-डॉ हरनाम सिंह “मंथन”

वर्तमान परिवेश में डॉ अम्बेडकर को कुछ लोग उन्हें देवता बनाने में लगे हैं तो कुछ उन्हें केवल वंचितों की धरोहर, जबकि उनका पूरा संघर्ष समरस समाज और राष्ट्र के सशक्तिकरण के लिए रहा । सामाजिक समरसता एवं शिक्षा में समानता के प्रबल पक्षधर बाबा साहब डॉ भीमराव अम्बेडकर ने एक ऐसे स्वाभिमानी राष्ट्र की संकल्पना को यथार्थ रूप दिया जिसमें समाज के सभी वर्गो, धर्मो व जातियों को समान अधिकार व अवसर प्राप्त हो। सभी को शिक्षा के समान अवसर उपलब्ध कराकर वे एक ऐसे सामर्थ्यवान राष्ट्र की संकल्पना करते है जो पुनः किसी भी प्रकार की पराधीनता का शिकार न हो। भारत की पराधीनता से व्यथित डॉ अम्बेडकर एक ऐसे समाज की कल्पना करते थे जिसमें किसी भी प्रकार की सामाजिक एवं आर्थिक असमानता न हो। धार्मिक, आर्थिक एवं सामाजिक समानता द्वारा ही राष्ट्रीय एकीकरण का विचार करने वाले डॉ अम्बेडकर हिन्दू समाज की वर्ण व जाति व्यवस्था को अस्पृश्यता व दलितों की दुरावस्था का मूल कारण मानते थे। इनका दृढ़ विश्वास था कि जाति व वर्ण व्यवस्था का उन्मूलन किये बिना सामाजिक व आर्थिक समानता संभव नहीं है। समानता के बिना देश व समाज का विकास संभव नहीं है। हमें अपना रास्ता स्वयं बनाना पडेंगा और स्वयं राजनीतीक शक्ति, शोषितो की समस्याओं का निवारण नही हो सकता, उनका उद्धार समाज में उनका उचित स्थान पाने के निहित है। उनको अपना रहने का पूरा तरीका बदलना होगा, उनको शिक्षित होना चाहिए, एक बड़ी आवश्यकता उनकी हीनता की भावना को झकझोरने और उनके अंदर उस दैवीय असतोंष की स्थापना करने की है जो सभी उँचाईयों का स्रोत है।
डॉ अम्बेडकर के चिन्तन और दृष्टि को समझने के लिए यह ध्यान रखना जरूरी है कि उनके चिन्तन में जड़ता नहीं है। अम्बेडकर का दर्शन समाज को गतिमान बनाए रखने का है। व्यक्ति की महानता उसके कर्म से सुनिश्चित होती है न कि जन्म से। समाज के सशक्तिकरण की यात्रा को डॉ अम्बेडकर ने आगे बढ़ाया। उनका दृष्टिकोण न तो संकुचित था और न ही वे पक्षपाती थे। वंचितों को सशक्त करने और उन्हें शिक्षित करने का उनका अभियान एक तरह से हिंदू समाज और राष्ट्र को सशक्त करने का अभियान था। उनके द्वारा उठाए गए सवाल जितने उस समय प्रासंगिक थे, वे आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं। अगर समाज का एक बड़ा हिस्सा शक्तिहीन और अशिक्षित रहेगा तो हिंदू समाज और राष्ट्र सशक्त कैसे हो सकता है? वे बार बार सवर्ण हिंदुओं से आग्रह कर रहे थे कि विषमता की दीवारों को गिराओ, तभी हिंदू समाज शक्तिशाली बनेगा। वर्तमान समय में देश और दुनिया में एक गलत धारणा बनाई जा रही है कि अम्बेडकर केवल वंचितों के नेता थे। उन्होंने केवल वंचितों के उत्थान के लिए कार्य किया।

राजाराम मोहन राय से लेकर स्वामी दयानन्द सरस्वती, विवेकानन्द, महात्मा गाँधी जैसे प्रखर समाज सुधारक हुये है जिन्होने जाति व्यवस्था, वर्ण व्यवस्था को हटाकर धर्म व समाज में आयी विकृतियों को दूर करने का प्रयास किया। किन्तु सदियो से अभिशप्त, वंचित-दलित वर्ग के उत्थान के लिए संघर्ष करने व अस्पृश्यों और दलितों के उद्वार के लिए दलितों में से ही नेतृत्व उभारने का मार्ग डॉ भीमराव अम्बेडकर ने दिखाया। सामाजिक सुधारों में डॉ अम्बेडकर ने समान नागरिक संहिता विकसित करने व हिन्दू समाज में समानता लाने के लिए हिन्दू कोड बिल का समर्थन किया। 1932में जब ब्रिटिशों ने अम्बेडकर के साथ सहमति व्यक्त करते हुए अछूतों का पृथक निर्वाचिका देने की घोषणा की, आर्थिक सुधारों पर ध्यान केन्द्रित करते हुए कृषि व्यवस्था में सुधार के अन्र्तगत भूमि के समान वितरण, कृषि श्रमिकों, कृषि कर व सम्पत्ति कर पर अपने विचार रखे। औद्योगिकरण के बिना भारत का विकास संभव नहीं हो पाने के विचार की दृष्टि से उन्होने औद्योगिकरण पर बल दिया। श्रमिकों की दुरवस्था को देखते हुये सामाजिक सुरक्षा व्यवस्था, बीमा योजना, न्यूनतम मजदूरी निर्धारण, गरीबी, बेरोजगारी, बेगारी, नशाबन्दी आदि पर न केवल विचार व्यक्त कियें वरन उपचार भी सुझाये जिन पर अमल करते हुए देश में अनेक कानून बने। डॉ अम्बेडकर के प्रयासों का ही फल है कि शिक्षा के प्रसार में जातिगत-भौगोलिक व आर्थिक असमानताएं बाधक न बन सके, इसकी व्यवस्था संविधान व नीति निर्देशक तत्वों में की गई। शिक्षा अधिकार का क्रियान्वयन भी इन्हीं का परिणाम हैं। उनके अनुसार शिक्षा का बड़ा उद्देश्य लोगों में नैतिकता व जनकल्याण की भावना विकसित करना होना चाहिए।

