देश में 55 मिलियन यानी 5.5 करोड़ लोग सिर्फ इसलिए गरीबी रेखा से नीचे पहुंच गए क्योंकि उन्हें इलाज में काफी पैसा खर्च करना पड़ा।जिसमें से 3.8 करोड़ लोग तो सिर्फ दवाओं पर पैसा खर्च कर गरीब हो गए। ब्रिटिश मेडिकल जर्नल में प्रकाशित एक रिपोर्ट में यह अनुमानित आंकड़े उजागर हुए हैं। सबसे ज्यादा पैसा कैंसर, हृदय रोग, मधुमेह जैसी गैर संक्रमणीय बीमारियों के इलाज पर लोगों ने खर्च किए।रिपोर्ट से पता चला कि सबसे ज्यादा पैसा कैंसर के इलाज में किसी परिवार का खर्च हुआ।स्वास्थ्य व्यय को किसी घर के लिए बहुत विनाशकारी माना जाता है, अगर यह कुल खर्च का दस प्रतिशत से अधिक खर्च होता है।सड़क हादसे और अन्य तरह की दुर्घटनाओं ने गरीबों को सबसे ज्यादा आर्थिक चोट दी।अस्पतालों में औसतन सात दिन तक रुकना पड़ा।

देश भर में नागरिकों को सस्ते दर पर दवाएं उपलप्ध कराने के लिए केंद्र की ओर से तीन हजार स्टोर्स खोलने का लक्ष्य पूरा हो चुका है, मगर अक्सर इन स्टोर्स पर या तो समुचित दवाएं नहीं उपलब्ध रहतीं या फिर उनमें गुणवत्ता का संकट है।इन जनऔषधि केंद्रों पर छह सौ तरह की दवाओं के होने की बात कही गई मगर अधिकतर केंद्रों पर सौ से 150 ही दवाएं रहतीं हैं।एक और समस्या है कि देश भर में जहां साढ़े पांच लाख के करीब दवा की दुकानें हैं, उनके मुकाबले इन सरकारी स्तर से खुले केंद्रों की संख्या बहुत कम सिर्फ तीन हजार है।इस रिपोर्ट को तैयार करने में दो दशकों के डेटा के आधार पर विश्लेषण किया गया।

इसमें 1993-94 और 2011-12 के बीच उपभोक्ता व्यय सर्वेक्षण डेटा और 2014 के राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन की ओर से हुए सामाजिक उपभोग स्वास्थ्य सर्वेक्षण का स्वास्थ्य अर्थशास्त्री सक्थिवेल सेल्वराज और हबीब हसन ने अध्ययन किया। 2011-12 के आंकड़ों को देखने पर पता चलता है कि सरकार की ओर से उठाए गए कुछ कदमों से जनता पर बोझ पड़ना बंद हुआ।2013 में ड्रग प्राइस कंट्रोल आर्डर 2013 के लागू होने से जीवन रक्षक दवाओं के दाम में कमी आई।भले ही सरकार ने स्वास्थ्य बीमा योजनाएं लागू कीं मगर एक बड़ी आबादी इस सुविधा से अछूती है। अस्पतालों में भर्ती होने के दौरान आया खर्च गरीबों की कमर तोड़ रहा है।