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चिंता का सबब प्रदूषित शहर

आशीष वशिष्ठ

विश्व स्वास्थ्य संगठन की ताजा रिपोर्ट भारत में तेजी से बढ़ते प्रदूषित शहरों की संख्या ंिचंता का बड़ा कारण है। डब्ल्यूएचओ के अनुसार वायु प्रदूषण के मामले में भारत के 14 शहरों की स्थिति बेहद खराब है। इस सूची में उत्तर प्रदेश का दूसरा सबसे बड़ा शहर कानपुर पहले स्थान पर है। कानपुर के बाद फरीदाबाद, वाराणसी, गया, पटना, दिल्ली, लखनऊ, आगरा, मुजफ्फरपुर, श्रीनगर, गुड़गांव, जयपुर, पटियाला और जोधपुर शामिल हैं। पंद्रहवें स्थान पर कुवैत का अली सुबह अल-सलेम शहर है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की ओर से जेनेवा में दुनिया के 15 सबसे प्रदूषित शहरों की सूची जारी की गई। इनमें भारत के 14 शहर शामिल हैं जिनमें कानपुर पहले पायदान पर है। वर्ष 2010 की विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट में प्रदूषित शहरो में भारत की राजधानी को सबसे उच्च पर स्थान पर थी लेकिन उसी के साथ दूसरे और तीसरे स्थान पर पाकिस्तान के पेशावर और रावलपिंडी शहर भी थे। लेकिन ताजा आंकड़ों के अनुसार पाकिस्तान ने अपनी स्थिति में सुधार किया है। ताजा आंकड़ों के अनुसार दुनिया के 20 सबसे प्रदूषित शहरों में भारत के 14 शहर शामिल हो गये है। स्टेट ऑफ ग्लोबल एयर रिपोर्ट के मुताबिक पूरी दुनिया में तीन में से एक व्यक्ति घर के भीतर और बाहर असुरक्षित हवा में सांस ले रहा है।

बीती जनवरी जारी एक रिपोर्ट में ग्रीनपीस ने कहा था कि भारत के 4.70 करोड़ बच्चे ऐसे क्षेत्रों में रहते हैं जहां हवा में पीएम10 का स्तर मानक से अधिक है। इसमें अधिकतर बच्चे उत्तर प्रदेश, राजस्थान, बिहार, महाराष्ट्र और दिल्ली के हैं। इस 4.70 करोड़ के आंकड़ें में, 1.70 करोड़ वे बच्चे हैं जो कि मानक से दोगुने पीएम10 स्तर वाले क्षेत्र में निवास करते हैं। वहीं उत्तर प्रदेश, राजस्थान, बिहार, महाराष्ट्र और दिल्ली राज्यों में लगभग 1.29 करोड़ बच्चे रह रहे हैं जो पांच साल से कम उम्र के हैं और प्रदूषित हवा की चपेट में हैं। हवा जहरीली और प्रदूषित होने का मतलब है वायु में पार्टिकुलेट मैटर (पीएम) के स्तर में वृद्धि होना। हवा में पीएम 2.5 की मात्रा 60 और पीएम10 की मात्रा 100 होने की मात्रा पर इसे सुरक्षित माना जाता है। लेकिन इससे ज्यादा हो तो वह बेहद ही नुकसान दायक माना जाता है।

ग्रीनपीस इंडिया ने अपनी वार्षिक रिपोर्ट ‘एयरपोक्लिपस’ में 280 शहरों का विश्लेषण किया था। इन शहरों में देश की करीब 53 फीसदी जनसंख्या रहती है। बाकी 47 फीसदी आबादी ऐसे क्षेत्र में रहती है जहां की वायु गुणवत्ता के आंकड़े उपलब्ध ही नहीं हैं। रिपोर्ट में बताया गया है कि इन 63 करोड़ में से 55 करोड़ लोग ऐसे क्षेत्र में रहते हैं जहां पीएम10 का स्तर राष्ट्रीय मानक से कहीं अधिक है। वास्तव में भारत में कुल जनसंख्या के सिर्फ 16 प्रतिशत लोगों को वायु गुणवत्ता का रियल टाइम आंकड़ा उपलब्ध है। यह दिखाता है कि हम वायु प्रदूषण जैसे राष्ट्रीय स्वास्थ्य संकट से निपटने के लिये कितने असंवेदनशील हैं। यहां तक कि जिन 300 शहरों में वायु गुणवत्ता के आंकड़े मैन्यूअल रूप से एकत्र किए जाते हैं वहां भी आम जनता को वह आसानी से उपलब्ध नहीं है। रिपोर्ट के मुताबिक भारत के कई शहर विश्व स्वास्थ्य संगठन के वायु गुणवत्ता मानक (20 माइक्रोग्राम प्रति घनमीटर औसत) को पूरा नहीं करते। इतना ही नहीं 80 प्रतिशत भारतीय शहर केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा जारी राष्ट्रीय वायु गुणवत्ता मानक (60 माइक्रोग्राम प्रति घनमीटर औसत) को भी पूरा नहीं करते।

