनकी विचारधारा के प्रचार प्रसार और उस पर चलने से मिलती है. परन्तु अफ़सोस है की मायावती ने इस दिशा में कुछ भी नहीं किया. यदि इन महापुरुषों की मूर्तियों पर व्यय की गई धनराशि उनके नाम पर शैक्षिक संस्थानों की स्थापना पर लगाई होती तो समाज में एक नई चेतना का विकास हुआ होता और उसमें एक गुणात्मक परिवर्तन आता.
उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है की दलितों का विकास मूर्तियाँ लगाने से नहीं बलिक उनके विकास हेतु योजनाएं बनाने और उन्हें ईमानदारी से लागू कारने से होगा. महापुरुषों के नाम पर असंख्य मूर्तियाँ लगा कर जनता के धन का दुरूपयोग करने की बजाए उनके नाम पर शैक्षिक संस्थाएं, अस्पताल एवं अन्य जनउपयोगी संस्थाओं की स्थापना करना न केवल समाज के लिए लाभप्रद होगा बल्कि यह उनके प्रति एक सच्ची श्रद्धांजली और सम्मान का प्रतीक भी होगा.

(नोट: यद्यपि यह लेख 2011 में लिखा गया था परन्तु आज मूर्तियों के सम्बन्ध में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गये निर्णय के आलोक में यह और भी प्रासंगिक हो गया है.)