इससे बड़ी बदकिस्मती और क्या होगी कि जिस अजीम शख्स और गीतकार की वजह से हिंदुस्तान ही नहीं गैर मुल्कों में उसके इलाके की पहचान हो, वहीं के लोग आज उस शख्स को भूलते जा रहे हैं. इतना ही नहीं जिला प्रशासन भी लापरवाह बना हुआ है. जी हां, हम बात कर रहे हैं दादा साहब फाल्के समेत दर्जनों अवार्ड हासिल करने वाले प्रसिद्द गीतकार और शायर मजरूह सुल्तानपुरी की. 24 मई 2000 को दुनिया को अलविदा कहने वाले इस गीतकार की आज 18वीं पुण्य तिथि है. चौंकाने वाली बात यह है कि तकरीबन पांच दशकों तक अपने गीतों और गजलों के जरिये लोगों के दिलों पर राज करने वाले मजरूह की सुलतानपुर में कोई भी निशानी मौजूद नहीं है.

समाज के आखिरी पायदान पर खड़े इंसान का दर्द अपनी गजलों में पिरो देने वाले मजरूह सुल्तानपुरी ईद के चांद के साथ ही इस कायनात में दाखिल हुए और अपने फन से लोगों को वाबस्ता कर जल्द ही फानी दुनिया से कूच कर गए. मजरूह भले ही आज जिंदा नहीं लेकिन सुलतानपुर में उनके कुछ खास करीबी आज भी उनकी यादें संजोए हैं.

‘मुझे मिल गया बहाना तेरी दीद का.. कैसी खुशी ले के आया चांद ईद का.’ साल 1917 की पहली अक्तूबर को कुड़वार ब्लॉक के गंजेहड़ी गांव में ईद के एक दिन पहले ही ईद की खुशी का माहौल पैदा हो गया जब पुलिस कांस्टेबल सिराजुल हक के घर इसरार हसन खां यानी मजरूह ने आंखें खोलीं. इसी गांव की गलियों में शायरी करते करते साल 1945 में मुंबई एक मुशायरे में गए मजरूह को इत्तेफाक से फिल्म शाहजहां क्या मिली मानों उनकी दुनिया ही बदल गई. तकरीबन साढ़े तीन सौ फिल्मों में आठ हजार गाने और सैकड़ों गजलों के जरिए देश और विदेश में सुलतानपुर का नाम रोशन करने वाले मजरूह के चाहने वालों की वैसे तो तादाद कम नही है. लेकिन खुद उनके शहर में उनकी पहचान खोती जा रही है. बस कुछ एक लोग हैं जो उनकी यादें आज भी संजोए हुए हैं.

मजरूह सुल्तानपुरी के करीबी रहे कुंवर आनंद प्रकाश कहता हैं मैं आज भी उनकी यादों को सीने में संजोए बैठा हूं. मेरे भाई के वे दोस्त थे लिहाजा मुझे भी छोटा भाई मानते थे. यही वो कमरा है जहां मुशायरा होता था. फ़िराक साहब भी उसमें आते थे. उनका कहना है कि 84 साल की उम्र में भी वे चाहते हैं कि मजरूह मेमोरियल सोसाइटी के नाम से उस शख्शियत को जिंदा कर सकें. फिर से सुलतानपुर का नाम बंबई तक हो.

बता दें तकरीबन दस साल पहले 15 अगस्त को साहित्यप्रेमी तत्कालीन जिलाधिकारी संजय कुमार ने लोगों की मांग पर कुछ संवेदनशीलता दिखाई और नगर के सिविल लाइन एरिया में मजरूह उद्यान की आधारशिला रखी. उस वक्त मजरूह के चाहने वालों को लगा था कि शायद प्रशासन उनके नाम पर कोई लाइब्रेरी, सभागार या कोई स्मारक बनवा कर उनकी यादें और उनके नाम को जिंदा रखेगा. लेकिन वक्त बीतने के साथ कुछ न हुआ. अब तो उद्यान भी अपनी बदहाली पर आंसू बहा रहा है. तकरीबन तीन साल पहले इसौली विधायक अबरार ने मजरूह के गांव वालों की बेहद मांग को देखते हुये तरस खाया और उनके नाम का गेट बनवाकर छुट्टी ले ली. मजरूह जैसी बड़ी शख्सियत के साथ लोगों की बेरुखी तमाम साहित्यप्रेमियों के लिये दुखदाई है.

मजरूह को याद करते हुए जियाउल हसनैन बताते हैं कि उनके घर में ही महफ़िल सजती थी. मजरूह साहब सुबह-सुबह नाश्ते के बाद नदी किनारे चले जाते और वहीं पर अपनी शेरो शायरी लिखा करते. शाम को घर पर ही महफ़िल सजती थी. उन्हें मजरूह सुल्तानपुरी का ख़िताब मेरे पिता ने ही दिया था.

मजरूह को शायद इस बात का एहसास पहले से ही था कि उनके न रहने पर सुलतानपुर के लोग उनको भूल जाएंगे. इसी अंदेशे का दर्द उनको जिंदगी भर सालता रहा. शायद यही वजह रही कि अपनी एक गजल में उन्होंने इसका जिक्र भी किया है…

"जबां हमारी न समझा यहां कोई मजरूह।

हम अजनबी की तरह अपने ही वतन में रहे।।"

मजरूह की याद बाकी रखने के लिये कई संगठन भी बने, लेकिन महज संगोष्ठी और नशिस्तों के आगे कुछ न हुआ. मजरूह के न रहने के बाद यहां के लोगों की बेरुखी का ही असर रहा कि उनके परिवार ने भी सुलतानपुर से किनारा कर लिया और मुम्बई बस गए. हालांकि उनके चाहने वालों को इसका बेहद अफसोस भी है. कुछ याद बाकी रहे लिहाजा गांव में उनके नाम का एक स्कूल किसी तरह लोग चला रहे हैं. उनके करीबी रहे कुंवर साहब कहते हैं कि वह मजरूह के नाम का अदबी सेंटर बनाना चाह रहे हैं जिसमें लोग आएं और साहित्य और अदब सीखें.