मेडिकल जर्नल ‘द लांसेट’ के अनुसार, हर साल वायु प्रदूषण के कारण 10 लाख से ज्यादा भारतीय मारे जाते हैं और दुनिया के सबसे प्रदूषित शहरों में से कुछ शहर भारत में हैं। द लांसेट का अध्ययन कहता है कि वायु प्रदूषण सभी प्रदूषणों का सबसे घातक रूप बनकर उभरा है। दुनियाभर में समय से पहले होने वाली मौतों के क्रम में यह चैथा सबसे बड़ा खतरा बनकर सामने आया है। 48 प्रमुख वैज्ञानिकों ने यह अध्ययन जारी किया और पाया कि पीएम 2.5 के स्तर या सूक्ष्म कणमय पदार्थ (फाइन पार्टिक्युलेट मैटर) के संदर्भ में पटना और नई दिल्ली दुनिया के सबसे प्रदूषित शहर हैं। ये कण दिल को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाते हैं। एक आकलन के मुताबिक वायु प्रदूषण की चपेट में आने पर हर दिन दुनियाभर में 18 हजार लोग मारे जाते हैं। इस तरह यह स्वास्थ्य पर मंडराने वाला दुनिया का एकमात्र सबसे बड़ा पर्यावरणीय खतरा बन गया है। विश्व बैंक का आकलन है कि यह श्रम के कारण होने वाली आय के नुकसान के क्रम में वैश्विक अर्थव्यवस्था को 225 अरब डॉलर का नुकसान पहुंचाता है।

डब्ल्यूएचओ के ताजा आंकड़े बताते हैं कि 2010-2014 के बीच में दिल्ली के प्रदूषण स्तर में मामूली सुधार हुआ है, लेकिन 2015 से स्थिति फिर बिगड़ने लगी है। वायु प्रदूषण को लेकर डब्ल्यूएचओ 100 देशों के 4,000 शहरों का अध्ययन किया है। यह अध्ययन बताता है कि दिल्ली में 2010 और 2014 के बीच हवा की स्थिति में मामूली सुधार आया, लेकिन 2015 से हालात फिर बिगड़ने लगे हैं। आंकड़ों के मुताबिक राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में पीएम 2.5 वार्षिक औसत 143 माइक्रोग्राम प्रति क्यूबिक मीटर है जो राष्ट्रीय सुरक्षा मानक से तीन गुना अधिक है जबकि पीएम 10 औसत 292 माइक्रोग्राम प्रति क्यूबिक मीटर है जो राष्ट्रीय मानक से 4.5 गुना ज्यादा है। बता दें कि केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) ने अभी कुछ दिन पहले ही में दावा किया था कि 2016 की तुलना में 2017 में वायु प्रदूषण के स्तर में सुधार हुआ है. हालांकि बोर्ड ने अब तक 2017 के लिए हवा में मौजूदा पीएम 2.5 का आंकड़ा जारी नहीं किया है।

भारतीय शहरों की हवा भी बेतहाशा दौड़ने वाहनों से जहरीली होती जा रही है। इसी तरह जैसे एशियाई देशों में ईंधन का धुआं, प्रदूषण का मुख्य कारण है, ठीक वैसे ही भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में ईंधन का धुआं, हवा को जहरीली बना रहा है। ऐसे में भारत की जिम्मेदारी बड़ी और ज्यादा गंभीर चुनौतीपूर्ण हो जाती है, क्योंकि हमें विकसित और विकासशील दोनों ही प्रकार के देशों में किए जा रहे उपायों को अपनाना पड़ेगा। प्रारंभिक तौर पर हमें हमारे गांवों की हवा को शुद्ध रखने के लिए इस बात का खासतौर से खयाल रखना होगा कि ईंधन के बतौर लकड़ी, कोयले का कम से कम इस्तेमाल हो और भारतीय सड़कों पर बेतहाशा दौड़ते वाहनों को कैसे सीमित व नियंत्रित किया जाए? जीवन के लिए वायु प्रदूषण 21वीं सदी का सबसे बड़ा संकट सिद्ध हो रहा है।

