रविश अहमद

पिछले कुछ दिनों में सुप्रीम कोर्ट ने धारा 377 और 497 को लेकर व्यक्तिगत आज़ादी का फैसला सुनाया जिससे दोनों धाराएं कुछ अपवादों को छोड़ निष्क्रिय हो गई है। यह कोर्ट का फैसला नहीं बल्कि भारतीय समाज की विफलता है। कोर्ट के अनुसार चाहे समलैंगिता हो अथवा व्यभिचार इसे व्यक्तिगत आज़ादी करार दिया गया है कानूनी तौर पर सही लेकिन भारतीय समाज में यह एक सामाजिक अपराध है फिर वह चाहे महिला हो या पुरुष। कुछ महिलाओं का तर्क हो सकता है कि पुरुषों को इसकी छूट है जबकि वास्तविकता यही है कि ऐसे पुरुषों को भारतीय समाज हिकारत की दृष्टि से ही देखता है यह बात और है कि समाज केवल निंदा तक सीमित रहता है।

जब धर्म के अनुरूप स्वीकार्य कर्मो को इंसान अपनी मनमर्ज़ी के मुताबिक अपने फायदे के लिए धर्म की आड़ लेकर इस्तेमाल करने लगता है तब समाज में विकृतियां पैदा होती है साथ ही साथ ऐसे लोग धर्म पर भी उंगलियां उठवाते हैं। यदि व्यभिचार को रोकने के लिए धर्मो का उदाहरण लिया जाए तो हिन्दू धर्म के अनुसार भगवान श्री विष्णु के अवतार श्री कृष्ण ने जब 16000 कन्याओं को गुलामी से मुक्त कराया तो उन कन्याओं को उनके घरवालों ने कलंकित कहकर अपनाने से इनकार कर दिया तब श्री कृष्ण ने कहा कि ब्लात अपहरण में बालिकाओं का क्या दोष? इसलिए कि समाज में ऐसी आश्रय विहीन लड़कियों के लिए एक संदेश जाए तथा फैली नफरत की कुरीति सहित गलत रास्ते पर चलने पर पूर्णविराम लगे श्री कृष्ण ने स्वयं उन सभी कन्याओं से विधिवत विवाह किया। ठीक इसी प्रकार इस्लाम धर्म की मान्यता के अनुसार विधवा, गुलामी से मुक्त कराई गई और बेसहारा महिलाओं से निकाह करके पैगम्बर हजरत मुहम्मद साहब ने पैग़ाम दिया कि बेसहारा महिलाओं को सहारा दिया जाए ताकि महिलाओं का शोषण ना हो और बुराई के रास्ते से बच सकें। पैगम्बर मुहम्मद साहब ने दूसरी शादी से पहले अपनी पत्नी की सहमति की शर्त भी लगाई ताकि उसके अधिकारों का हनन होने कि आशंका ना रहे तथा कोई व्यक्ति चुपचाप धर्म की आड़ लेकर व्यभिचार में संलिप्त ना होने पाए। अब बात करें धर्म का दिखावा करके दूसरे विवाह अथवा विवाहोत्तर संबंध बनाने वाले लोगों का जो अपने स्तर से अपने कृत्य को सही ठहराते हैं जबकि वह उनकी हवस के अन्यत्र कुछ नहीं होता। फिर शुरू होता है धर्मो को नीचा दिखाने का खेल जिसमें हम उलझकर हदों को पार कर देते हैं।

दरअसल कानून तभी अपना कार्य करता है जब वास्तव में लोग सामाजिक अथवा धार्मिक रूप से अवैध कार्यों को छिपकर करने लगता है तथा उसके दुषपरिणामों के चलते बड़े बिगाड़ पैदा होने लगते हैं वहीं एक दूसरे को नीचा दिखाने के चक्कर में राजनीतिक लोग ऐसे मामलों को ज़ोर शोर से उठाकर मुद्दों से भटकाव पैदा करते हैं तब लगता है कि शायद यही सबसे बड़ी समस्या है जिसका निस्तारण आवश्यक है।

सुप्रीम कोर्ट द्वारा कल जो फैसला दिया गया वह किसी धर्म विशेष नहीं बल्कि पूरे भारतीय समाज के लिए अविश्वसनीय था। अभी इसी माह सितम्बर में समलैंगिकता को भी वैध करार दिया गया। दोनों ही मामलों में भारतीय संस्कृति इसकी मान्यता नहीं देती है जिन लोगो ने संविधान की रचना की उन्होंने दुष्कर्म और व्यभिचार को भारतीय संस्कृति के विरूद्ध मानते हुए धारा 377 व 497 को मजबूती के साथ अपराध की श्रेणी में रखा और अभी तक भी इनको अपराध ही माना जा रहा है। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद भी समाज दोनों फैसलों से विचलित है भले ही वह कोर्ट के सम्मान में आवाज़ नहीं उठा रहा वैसे समाज तो कोर्ट में अपना पक्ष भी नहीं रख पाया क्योंकि कोर्ट का फैसला तथ्यों और दलीलों पर आधारित होता है। मतलब साफ है समाज जागरूक नहीं है और किसी भी मामले पर पैरवी की जगह निंदा को महत्व देता है। यदि समाज जागरूक होता तो दुष्कर्म और व्यभिचार के अपराध की श्रेणी में आने के 66 वर्षों तक सक्रिय रहने के बावजूद इसका अनुपालन और पैरवी करके समाज को इन बुराइयों से बचा सकते थे कम से कम इन धाराओं के विरूद्ध की गई याचिकाओं का निस्तारण तो समाज के पक्ष में करा ही सकते थे। दरअसल इस पूरे मामले में भारतीय समाज ही विफल रहा है।