आज लोकतांत्रिक और आधुनिक दिखाई देने वाला देश, अम्बेडकर के संविधान सभा में किये गए सत्त वैचारिक संघर्ष और उनके व्यापक दृष्टिकोण का नतीजा है, जो उनकी देख-रेख में बनाए गए संविधान में क्रियान्वित हुआ है । अम्बेडकर चाहते थे कि देश के हर बच्चे को एक समान, अनिवार्य और मुफ्त शिक्षा मिले, चाहे व किसी भी जाति, पंथ या वर्ग का क्यों न हो। वे संविधान में शिक्षा को मौलिक अधिकार बनवाना चाहते थे। देश की आधी से ज्यादा आबादी बदहाली, गरीबी और भुखमरी से जूझती अमानवीय जीवन जीने को अभिशप्त है। इस आबादी की आर्थिक सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए ही अम्बेडकर ने रोजगार के अधिकार को मौलिक अधिकार बनाने की वकालत की थी। संविधान में मौलिक अधिकार न बन पाने के कारण आज भी करोड़ों लोग बेरोजगारी की मार झेल रहे हैं।

डॉ अम्बेडकर का मत था कि राष्ट्र व्यक्तियों से होता है, व्यक्ति के सुख और समृद्धि से राष्ट्र सुखी और समृद्ध बनता है। उनके विचार से राष्ट्र एक भाव है, एक चेतना है, जिसका सबसे छोटा घटक व्यक्ति है और व्यक्ति को सुसंस्कृत तथा राष्ट्रीय जीवन से जुड़ा होना चाहिए। राष्ट्र को सर्वोपरि मानते हुए अम्बेडकर व्यक्ति को प्रगति का केन्द्र बनाना चाहते थे। वह व्यक्ति को साध्य और राज्य को साधन मानते थे। उन्होंने इस देश की सामाजिक-सांस्कृतिक स्थिति का सही और साफ आकलन किया। उन्होंने कहा कि भारत में किसी भी आर्थिक-राजनीतिक क्रांति से पहले एक सामाजिक -सांस्कृतिक क्रांति की दरकार है। भारतीय संस्कृति को समृद्ध और श्रेष्ठ बनाने में सबसे बड़ा योगदान वंचित समाज के लोगों का है।

डॉ अम्बेडकर ने ‘भीम प्रतिज्ञा‘ में अपना जीवन लक्ष्य प्रकट किया था कि-दलित वर्ग के चहुमुखी विकास को सुनिश्चित करने के लिए मैं पूर्ण निष्ठा के साथ अत्यन्त कठोर परिश्रम करूगा। इसी कार्य के लिए मैने इतना ज्ञान अर्जित किया है। अपनी शपथ के अनुरूप ही बाबा साहेब ने वंचितोत्थान के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया। ‘सबका जलाशय-सबका देवालय‘ के विचार के साथ प्रारम्भ हुआ तर्कशुद्व आन्दोलन जिसे ‘धर्म संगर‘ कहते है। इस दौरान बाबा साहेब ने राजनीतिक वार्ता, प्रतिवेदनों के माध्यम से राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक अधिकार प्राप्त करने का प्रयत्न किया।
डॉ अम्बेडकर का सपना था कि समतामूलक समाज हो, शोषण-मुक्त समाज हो। दरअसल आज उनका यही सपना सबसे ज्यादा प्रासंगिक है और इसी के कारण अम्बेडकर भी सबसे ज्यादा प्रासंगिक है । उनके समूचे जीवन और चिंतन के केंद्र में यही एक सपना की जातिविहीन, वर्गविहीन, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक विषमताओं से मुक्त समाज। ऐसा समाज बनाने के लिए समाज का सशक्तिकरण सबसे पहली प्राथमिकता होगी। यही अम्बेडकर की सोच और संघर्ष का सार है। आज अम्बेडकर इस देश के संघर्षशील और परिवर्तनकारी समूहों के हर महत्वपूर्ण सवाल पर प्रासंगिक है इसी कारण वह विकास के लिए संघर्ष के प्रेरणास्रोत भी बन गए हैं।