भारत में 2016 में वायु प्रदूषण से निपटने के लिए कई कदम उठाए गए हैं। अक्टूबर में ग्रेडेड रिस्पांस एक्शन प्लान, दिसंबर 2015 में ट्रकों पर पर्यावरण प्रतिपूर्ति शुल्क (ईसीसी) और वायु प्रदूषण पर नियंत्रण को लेकर एनसीआर के शहरों के बीच बेहतर समन्वय जैसे उपाय इनमें शामिल हैं। सरकार की ओर से उठाए गए कदमों से स्थिति कितनी सुधरी, इसकी जानकारी नहीं मिल पाई क्योंकि डब्ल्यूएचओ की रिपोर्ट में 2016 तक के आंकड़ों को ही शामिल किया गया है। डब्ल्यूएचओ की रिपोर्ट में भारत के लिए जो बात सकारात्मक कही जा सकती है वह है प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ‘उज्जवला’ योजना की विशेष चर्चा. इस योजना के तहत गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाली महिलाओं को किफायती दर पर एलपीजी कनेक्शन मुहैया कराया जाता है। इससे इन महिलाओं को लकड़ी के चूल्हे पर खाना बनाने से निजात मिली है। रिपोर्ट में उज्जवला योजना का जिक्र करते हुए कहा गया है कि हालांकि वायु प्रदूषण के ताजा आंकड़े खतरनाक हैं, लेकिन इसके बावजूद दुनिया के कुछ देशों में सकारात्मक प्रगति देखी जा रही है।

‘नेचर’ जर्नल में प्रकाशित एक रिपोर्ट में वैज्ञानिकों के चेतावनी दी है कि वायु प्रदूषण को रोकने हेतु यदि अविलंब और कारगर उपाय नहीं किए गए तो वर्ष 2050 तक हर बरस तकरीबन 66 लाख लोग अकाल मृत्यु के शिकार हो सकते हैं। रिपोर्ट के मुताबिक मौजूदा समय में प्रदूषित हवा की वजह से हर बरस तकरीबन 33 लाख लोग मर जाते हैं। अगर वायु प्रदूषण के विरुद्ध कोई सक्षम कार्रवाई नहीं की गई तो वर्ष 2050 तक हर बरस मरने वालों की संख्या दोगुनी हो जाएगी। सर्वेक्षण में यह भी खुलासा किया गया है कि वर्ष 2010 में केवल पॉवर जनरेटर से होने वाले वायु प्रदूषण से सिर्फ भारत में ही तकरीबन 90 हजार लोगों की जानें चली गई थीं। आबादी के लिहाज से सबसे ज्यादा नुकसान भारत का ही होने वाला है, लिहाजा भारत को अपनी जिम्मेदारी बखूबी समझते हुए तत्काल ही कुछ सार्थक व ठोस उपाय करना होंगे। एक रपट के मुताबिक दुनिया की करीब 95 फीसदी आबादी खराब हवा में सांस लेती है और प्रदूषण के कारण मौत के मुंह में जाने वाले विश्वभर के कुल लोगों में से करीब आधे भारत और चीन से होते हैं।

भारत सरकार की एक स्वीकारोक्ति में कहा गया है कि वायु प्रदूषण से पैदा हुई बीमारियों के कारण पिछले एक दशक में देश में 35 हजार लोगों की मौतें हो चुकी हैं। हालांकि हमारा पर्यावरण मंत्रालय अभी तक यही कहता आया है कि वायु प्रदूषण से उत्पन्न होने वाले स्वास्थ्य संबंधी खतरों का कोई पक्का सबूत उपलब्ध नहीं है, जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन पिछले कुछ समय से भारत में वायु प्रदूषण को लेकर चिंता व्यक्त करता आ रहा है। उसका मानना है कि वायु प्रदूषण के कारण वक्त से पहले 88 फीसदी मौतें उन देशों में होती हैं जिनकी आय का स्तर निम्न अथवा मध्य स्तर का है। उसने भारत को सर्वाधिक वायु प्रदूषित देशों के बतौर रेखांकित किया है। लिहाजा आतंकित होने की बजाय प्रदूषण के विरुद्ध लड़ाई तेज करने की जरूरत है।

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