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पत्रकार से ही हक़ की उम्मीद क्यों?

रविश अहमद

पत्रकारिता को आज लोग प्रैसटिट्यूट के नाम से बुलाते हैं, गोदी मीडिया कहा जाता है, दलाल मीडिया जैसे लक़ब दिये जाते हैं क्योंकि मीडिया वास्तव में अपना काम ईमानदारी से नही कर रहा है। मीडिया को हमेशा सरकार का आलोचक और विपक्ष का प्लेटफार्म होना चाहिए न कि सरकार का गुणगान करने वाला। लेकिन क्यों आज जबकि जनता, जिसके लिये मीडिया को लड़ना चाहिए जिसके हक के लिये आवाज़ बुलन्द करनी चाहिए, गरीब के लिये उचित सुविधाओं और
ज़रूरतमन्दों के लिये कलम के ज़रिये संघर्ष करना चाहिये, जब लोगों को वर्गों में बांटकर सरकारें हकतलफी करने लगें तो मीडिया को बाग़ी हो जाना चाहिये। जब वही जनता खुद कदम दर कदम हकतलफी पर उतारू हो जाये तो पत्रकार ही क्यों लड़े मरे? वह भी तो अपने बच्चों के उज्जवल भविष्य की कामना कर सकता है। आप यानी आम जनता स्वयं भ्रष्टाचारी हैं आप हैलमेट लगाकर और काग़ज़ साथ लेकर नही चलेगें चैकिंग के दौरान 100-200 देकर रफा-दफा करने में आपका पूरा पूरा विश्वास है और ग़लती पुलिस की निकालते हैं कि पुलिस विभाग भ्रष्ट है। ट्रेन में रिज़र्वेशन न मिलने पर आप विचलित नही होते, आप विश्वस्त होते हैं कि टीटी या रेलवे पुलिस को कुछ रूपये देकर आपको सीट मिल जायेगी। डॉक्टर के यहां लोगों की भीड़ लगी होने पर भी आप जल्दी नम्बर पा लेते हैं क्योंकि आप या तो एमरजेंसी फीस चुकाते हैं या फिर रिसेप्शन को पटाने का तरीका जानते हैं। राशन डीलर के यहां अंत्योदय और बीपीएल के राशन पर सक्षम लोगों की नज़रें रहती हैं और कामयाब भी हो जाते हैं, लेकिन भ्रष्ट तो आपूर्ति विभाग है। बिजली-पानी के बिल भुगतान में छूट का फायदा उठाने से पहले भी आप बिजली नम्बर एक की नही चलाते लेकिन भ्रष्ट तो विद्युत विभाग है। आरक्षण का लाभ केवल सक्षम या पहले से आरक्षण प्राप्त लोगों के वंशजों को ही अधिकायक मिलता है।
यहां लिखी तमाम मिसालों में हर जगह सिर्फ थोड़ा सा सक्षम आदमी एक ग़रीब और कमज़ोर आदमी से आगे निकल जाता है बल्कि हक़तलफी कर लेता है।
फिर जब देश की सारी जनता यानी करीब दो तिहाई या शायद इससे भी ज़्यादा लोगों की मानसिकता भ्रष्ट हो चुकी है। सबसे बड़ी बात कि आप उस नेता को पसन्द करते हैं जो आपके बीच आकर आपको इन्सानों से जानवरों के झुंड बनने के लिये उकसाता है मतलब आप इन्सानियत का साथ छोड़कर जानवरों की तरह दूसरे को नुकसान पंहुचाने में उलझ जायें या दूसरो को पंहुची तकलीफ में देख खुश होने लगें तब आप पहले खुद के विषय में ही सोचने लगेगें। क्या पीने का पानी सबको मिलता है? क्या बिजली सही से आती है? क्या सरकारी स्कूलों और अस्पतालों की सुविधाएं आप ले सकते हैं? सरकारी योजनाएं ठीक से आम आदमी तक पंहुचती हैं या नही? आपके बच्चे जिस स्कूल में पढ़ते हैं वहां की बिल्डिंग, स्टाफ, साधन-संसाधन सब ठीक हैं कि नही?
आपके घर के बेरोज़गार नौजवानों का भविष्य क्या है? इन सब के विषय में जब आम जनता बिल्कुल भी नही सोचती तो पत्रकार ही क्यों अपना जीवन बर्बाद करें। जनता के किसी भी विरोध/प्रदर्शन को कवरेज करते पत्रकारों को जनता जानी माली नुक़सान पंहुचाती है फिर भी आप उम्मीद करते हैं कि पत्रकार ही आपकी आवाज़ बनें। आप यानी जनता अपने प्रतिनिधियों से कभी कोई सवाल नही करते, वो आपको उलझाकर रखना चाहते हैं और आप उलझे हुए ही ख़ुश हैं तब पत्रकारों पर सवाल खड़ा करना कहां तक जायज़ है? जिस दिन जनता जागरूक होगी और अपने भारतीय नागरिक होने के चलते अपने अधिकारों एवं कर्तव्यों के प्रति पूर्णतः गम्भीर होगी, जिस दिन आपको अहसास हो जाये कि केवल पत्रकार ही आपकी आवाज़ को बुलन्द कर सकते हैं, जिस दिन आपको लगे कि वैमनस्य का यह दौर आपके नौनिहालों का भविष्य संकट में डाल रहा है। उस दिन आप पत्रकारों की उल्टी और फिज़ूल ख़बरों की जगह उनसे मुद्दों की पत्रकारिता का सवाल कीजिए आपको पत्रकार अपना फर्ज़ निभाते नज़र आयेगें।

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