डॉ अम्बेडकर अस्पृश्यता आन्दोलन को माध्यम बनाकर स्वतंत्रता समता और बंधुत्व के आधार पर समग्र समाज की पुर्नरचना करना चाहते थे। स्वतंत्रता से उनका तात्पर्य था कि जन्म से प्रत्येक व्यक्ति समान है और उसे समान अवसर मिलना चाहिए। उन्होने कहा कि जातिवाद तथा वर्णव्यवस्था का आधार जन्म के आधार पर न होकर कार्य के आधार पर होना चाहिए। वर्गीय व्यवस्था का विरोध करते हुए उनका मत था कि यह व्यवस्था लोगों को गुलाम बनाती है और मनोवैज्ञानिक जटिलता को जन्म देती है। डॉ अम्बेडकर ने दुखी होकर कहा कि में अस्पृश्य समाज में जन्मा हू, केवल इस कारण उच्च विधाविभूषित व्यक्ति का यह हाल है, तो मेरे समाज के लाखों अनपढ़, गॅवार भाई-बहनों का क्या हाल होता होगा? जहाँ जानवरों को सम्मान मिलता है जबकि अस्पृश्य मानवों के साथ बद्तर व्यवहार होता है। वे असमानता के विरूद्व अपने जीवन को समर्पित कर समाज की समानता के लिए, उपेक्षा से मुक्ति के लिए, गरीबों के उत्थान के लिए, समाजिक समरसता के लिए संघर्षरत भारत को एक मजबूत राष्ट्र के रूप में देखना चाहते थे।

बाबा साहब का मत था कि शिक्षा ही राष्ट्र र्निमाण कर सकती है। संस्कारयुक्त शिक्षा और सम्पूर्ण पीढ़ी को संस्कारित करने की जिम्मेदारी शिक्षक की ही है, उन्होने पाठ्यक्रमों का स्वरूप, विद्यार्थियों के दायित्व, शिक्षको की पात्रता, शिक्षण संस्थाओं का उत्तरदायित्व, सभी के लिए शिक्षा व्यवस्था आदि विषयों पर चिन्तन कर समयानुकुल अनिवार्यता पर बल दिया। शिक्षा से ही व्यक्ति-समाज व राष्ट्र का समग्र विकास हो सकता है अतः बाबा साहब महिला शिक्षा के प्रबल पक्षधर थे। उनके अनुसार किसी भी समुदाय की प्रगति का माप उस समुदाय की महिलाओं द्वारा की गई प्रगति से संबंधित है अतः शिक्षा स्त्रियों के लिए उतना ही आवश्यक है जितना पुरूषों के लिए। उन्होंने ऐसी शिक्षा नीति विकसित करने पर बल दिया जो बौधिक विकास के साथ चरित्र निर्माण कर विद्यार्थी को सुयोग्य नागरिक बनाये। वे कहते थे शिक्षा व्यक्तिगत स्वार्थ पुर्ति का साधन नही है, इसका विनियोग समाज हित में होना चाहिए और यह जनमानस बनाने का कार्य शिक्षा संस्थानों का है इस परिदृश्य में बाबा साहब के शैक्षिक विचारों के व्यापक प्रचार-प्रसार एवं आचरण में उतारने की आवश्यकता है। तभी भारत सही मायनों में समतामूलक, समरस विकसित राष्ट्र बन सकता है। पीढियों को तराशने का कार्य करने वाले शिक्षकों का कर्त्तव्य है कि बाबा साहब के शैक्षिक व सामाजिक विचारों को समाज में स्थापित करने में अपनी सक्रिय भूमिका निभाये जिससे समरस-सशक्त एवं समृद्व भारत का निर्माण संभव हो सके। अम्बेडकर की सामाजिक और राजनैतिक सुधारक की विरासत का आधुनिक भारत पर गहरा प्रभाव पडा। स्वतंत्रा के बाद भारत में उनकी सामाजिक राजनैतिक सोच को सारे राजनैतिक दलो का सम्मान मिला। उनकी इस पहल ने जीवन के सभी क्षेत्रों में भारत की सोच को प्रभावित किया। आज की सामाजिक आर्थिक नीतियों, शिक्षा -कानून और सकांरात्मक कार्रवाही एंव उन्होने अपने अनुयायियों को गाँव से शहरों की ओर पलायन करने एंव शिक्षा प्राप्त करने के लिए प्रेरित किया उनकी यह प्रेरणा वर्तमान परिपेक्ष्य में सार्थक हुई। वर्तमान शिक्षा व्यवस्था व नीति में जो भी कमियाँ है, उनका निवारण बाबा साहब के विचारों में खोजा जा सकता है और सामाजिक और आर्थिक अवसरों की समानता वाले समाज की रचना की जा सकती है।

लेखक सरदार भगत सिंह राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, दीन दयाल उपाध्याय कौशल केन्द्र रूद्रपुर-उधम सिंह नगर, उत्तराखण्ड में सहायक आचार्य है सम्पर्क-7379727999